4 Very Good

अगर आप सोच रहे हैं कि ‘लाहौर’ भी ‘चक दे इंडिया’ की तरह किसी खेल पर आधारित फिल्म है तो आप गलतफहमी में हैं। यह फिल्म भारत-पाक पृष्ठभूमि पर बननेवाली ढेरों फिल्मों में से भी नहीं है। ‘लाहौर’ में न तो पाकिस्तान के खिलाफ नारे हैं और न ही कोई दुर्भावना। फिल्म में क्या है यह जानने के लिए फिल्म देखना ही जरूरी है। इसका प्रस्तुतिकरण लाजवाब है और यही इस फिल्म को बाकी से अलग कर देता है।

‘लाहौर’ सिर्फ किक-बॉक्सिंग की कहानी नहीं है। यह कहानी है दो भाइयों के बीच के प्यार और खेल से जुड़े उनके जुनून की। यह कहानी है खेलों में घुस आई राजनीति की और श्रेष्ठ खिलाड़ियों के चुनाव के बजाय सिफारिश से चुने जाने की साजिशों की। लेकिन एक ईमानदार कोच राव (फारूख शेख) की कोशिशों से श्रेष्ठता के आधार पर धीरेंद्र सिंह (सुशांत सिंह) को चुन लिया जाता है और उसका मुकाबला पाकिस्तान के नूर मुहम्मद (मुकेश ऋषि) से कुआला लम्पोर में होता है। लेकिन तभी ऐसा कुछ हो जाता है, जिसकी अपेक्षा नहीं थी...

उसके बाद दोनों देशों के बीच लाहौर में मुकाबला होता है, लेकिन इस बार नूर मुहम्मद का प्रतिद्वंद्वी है धीरेंद्र का भाई वीरेंद्र (अनाहद)। इस मुकाबले में वीरेंद्र को सिर्फ जीतना ही नहीं है, बल्कि देश के खोए सम्मान को लौटाना भी है।

फिल्म में किक-बॉक्सिंग के शानदार दृश्य हैं, जिन्हें इंसानी भावनाओं के साथ बहुत ही अच्छे ढंग से बुना गया है। अनाहद और श्रद्धा दास के बीच प्यार की कहानी को भी उचित स्थान मिला है। हां, इतना जरूर है कि यह पता नहीं चलता कि एक क्रिकेटर वीरेंद्र किस तरह से किक-बॉक्सिंग के लिए चुना जाता है। शायद फिल्मी आजादी के कारण ऐसा हुआ हो, खैर।

निर्देशक इस फिल्म के लिए पूरे अंक हासिल करने का हकदार है। संजय पूरनसिंह चौहान ने इस फिल्म में अपना मन और अपनी आत्मा दोनों झोंक दिए हैं। उन्होंने एक-एक दृश्य को बड़े ही जतन और श्रेष्ठ कौशल के साथ फिल्माया है। हालांकि मध्यांतर के पहले ही पता चल जाता है कि मामला क्या है और फिल्म कहां जा रही है, लेकिन आपका मन फिल्म से इस कदर जुड़ जाता है कि आपको उससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। शायद इसीलिए फिल्म ने कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रशंसा पाई है।

फिल्म का संपादन काफी चुस्त है। छायांकन द्वारा बॉक्सिंग की एक-एक हलचल को बहुत ही बारीकी से फिल्माया गया है, जो गजब का है।

फारूख शेख अपनी लाजवाब संवाद अदायगी और बेहतरीन अभिनय कौशल के बल एक भारतीय कोच की भूमिका में असाधारण हैं। सौरभ शुक्ला ने भी उनका खूब साथ दिया है। सब्यसाची चक्रबर्ती ने पाकिस्तानी कोच के रूप में खलनायक की भूमिका के साथ न्याय किया है, लेकिन उनके उच्चारण कुछ कमजोर पड़ गए हैं।

सुशांत सिंह ने अपनी भूमिका को काफी अच्छे ढंग से जिया है। एक बॉक्सर के रूप में उनकी फुर्ती और उत्साह देखते ही बनता है। श्रद्धा निगम ने उनकी प्रेमिका की भूमिका पूरे मन से निभाई है। नफीसा अली सुंशात की मां की भूमिका में खूब जंची हैं। श्रद्धा दास पाकिस्तानी लड़की के किरदार में जमी हैं। मुकेश ऋषि ने नूर मुहम्मद के किरदार को साकार करते हुए दिखा दिया है कि वे एक विश्वसनीय अभिनेता हैं। आशीष विद्यार्थी ने पाकिस्तानी नेता की भूमिका बखूबी निभाई है और केली दोरजी ने भी चरमोत्कर्ष में प्रभावित किया है।

दिवंगत निर्मल पांडे को इस फिल्म में करने के लिए कुछ खास नहीं था और अनाहद ने अपनी भूमिका को पूरे उत्साह से निभाया है।

‘लाहौर’ एक ऐसी फिल्म है, जिसका हर पहलू आपको हैरत में डाल देगा।