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काफ़ी दशकों से फ़िल्ममेकर्स उत्तरप्रदेश की पृष्ठभूमि पर बेस्ड फ़िल्मों का निर्माण कर रहे है । ये फ़िल्म को एक प्रमाणिकता तो देती ही है, साथ ही इनसे ज्यादा से ज्यादा लोग आकर्षित भी होते है । बहुत अधिक संख्या में लोग ऐसी फ़िल्मों को पसंद करते हैं, बशर्ते उन्हें एक सरल और मनोरंजक तरीके से पेश किया जाए । शहरी या विदेशी क्षेत्रों में स्थापित फ़िल्मों की तुलना में ऐसी कहानियों से दर्शक ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस करते हैं । इस हफ़्ते रिलीज हुई सुई धागा- मेड इन इंडिया न केवल गांव पर बेस्ड फ़िल्म है बल्कि, कलाकारों या कारीगरों के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए सामाजिक उद्यमिता के बारे में कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां भी करती है । तो क्या, सुई धागा- मेड इन इंडिया एक मनोरंजक और प्रबुद्ध कहानी के साथ दर्शकों का मनोरंजन कर पाती है ? या यह अपने ईमानदार प्रयास में विफ़ल हो जाती है ? आइए समीक्षा करते हैं ।

फ़िल्म समीक्षा : सुई धागा - मेड इन इंडिया

सुई धागा- मेड इन इंडिया आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की एक दिल को छू लेने वाली कहानी है । फ़िल्म की कहानी में मौजी (वरुण धवन) अपनी पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा), पिता (रघुबीर यादव) और मां (यामिनी दास) के साथ एक छोटे से गांव में रहता है । मौजी एक सिलाई मशीन की दुकान में काम करता है जिसका मालिक बंसल (सिद्धार्थ भारद्वाज) और उसका बेटा प्रशांत (आशीष वर्मा) होता है । ये दोनों मिलकर मौजी के साथ दुर्व्यवहार करते हैं और उससे अजीबो-गरीब हरकते करने के लिए कहते है । जब प्रशांत की शादी होती है, तब बंसल , मौजी और उसकी पूरी फ़ैमिली को आमंत्रित करता है । शादी में बंसल मौजी को कुत्ता बनकर एक्ट करने के लिए मजबूर करता है और ये देखकर उसकी पत्नी ममता बहुत शर्मिंदा होती है । इसके बाद ममता उसे खुद का कारोबार खड़ा करने के लिए प्रोत्साहित करती है, खासकर उस फ़ील्ड यानी सिलाई में जिसमें वह एक्सपर्ट है । हालांकि मौजी के दादा एक ट्रेलर ही होते हैं लेकिन उन्हें उनके काम में बहुत नुकसान होता है इसलिए उन्होंने अपने इस काम को बंद कर दि्या था । मौजी पहले तो ममता की सलाह को मानसे इंकार कर देता है लेकिन फ़िर वह अपना जॉब छोड़ देता है और दिल्ली की गलियों में एक स्टॉल लगा लेता है । वहीं दूसरी तरफ़, मौजी की मां घर में गिर जाती है और उन्हें अस्पताल में भर्ती किया जाता है । जांच में पता चलता है कि उनके दिल में कई सारे ब्लॉकेज है । परिवार पहले ही कई सारी परे्शानियों से जूझ रहा होता है और मौजी की मां का अस्पताल में भर्ती होना, उनकी परेशानी और बढ़ा देता है । इसके अलावा, मौजी भी अपना जॉब छोड़ देता है । इसके बाद क्या होता है, यह पूरी फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

शरत कटारिया की कहानी काफ़ी साधारण और समय की मांग के अनुसार है । यह ऋषिकेश मुखर्जी की एक फिल्म की याद दिलाती है और इस तरह के प्यारे सिनेमा को एक अच्छा फ़ील देती है । शरत कटारिया की पटकथा काफ़ी ज्यादा प्रभावशाली है । वह किरदारों के साथ भरपूर न्याय करते हैं और दर्शकों को बांधे रखते है । हालांकि सुई धागा, उनकी पिछली फ़िल्म दम लगा के हईशा [2015] जिसमें कई सारे फ़नी मोमेंट्स थे, के विपरीत काफ़ी नाटकीय है । इसमें ह्यूमर के लिए जगह नहीं है और दर्शकों के कुछ वर्ग को इसकी कमी खलेगी । शरत कटारिया के डायलॉग्स काफ़ी मजाकिया हैं और हंसी लाने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं ।

शरत कटारिया का निर्देशन काफ़ी शानदार है और वह अच्छे से लिखी गई स्क्रिप्ट में चार चांद लगाते है । वह फिल्म को थोड़ी कसी हुई,सख्त और अनुमानित बना सकते थे लेकिन ये सब मामूली सी खामियां है ।

