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आज के समय में किसी फ़िल्म का सही समय पर रिलीज होना ही उसके लिए बहुत बड़ी बात होती है । लेकिन बॉलीवुड में ऐसी कई फ़िल्में हैं जिन्हें किन्हीं कारणोंवश सही रिलीज डेट नहीं मिली जिसके चलते उनकी फ़िल्मों का प्रभाव कम हो गया । बॉलीवुड की वो फ़िल्में जिन्हें रिलीज होने में पांच से दस साल का समय लगा वो हैं : दीवाना मैं दीवाना [2003], ये लम्हे जुदाई के [2004], मेहबूब [2008], सनम तेरी कसम [2009], मिलेंगे मिलेंगे [2010] इत्यादि । और अब इस सूची में फ़रहान अख्तर और अन्नू कपूर अभिनीत फ़िल्म द फकीर ऑफ़ वेनिस भी जुड़ गई है । दरअसल ये फ़िल्म फ़रहान ने अपनी डेब्यू फ़िल्म रॉक ऑन से भी पहले शूट की थी । लेकिन किन्हीं कारणोंवश ये फ़िल्म रिलीज नहीं हो पाई । तो क्या अब इतने समय बाद द फकीर ऑफ़ वेनिस दर्शकों के दिल में जगह बना पाएगी या यह अपने प्रयास में नाकाम साबित होगी, आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : द फकीर ऑफ़ वेनिस

द फकीर ऑफ़ वेनिस, एक भारतीय फिक्सर की कहानी है, जिसे जिन्दगी बदलने वाला तज़ुर्बा होता है । आदि कॉंट्रेक्टर (फरहान अख्तर) प्रोडक्शन कंट्रोलर के रूप में फिल्मों में काम करते हैं । उनका काम यह सुनिश्चित करना है कि प्रोड्यूसर्स की विचित्र मांगों को पूरा किया जाए । वह एक बार हिमालय में भारतीय सीमा पर सीमा के पास एक जरूरी फिल्म की शूटिंग के अनुसार चीन से एक बंदर प्राप्त करने का प्रबंधन करता है ! वह मुंबई बेस्ड हैं जहां उनकी एक्स गर्लफ़्रेंड मंदिरा (कमल सिद्धू) और उसकी सहयोगी अवंतिका (सुषमा प्रकाश) ने उसे वेनिस में एक प्रतिष्ठित आर्ट गैलरी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कहा । उन्हें वेनिस के म्यूजियम में एक ऐसे फकीर या साधु को लाने का असाइनमेंट मिलता है जो अपने सिर को रेत के अंदर गाड़कर और पैरों को बाहर रखकर साधना में लीन हो सके । कुंभ से लेकर काशी तक खोजबीन करने के बाद बह वापस मुंबई लौट आता है । मुंबई लौटने के बाद वह अमीन उर्फ़ गोल्डटूथ [जोगिंदर सिंह], जो एक 'जुगाड़ू' आदमी है, से मिलने का फ़ैसला करता है । अमिन आदि को सत्तार शेख (अन्नू कपूर), जो गरीब है बिलिडिंग पेंट कर अपना गुजर बसर करता है, से मिलवाता है । आदि को लगता है कि सत्तार इस नौकरी के लिए उपयुक्त है। सत्तार इस बात से भी सहमत हो जाता हैं और उसे पता लग जाता है कि ऐसा करके उसे अच्छा खासा पैसा मिलेगा जिससे वह अपनी विवाहित बहन हमीदा (झिलमिल हजरिका) को पैसे दे सकेगा । सत्तार को साधु या फ़कीर बनाने में आदि मंदिरा की मदद लेता है जो उसे फ़कीर के कपड़े देती है । सत्तार को लेकर आदि वेनिस पहुंचता है और फ़िल्म सही मायने में शुरू होती है । वे्निस में एक ऐसे फ़कीर को, जो रेत के अंदर खुद को दफन कर लेता है और सिर्फ़ बाहर उसके हाथ ही दिखते है, को देखकर हतप्रभ रह जाते है । वहीं आदि फ़कीर के बारें में यह बातें फ़ैला देता है कि फ़कीर के पास कोई करिश्माई शक्ति है जिससे वह ऐसा कर पाता है । इसके बाद क्या होता है, यक बाकी फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

