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महाराष्ट्र अपने समृद्ध इतिहास और संस्कृति के कारण भारत के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में से एक है और इसलिए भी क्योंकि इस राज्य में की आर्थिक राजधानी मुंबई शामिल है । स्वतंत्रता के बाद, कुछ प्रमुख नेताओं ने भारतीय राजनीति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी और उनमें से सबसे प्रमुख बालासाहेब ठाकरे थे । बालासाहेब ठाकरे एक ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपने लाखों अनुयायियों को एकत्र कर एक सशक्त राजनीतिक दल बनाया, शिवसेना । और बायोपिक फ़िल्मों के ट्रेंड में इस हफ़्ते सिनेमाघरों में बालासाहेब ठाकरे के जीवन पर बेस्ड फ़िल्म आई है, ठाकरे ।तो क्या ठाकरे झकझोर देने वाली एक मनोरंजक बायोपिक फ़िल्म बनकर उभरेगी या यह अपनी छाप छोड़ने में नाकाम होती है, आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : ठाकरे

ठाकरे, शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे की कहानी को दर्शाती है । बाल केशव ठाकरे (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) समाज सुधारक प्रबोधंकर ठाकरे के सबसे बड़े बेटे हैं और उनकी शादी मीनाताई (अमृता राव) से हुई है । कहानी 50 के दशक के अंत में शुरू होती है जब बाल मुंबई में एक कार्टूनिस्ट के रूप में फ्री प्रेस जर्नल में काम कर रहे होते हैं । वह जब ठगा सा महसूस करते हैं जब कुछ राजनीतिक हस्तियों पर हमला करने पर वरिष्ठों द्वारा उन पर लगाई गई पाबंदी लगाई जाती है । इस कारण बाल इस्तीफ़ा दे देते हैं और खुद की राजनीतिक साप्ताहिक मार्मिक शुरू करते है । बाल को महसूस होता है कि दक्षिण भारतीय, मुंबई में व्यवसायों और कार्यालयों पर हावी होते जा रहे हैं और महाराष्ट्रीयनों को नीचा दिखा रहे है । और इसलिए वह अपने कार्टून और बाद में अपने भाषणों के माध्यम से, वह मराठियों को सूचित करना शुरू करते हैं कि वे उनके अधिकारों के लिए खड़ें हैं और उनके अधिकारों पर किसी आउटसाइडर्स को हक नहीं जमाने देंगे । उनके भाषण से महाराष्ट्रीयनों में एक उम्मीद जागी और वे इस लड़ाई में बाल के साथ जुड़ गए । जैसे-जैसे उनका कद और लोकप्रियता बढ़ने लगी वैसे-वैसे उन्हें बालासाहेब के रूप में संबोधित किया जाने लगा । इसके बाद उन्होंने 1966 में शिवसेना नाम से अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी बनाई । पार्टी ने बहुत उतार-चढ़ाव झेले लेकिन धीरे-धीरे अपनी पहचान बनाई । हालांकि 80 के दशक में, बालासाहेब अपना एजेंडा बदल लेते हैं और हिंदुत्व समर्थक बन जाते हैं । शिवसैनिकों का 1992 में हुए बाबरी मस्जिद के विध्वंस में नाम आ जाता है । इसके बाद देश में हड़कंप मच जाता है । बालासाहेब इस संकट से कैसे निडर होकर आगे बढ़ते हैं और अन्य चुनौतियों पर भी काबू पाते हैं, यह बाकी की फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।

