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फिल्म देखने के बाद पता चलता है कि इस फिल्म को प्रदर्शित होने में इतनी देर क्यों लगी। निर्देशक मिलिंद उके ने बहुत ही अच्छे विषय को चुना है, लेकिन पटकथा की ओर बिलकुल ध्यान न देने की वजह से फिल्म राह-सी भटक गई है।

राहुल प्रकाश उद्यावर (शाहिद कपूर) सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल से जुड़ते तो एक अंग्रेजी शिक्षक की हैसियत से हैं, लेकिन साथ ही संगीत शिक्षक की भूमिका भी बखूबी निभाते हैं। इसमें उनका साथ देती हैं स्कूल की आहार विशेषज्ञा अंजली (आयशा टाकिया)।

आर्थिक परेशानियों से जूझते इस स्कूल के प्रिंसिपल आदित्य सहाय हर हाल में इसे बचाना चाहते, हैं, इसलिए वे प्रबंधन के आगे झुकते हुए इसका पूरी तरह से व्यावसायीकरण कर देते हैं। अब स्कूल की हर चीज, हर गतिविधि पर प्रबंधन और बाजार का कब्जा हो जाता है। हर चीज महंगी हो जाती है, पढ़ाई से जुड़ी हर वस्तु स्कूल से खरीदनी पड़ती है। संगीत, खेल, किताबें, कैंटीन सब कुछ महंगे हो जाते हैं। शिक्षकों को यह सब नहीं भाता, लेकिन उन्हें भी अपनी नौकरियां प्यारी हैं।

इतना ही नहीं, अपनी छवि सुधारने के लिए प्रबंधन बच्चों का इस्तेमाल विज्ञापनों और फिल्मों में भी करना शुरू कर देता है, जिसका भुगतान भी बच्चों को अपनी पढ़ाई के साथ खिलवाड़ करते हुए करना पड़ता है। इस तरह इसमें दिखाया गया है कि किस तरह बच्चों का टीवी और विज्ञापनों के व्यावसायिक कार्यक्रमों में इस्तेमाल हो रहा है और इसका बच्चों के जीवन पर क्या असर पड़ रहा है।

यह फिल्म में स्कूली छात्रों की जिंदगी को पर्दे पर दिखाती तो है, लेकिन सब कुछ इतनी तेज और कामचलाऊ अंदाज में होता है कि यह किसी टीवी शो की तरह लगती है। इसमें यह तो बताया गया है कि स्कूली बच्चों से जुड़ी समस्याएं क्या-क्या हैं, लेकिन उसका समाधान स्पष्ट नहीं है।

फिल्म के संवाद जमे नहीं हैं, हालांकि अभिनेताओं ने अपनी जिम्मेदारी निभाई है।

‘पाठशाला’ अपने दावे के अनुसार फिल्म के ‘हीरो’ को एक क्रांतिकारी के रूप में साकार नहीं कर पाती है, हालांकि शाहिद कपूर ने जो कुछ भी किया है उसमें अपना सब कुछ देने का प्रयास किया है। फिल्म में उनका आकर्षण बरकरार है।

नाना पाटेकर बेशक बेहतरीन हैं, लेकिन उन्हें उपयुक्त भूमिका न देकर उनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल नहीं किया गया है। नाना के व्याकरण में कहीं-कहीं गड़बड़ नजर आ जाती होगी, लेकिन अपनी आंखों और शारीरिक हाव-भाव से वे खुद को बखूबी अभिव्यक्त करते हैं।

आयशा टाकिया बहुत ही खूबसूरत और बच्चों का खयाल रखनेवाली टीचर के रूप में अच्छी लगी हैं। बस, इससे ज्यादा और कुछ नहीं। सौरभ शुक्ला स्कूल मैनेजर के रूप में जरूरत से ज्यादा उभर कर सामने आते हैं, जिससे खीज ही पैदा होती है। अंजन श्रीवास्तव चपरासी की भूमिका में जमे हैं और सुशांत सिंह तथा सुष्मिता मुखर्जी ने अपनी भूमिकाएं ठीक ढंग से निभाई हैं।

शिक्षा के मसले पर ‘3इडियट्स’, ‘तारे जमीं पर’ और मराठी फिल्म ‘शिक्षणाच्या आईचा घो’ जैसी सार्थक फिल्मों की कड़ी में ‘पाठशाला’ कहीं नहीं ठहरती।