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कम समय में अधिक पैसा कमाना हो तो बेईमानी का सहारा लेना पड़ता है। तेज दिमाग का दुरुपयोग कर लोगों को बेवकूफ बनाना पड़ता है। इस तरह की बातों पर ‘बदमाश कंपनी’ के अलावा भी कई फिल्मों का निर्माण हुआ है क्योंकि मनोरंजन की इसमें भरपूर गुंजाइश रहती है।

‘बदमाश कंपनी’ की सबसे बड़ी प्रॉब्लम इसकी स्क्रिप्ट है। परमीत सेठी ने इसे अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखा है। मन मुताबिक कहानी को ट्‍विस्ट दिए हैं, भले ही वो विश्वसनीय और सही नहीं हो। इससे दर्शक स्क्रीन पर दिखाए जा रहे घटनाक्रमों से जुड़ नहीं पाते। मनोरंजन की दृष्टि से भी देखा जाए तो फिल्म में बोरियत भरे क्षण ज्यादा हैं।

कहानी 1990 के आसपास की है जब इम्पोर्टेड वस्तुओं का बड़ा क्रेज था क्योंकि ये आसानी से उपलब्ध नहीं थी। बॉम्बे के चार युवा करण (शाहिद कपूर), बुलबुल (अनुष्का शर्मा), चंदू (वीर दास) और जिंग (मियांग चैंग) मिलकर एक बिजनेस शुरू करते हैं। वे इम्पोर्टेड वस्तुएँ बैंकॉक से लाकर भारत में बेचते हैं।

करण अपना दिमाग इस तरह लड़ाता है कि कम समय में वे अमीर हो जाते हैं। सरकारी नीतियों के कारण उन्हें अपना व्यवसाय बंद करना पड़ता है। करण अपने साथियों के साथ अपने मामा के यहाँ यूएस जा पहुँचता है और वहाँ वे ठगी करने लगते हैं।

आखिरकार एक दिन वे पुलिस की गिरफ्तर में आ ही जाते हैं और उनकी दोस्ती में दरार भी आ जाती है। इधर करण के मामा को व्यवसाय में जबरदस्त नुकसान होता है। करण इस बार सही रास्ते पर चलते हुए अपने तेज दिमाग और साथियों की मदद से उनकी कंपनी को हुए नुकसान को फायदे में बदल देता है और वे सही रास्ते पर चलने में ही अपनी भलाई समझते हैं।

फिल्म शुरुआत में तो ठीक है, जब फिल्म का हीरो करण कानून की खामियों के जरिये खूब पैसा कमाता है। लेकिन उसके अमेरिका पहुँचते ही फिल्म में बोरियत हावी हो जाती है। कई दृश्य बेहद लंबे हैं और उनमें दोहराव भी है। यहाँ से ऐसी घटनाएँ घटती हैं जो विश्वसनीय नहीं है।

करण के लिए सारी चीजें बड़ी आसान हैं। यूएस के लोगों को वह ऐसे बेवकूफ बनाता है, जैसे वे कुछ जानते ही नहीं हो। ऐसा लगता है कि पुलिस नाम की चीज वहाँ पर है ही नहीं। जब लेखक को लगता है कि करण को पुलिस के हवाले किया जाना चाहिए तब वह पुलिस के हत्थे चढ़ता है।

चारों दोस्तों में विवाद को ठीक से जस्टिफाई नहीं किया गया है। बस उन्हें लड़ते हुए दिखाना था, इसलिए वे लड़ पड़ते हैं। क्लाइमैक्स में उन्हें एक होना था, इसलिए वे साथ हो जाते हैं। उनके अलग होने या साथ होने पर किसी किस्म का दु:ख या खुशी नहीं होती। दोस्तों की कहानी में जो मौज-मस्ती होना चाहिए वो फिल्म से नदारद है।

निर्देशक के रूप में परमीत सेठी ने कुछ अच्छे दृश्य फिल्माए हैं, लेकिन अपनी ही लिखी स्क्रिप्ट की खामियों को वे छिपा नहीं पाए। शाहिद और अनुष्का जैसी जोड़ी उनके पास होने के बावजूद उन्होंने रोमांस को पूरी तरह इग्नोर कर दिया। उन्होंने कहानी को इस तरह स्क्रीन पर पेश किया है कि दर्शक इन्वाल्व नहीं हो पाता है।

शाहिद कपूर का अभिनय ठीक है, लेकिन वे इतने बड़े स्टार नहीं बने हैं कि इस तरह की कमर्शियल फिल्मों का भार अकेले खींच सके। अनुष्का शर्मा को भले ही कम अवसर मिले, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब रहीं। वीर दास और मियांग चैंग ने शाहिद का साथ बखूबी निभाया है।

प्रीतम द्वारा संगीतबद्ध ‘चस्का-चस्का’ और ‘जिंगल-जिंगल’ सुने जा सकते हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है और 90 के दशक की याद दिलाता है।

कुल मिलाकर इस ‘बदमाश कंपनी’ के प्रॉफिट एंड लॉस अकाउंट में लॉस ज्यादा है।