सुई धागा - मेड इन इंडिया का पहला सीन वाकई बहुत प्रभाशाली है और एक टेक में कई सारी सादगी समाए हुए है । फ़िल्म के किरदारों को सेट करने के बाद ये फ़िल्म आगे बढ़ने में जरा भी समय नहीं गंवाती है । हॉस्पिटल सीन काफ़ी प्यारा है लेकिन फ़र्स्ट हाफ़ में, जो सबसे छा जाने वाला सीन है, वह इंटरवल से पहले वाला सीन है । यहां यह ध्यान देने योग्य है कि मेकर्स ने तनाव के मौहोल को कितना बढ़ा दिया है । सेकेंड हाफ़ में,फ़िल्म थोड़ी बिखरने लगती है । और जिस तरह से ममता और मौजी को फ़ैशन टूर्नामेंट के लिए शॉर्टलिस्ट किया जाता है, थोड़ा समझ के परे लगता है । लेकिन फ़ाइनल सीन इसकी भरपाई कर देता है (हालांकि ये साल 2008 में आई फ़िल्म मनी है तो हनी है का देजावू एक्सपीरियंस देती है) लेकिन इसी के साथ निश्चितरूप से यह फ़िल्म दर्शकों के चहरे पर मुस्कान लाने में कामयाब होती है ।

सुई धागा - मेड इन इंडिया पूरी तरह से वरुण धवन और अनुष्का शर्मा की फ़िल्म है । दोनों ही कलाकार बेहद दमदार परफ़ोरमेंस देते है । वरुण धवन हर इंच से एक गांव की सादगी लिए हुए दिखाई देते हैं और इसलिए उन्हें काफ़ी पसंद किया जाएगा । वह अपना किरदार काफ़ी ईमानदारी से निभाते हैं, जो पर्दे पर दिखाई देता है । वो सीन देखने लायक है जब बंसल उन्हें कुत्ते की तरह एक्ट करने के लिए मजबूर करता है, इसमें वह जिस खूबसूरती से अपनी शर्मिंदगी को छुपाते हैं, वह वाकई काबिलेतारीफ़ है । इसके अलावा क्लाइमेक्स सीन, खासकर होटल लॉबी वाला सीन, जिसमें वह छा जाते हैं । ओपनिंग क्रेडिट में वरुण से पहले अनुष्का शर्मा का उल्लेख किया गया है और जो बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है । ममता के किरदार में अनुष्का इतनी खो जाती हैं कि कोई भी ये भूला देता है कि वह अनुष्का शर्मा है और इस तरह वह अपना 100 प्रतिशत देती है । एक सीन में जब वह अपनी सासू मां से पूछती हैं कि क्या वह ठीक हैं या उन्हें अस्पताल पसंद आया, इसमें वह काफ़ी नेचुरल लगती है । रघुबीर यादव बहुत ही आकर्षक प्रदर्शन देते है । खासकर क्लाइमेक्स की ओर, जब वह दर्शकों की आंखों में आंसू ले आते है । यामिनी दास विशेष रूप से अस्पताल के दृश्यों में, छा जाती हैं । पूजा सरप (हरलीन बेदी) एक अमिट छाप छोड़ती है । नमित दास (गुड्डू) भी अपनी एक अमिट छाप छोड़ने में कामयाब होते हैं । भूपेश सिंह (नौशाद) बहुत ही अच्छे लगते हैं । मजनू, मजनू की पत्नी, पल्टरम और अन्य कलाकारों ने अपने-अपने किरदारों को बखूबी निभाया है ।

अनु मलिक का संगीत फ़िल्म के साथ अच्छी तरह मेल खाता है, हालांकि इसमें चार्टबस्टर होने की वैरायटी नहीं है । फ़िल्म का टाइटल ट्रेक काफ़ी महत्वपूर्ण मोड़ पर आता है और एक जबरद्स्त प्रभाव छोड़ता है । 'छाव लगा' काफ़ी सुरीला गाना है । 'खटर पटर' और 'तू ही अहम' परिस्थिति गीत है और काम कर जाते है । 'सब बढ़िया है' फ़िल्म में से गायब है । एंड्रिया गुएरा का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के साथ सिंक होता है और जंचता है ।

अनिल मेहता का छायांकन बहुत अच्छा है और गांव की सादगी दिखाने में या शहरी जीवन की चकाचौंध को दर्शाने में कहीं भी मात नहीं खाते है । लेंसमैन ने सिर्फ़ उन्हीं सीन को कैप्चर किया है जिनकी जरूरत थी । मीनाल अग्रवाल का प्रोडक्शन डिजाइन यथार्थवादी है । दर्शन जालान और नीलांचल कुमार घोष के ड्रेस डिजाइनर तारीफ़ के हकदार हैं, जो फ़िल्म का सबसे आकर्षण का केंद्र है । चारू श्री रॉय का संपादन सरल और साफ है ।

कुल मिलाकर, सुई धागा - मेड इन इंडिया खूबसूरती से दर्शाई गई एक भावनात्मक साधारण कहानी है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म दर्शकों को आकर्षित करने के लिए लोगों द्दारा की गई तारीफ़ के काबिल बनेगी । इस फ़िल्म को एक विस्तारित पांच दिन का वीकेंड (2 अक्टूबर, गांधी जयंती का राष्ट्रीय अवकाश) मिलेगा जो इसके पक्ष में साबित होगा । इसलिए, फिल्म को निश्चित रूप से टिकट विंडो पर दर्शकों की लंबी लाइन मिलेगी और इस तरह से ये निर्माताओं के लिए फ़ायदे का सौदा होगी । इस फ़िल्म को जरूर देखिए ।