राजेश देवराज की कहानी कथित तौर पर फिल्म निर्माता होमी अदजानिया, जिन्हें बीईंग साइरस [2006], कॉकटेल [2012] और फ़ाइंडिंग फैनी [2014] के निर्देशन के लिए जाना जाता है, के जीवन पर आधारित है । कथानक दिलचस्प है और अगर यह सही हाथों में होता, तो यह एक अच्छी फ़िल्म के रूप में सामने आ सकता था । राजेश देवराज की पटकथा थोड़ी गड़बड़ लगती और आवश्यक प्रभाव डालने में विफल होती है । यह विशेष रूप से सेकेंड हाफ़ में बिखरने लगती है जब सत्तार का इश्यू सामने आता है । राजेश देवराज के डायलॉग्स सरल हैं लेकिन थोड़े से उपदेशात्मक है । इसके अलावा, आदि फिल्म को अंग्रेजी में सुना रहा है और इस तरह की रणनीति से बॉक्स ऑफिस की संभावनाओं को कम किया जा सकता है । कई डायलॉग्स गालियों से भरे हुए थे जिन्हें सीबीएफ़सी द्दारा म्यूट करवा दिया गया । इसलिए, किरदारों द्वारा प्रस्तुत कुछ वाक्यों को समझना मुश्किल है ।

आनंद सुरापुर का निर्देशन इतना अच्छा नहीं है क्योंकि वह ऐसे सबजेक्ट और किरदारों के साथ बहुत कुछ कर सकते थे । फ़िल्म का देरी से आना इसके लिए घाटे का सौदा होता है ।

द फकीर ऑफ़ वेनिस की शुरूआत काफ़ी मजेदार होती है, लेकिन थ्रिलिंग बैकग्राउंड स्कोर काम नहीं करता है । यह जल्द ही स्पष्ट हो जाता है कि इस फिल्म में, फिल्म फेस्टिवल-फील है और इसे उसी संबंध में देखा जाना चाहिए । यह फिल्म महज 98 मिनट लंबी है और फ़र्स्ट हाफ़ बेहद दिलकश और हल्का है । जबकि सेकेंड हाफ़ काफ़ी भारी और अजीब है । सत्तार का चिल्लाकर उठना बार-बार सा लगता है । उनकी पूरी दुविधा को बेहतर तरीके से समझाया जा सकता था । वह दृश्य जहां सत्तार होटल से भाग जाता है, काफी ओवर लगता है, लेकिन वहीं रूचि को बढ़ाता है । इसके अलावा, वह उसी जगह में प्रवेश करता है जहां आदि पार्टी कर रहा है । फ़िल्म के कुछ सीन को पचा पाना बहुत ही मुश्किल है । तकनीकी रूप से भी, यह फ़िल्म काफ़ी पुरानी लगती है । हालांकि फ़िल्म का समापन अच्छे नोट पर होता है । लेकिन वांछित प्रभाव बनाने के लिए इसे बहुत देर हो चुकी है ।

फ़रहान अख्तर उम्मीद के मुताबिक काफ़ी यंग लगते हैं और अपनी दो शुरूआती फ़िल्में – रॉक ऑन [2008] और लक बाई चांस [2009] की याद दिलाते है । वैसे ये लुक उन पर बहुत जंचता है । अभिनय की बात करें तो, वह बिना किसी कमी के बेहतरीन प्रदर्शन देते है । वह इस फ़िल्म में एक सेलफ़िश व्यक्ति का किरदार बखूबी निभाते है । वैसे किसी को भी उनकी परफ़ोरमेंस देख यह महसूस हो सकता है कि वह सत्तार को अपनी परफ़ोरमेंस दे दबा रहे है । लेकिन अन्नू कपूर फ़िल्म की जान हैं और इस फ़िल्म को एक बड़ी फ़्लॉप होने से कहीं हद तक बचाते है । कमल सिद्धू बर्बाद हो जाते है । वेलेंटीना कारेलुट्टी (जिया) फ़िल्म के स्केकेंड हाफ़ में अहम किरदार निभाते हैं । झिलमिल हजरिका बहुत प्रामाणिक लगती है । सुषमा प्रकाश, जोगिंदर सिंह और मैथ्यू कैरिअर (मास्सिमो) पास करने योग्य हैं ।

एक आर रहमान का संगीत कोई प्रभाव नहीं डालता है । 'वाको नाम फकीर' गाना पृष्ठभूमि में प्ले किया जाता है और जो यादगार नहीं होता है । बैकग्राउंड स्कोर कई जगहों पर अजीब है और कुछ दृश्यों में तो यह लाउड लगता है । दीप्ति गुप्ता, प्रीता जयरामन और बकुल शर्मा की सिनेमैटोग्राफी ठीक है । एक महत्वपूर्ण दृश्य में रंग सुधार भी सही ढंग से नहीं किया गया है । सुज़ाना कोडनगेटो का उत्पादन डिजाइन सभ्य है । आनंद सुरापुर का संपादन सिर्फ़ ठीक है और थोड़ी बेतरतीब भी है ।

कुल मिलाकर, द फकीर ऑफ़ वेनिस दिलचस्प कहानी और अन्नू कपूर के शानदार अभिनय से सजी फ़िल्म है । लेकिन त्रुटिपूर्ण निष्पादन, त्यौहार-शैली नेरेटिव और खासकर देरी से रिलीज होना, फ़िल्म के लिए भारी पड़ेगा ।