संजय राउत की कहानी दिलचस्प है और इतनी मजबूत राजनीतिक शख्सियत पर फ़िल्म बनाने का विचार अपने आप में ही काफ़ी शानदार है । उन्होंने बालासाहेब के जीवन के सबसे उल्लेखनीय और यहां तक कि कम ज्ञात प्रकरणों पर ध्यान केंद्रित किया है (इस संबंध में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के साथ उनकी बैठक)। इसके अलावा, इन पहलुओं में से अधिकांश विवादास्पद हैं और ये कारक निश्चित रूप से दर्शकों को आकर्षित करेगा । अभिजीत पानसे की पटकथा आकर्षक और बड़े पैमाने पर बांधे रखने वाली है । फिल्म को इस तरह से लिखा गया है कि यह अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सके । अरविंद जगताप और मनोज यादव के संवाद ज्वलनशील और शार्प हैं । बालासाहेब ने कभी भी अपने बयान और भाषण में शब्दों को तोड़-मरोड़कर पेश नहीं किया और इस संबंध में संवाद लेखक पूरा न्याय करते है ।

अभिजीत पानसे का निर्देशन बहुत अच्छा है और उनकी कहानी शुरू से अंत तक दर्शकों को उनकी सीट से बांधे रखती है । कुछ दृश्य तो असाधारण हैं जिनका ताली और सीटियों के साथ स्वागत किया जाएगा । इसके अलावा, एक दुर्लभ उदाहरण में, फिल्म का फ़र्स्ट हाफ़ लगभग पूरी तरह से ब्लैक-एंड-व्हाइट में है । यह फिल्म को एक अच्छा फ़ील देता है और फ़िल्म का ब्लैक-एंड-व्हाइट से सीधे कलर में परिवर्तित हो जाना, काफी रचनात्मक है । फिल्म 2.19 घंटे लंबी है, लेकिन ये लंबी लगती नहीं है क्योंकि कहानी में बहुत कुछ हो रहा होता है । हालांकि कुछ लोगों को लगता है कि बालासाहेब की जिंदगी में आए कुछ महत्वपूर्ण लोगों को स्क्रीन पर और थोड़ा टाइम देना चाहिए था । इससे दर्शकों को उनके और नेता के साथ उनके समीकरण के बारे में अधिक जानने में मदद मिलती । पानसे का एकदम से कहानी में कूदने को नजर अंदाज किया जा सकता था । उदाहरण के लिए, मोरारजी देसाई घटना के बाद बालासाहेब को जेल हो जाना लेकिन उनके रिहा होने के बाद ये समझाया नहीं गया कि ऐसा क्यों हुआ । फिल्म का क्लाइमे्क्स आपको फिल्म के मूड और विषय को देखते हुए और अधिक की चाह में छोड़ देता है, लेकिन ऐसा लगता है कि निर्माता पहले से ही ठाकरे के जीवन के उत्तरार्ध की अगली कड़ी की योजना बना रहे हैं ।

ठाकरे की शुरूआत काफ़ी शानदार होती है । लखनऊ कोर्ट में बालासाहेब की एंट्री ताली बजाने योग्य है और ये दर्शकों द्दारा पसंद की जाएगी । फ़िल्म के शुरूआती हिस्से काफ़ी बांधे रखने वाले हैं और जिस तरह से निर्माताओं ने एनीमेशन के माध्यम से मराठी बोलने वाले लोगों की उदास स्थिति को दर्शाया है वह बहुत ही अद्भुत है । यह एक अमिट प्रभाव छोड़ती है । यह भी प्रभावशाली है कि कैसे बालासाहेब ने अपनी अनूठी शैली में फ्री प्रेस जर्नल से इस्तीफा दिया । फ़र्स्ट हाफ़ में ऐसे कई सीन है जो शानदार हैं जैसे- बालासाहेब का एक असहाय जमींदार (बचन पचेहरा) का उसकी जमीन वापस पाने के लिए मदद करना, मोरारजी देसाई (राजेश खेरा) की ज़मीन और कृष्णा देसाई (संजय नरवेकर) का ट्रैक । इंटरवल के बाद, मनोरंजन जारी रहता है । कुछ सीन तो हद से ज्यादा बेहतरीन है जैसे बालासाहेब का फिल्म तेरे मेरे सपने को दादा कोंडके की मराठी फ़िल्म सोंगद्या से रिप्लेस करने पर जोर देना, बालासाहेब का तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के साथ मुलाकात, बालासाहेब का एक बूढ़े आदमी से उसके घर में नमाज अदा करने के लिए जिद करना और बालासाहेब का दिलीप वेंगसरकर और जावेद मियांदाद से मुलाकात करना । कोर्ट रूम सीक्वेंस के साथ फिल्म इधर-उधर भी होती है और ये काफी प्रभावशाली भी हैं । फ़िल्म का समापन फ़िनाले में सीक्वल की घोषणा और एक असरदार आत्मभाषण के साथ होता है, जो फ़िल्म के प्रभाव को और ज्यादा बढ़ा देता है ।

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी हर फ़्रेम में छा जाते है और शानदार परफ़ोरमेंस देते हैं । वह किरदार में पूरी तरह समा जाते हैं और न केवल बालासाहेब के तौर-तरीकों और बॉडी लैंग्वेज की नकल करते हैं बल्कि उन्हें अपने अंदर समा लेने की पूरी कोशिश करते है । इस प्रतिभाशाली कलाकार ने अपने जीवन में कई बेहतरीन प्रदर्शन दिए हैं और यह निश्चित रूप से उनके सबसे कुशल अभिनय में से एक के रूप में होगा । अमृता राव अपनी सहायक भूमिका में प्यारी लगती हैं । राजेश खेरा काफी अच्छे हैं और एक विशाल छाप छोड़ते हैं । संजय नार्वेकर ठीक हैं । प्रकाश बेलावादी (जॉर्ज फर्नांडीस) लोन सीन में अच्छे लगते हैं । वहीं निखिल महाजन (शरद पवार) भी अपने रोल में जंचते हैं । अन्य कलाकार जो उम्दा अभिनय देते हैं, वे हैं- इंदिरा गांधी, प्रबोधंकर ठाकरे, इमैनुएल मोदक, अदालत में अभियोजक, दिलीप वेंगसरकर और जावेद मियांदाद।

रोहन-रोहन के संगीत के लिए कोई गुंजाइश नहीं है । 'साहेब तू सरकार तू' फिल्म का एकमात्र गीत है और इसे अंतिम क्रेडिट में बजाया गया है । अमर मोहिले का बैकग्राउंड स्कोर काफी जानदार है और उत्साह में इजाफा करता है । सुदीप चटर्जी की सिनेमैटोग्राफी टॉपनोट पर है । पी के स्वैन के एक्शन यथार्थवादी है । संदीप शरद रावडे का प्रोडक्शन डिजाइन प्रामाणिक है और यह सुनिश्चित करता है कि बीते युग को वास्तविक रूप से दर्शाया गया है । संतोष गावड़े की वेशभूषा भी सराहना के काबिल है । किरण कांबले का मेक-अप व हेयर स्टाइल और प्रितीशेल सिंह का प्रोस्थेटिक्स सराहनीय है । आशीष म्हारे और अपूर्वा मोतीवाले सहाय का संपादन ठीक है और यह देखना शानदार है कि उनके जीवन के विभिन्न एपिसोड बड़े करीने से गूंथे गए । लेकिन कुछ दृश्यों में, यह और बेहतर हो सकता था, खासकर सेकेंड हाफ़ में ।

कुल मिलाकर, ठाकरे, महाराष्ट्र और भारत के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्तियों में से एक, बालासाहेब ठाकरे पर अच्छे से बनाई गई और दर्शाई गई बायोपिक फ़िल्म है । महाराष्ट्र में लक्षित दर्शक और केंद्र निश्चित रूप से इस फिल्म को बांहे फ़ैलाकर स्वीकार करेंगे । हालांकि, यह फिल्म पैन इंडिया दर्शकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है इसलिए ये बात निश्चित रूप से इसके पक्ष में जा सकती है ।