हमारा इतिहास वीरता की ऐसी अनगिनत गाथाओं से भरा हुआ है जो किसी को भी हिला कर रख सकती हैं । चौंकाने वाली बात तो ये है कि इनमें से कई वीरगाथाएं तो ऐसी ही जिनका हमें ठीक से पता भी नहीं हैं। सारागढी की लड़ाई भी उन्हीं में से एक ऐसी ही वीरता की कहानी है । 10 हजार अफ़गानी सैनिकों से महज 21 सिख सैनिकों ने अकेले ही मुकाबला किया, यह अपने आप में एक वीरता की निशानी है । कई फ़िल्ममेकर्स ने इस विषय पर फ़िल्म बनाने में दिलचस्पी दिखाई थी लेकिन किन्हीं कारणोंवश ऐसा हो न सका लेकिन अक्षय कुमार, धर्मा प्रोडक्शंस और अनुराग सिंह ने मिलकर इस विषय पर फ़िल्म बनाई केसरी, जो इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई है । तो क्या केसरी दर्शकों में देशक्ति की भावना जगाते हुए मनोरंजन करने में कामयाब होगी, या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाएगी ? आइए समीक्षा करते है ।
केसरी वीरता और अदम्य शौर्य की कहानी है । वो साल है 1897 । हवलदार ईशर सिंह (अक्षय कुमार) सिख रेजिमेंट का एक फ़ौजी, वर्तमान में खैबर पख्तूनख्वा में तैनात हैं । और उसी जगह अफ़गान की सीमा भी साफ़-साफ़ दिखाई देती हैं । वहीं अक्षय अपनी सिख रेजिमेंट के साथ देखता है कि कुछ अफ़गानी अपने कबीले की एक महिला को इसलिए मार रहे हैं क्योंकि उसने अपने पति के साथ गद्दारी की, ये देखकर ईशन सिंह का खून खौल उठता है और वह ब्रिटिश अधिकारी के हुक्म के खिलाफ़ जाकर उस अफ़गानी महिला को बचा लाता है । ब्रिटिश अधिकारी का हुक्म न मानने के कारण ईशन सिंह को सजा के तौर पर सारागढ़ी फ़ोर्ट, जहां कुछ भी खास नहीं होता है, में स्थानांतरित कर दिया जाता है । लेकिन वहां आकर ईशन सिंह देखता है कि वहां तैनात अन्य 20 सिख जवान मौज की जिंदगी गुजरात हैं क्योंकि उन्हें वहां कभी युद्ध जैसी स्थिती का सामना नहीं करना पड़ा । ईशर उन्हें दंडित करने का प्रयास करता है, लेकिन यह महसूस करता है कि वे सख्त हैं और एक-दूसरे के प्रति भाईचारा रखते हैं । इस बीच, विभिन्न अफगान जनजाति के प्रमुख एकजुट होते हैं और सारागढ़ी, गुलिस्तान और लॉकहार्ट किले पर हमला करने का फैसला करते हैं । अफगान लोगों को लगता है कि सारागढ़ी में मुट्ठी भर सिख सैनिक हैं और वे उन्हें आसानी से हराकर किले पर अपना कब्जा कर लेंगे । इसलिए, वे सारागढ़ी पर हमला करने निकल पड़ते हैं । ईशर सिंह और किले के अन्य लोग हैरान हो जाते हैं क्योंकि लगभग 10,000 अफ़गानी आदिवासी किले के गेट के बाहर खड़े होते हैं और उनके किले पर हमला करने के लिए तैयार हैं । अंग्रेज अधिकारी सारागढ़ी की मदद के लिए आने में नाकाम हैं इसलिए वह ईशन सिंह को किले में अंदर रहने का ही हुक्म देते हैं । लेकिन ईशर सिंह अपने 20 सिख जवानों से उन अफ़गानियों से लड़ने का जज्बा पैदा करता है और इसके बाद आगे क्या होता है, इसके लिए आपको फ़िल्म पूरी देखनी होगी ।
गिरीश कोहली और अनुराग सिंह की कहानी दिलचस्प और प्रेरणादायक है । हालाँकि इस लड़ाई पर एक टेलीविज़न सीरीज़ बन चुकी है, फिर भी उसे इतना याद नहीं रखा गया । इसलिए, केसरी भारतीय इतिहास की इस ऐतिहासिक घटना को दर्शकों के दिलो—दिमाग में छा जाने में कामयाब होती है । गिरीश कोहली और अनुराग सिंह की पटकथा ज्यादातर हिस्सों के लिए प्रभावी है । फ़र्स्ट हाफ़ में कुछ हल्के-फ़ुल्के सीन के साथ-साथ तनावपूर्ण क्षण भी हैं । लेकिन यह कुछ स्थानों पर कमजोर भी है जिन्हें और बेहतर लिखा जा सकता था । लेकिन सेकेंड हाफ़ में वो सब कुछ है जहां लेखक शानदार काम करते हैं । उन्होंने बहुत सरलता से दृश्यों को लिखा है और इसलिए, दर्शक यह समझने में सक्षम होंगे कि क्या चल रहा है । साथ ही, दर्शकों को अपनी सीटों से चिपके रखने के लिए युद्ध के दृश्यों में नाटक का बहुत अच्छा उपयोग किया जाता है । गिरीश कोहली और अनुराग सिंह के संवाद तीखे हैं और कुछ जगहों पर मज़ेदार भी हैं । इसके अलावा, वे आज के समय में प्रासंगिक हैं और ताली बजाने योग्य हैं ।
अनुराग सिंह का निर्देशन साफ-सुथरा है । सीक्वेंस बहुत अच्छे से अपनी गति में होते हैं, हालांकि फ़र्स्ट हाफ में यह और बेहतर हो सकते थे । निर्देशक दर्शकों के बीच अफगानों के प्रति गुस्से को उकसाने में सफ़ल होते हैं । साथ ही, 21 सिख सैनिक वास्तव में अंग्रेजों की ओर से लड़ रहे हैं और इस एंग़ल का एक गलत प्रभाव पड़ सकता था । लेकिन निर्देशक इस पहलू का अच्छी तरह से ख्याल रखते है । वहीं दूसरी ओर, कुछ निश्चित जगहों पर निष्पादन थोड़ा बेहतर हो सकता था ।
केसरी का फ़र्स्ट हाफ़ काफ़ी अच्छा है और इसका इस्तेमाल किरदारों को बिल्ड-अप कराने में किया जाता है । फ़िल्म में ऐसी कई जगह हैं जहां आपको थोड़ी निराशा हो सकती है । इसके अलावा, रोमांटिक ट्रैक भी कुछ खास नहीं है । लेकिन मेकर्स इन सबकी भरपाई, परिचय सीन, मुर्गी वाले सीन, सिखों द्दारा गांव में मस्जिद बनाने वाले सीन के साथ कर लेते हैं क्योंकि इन्हें देखना वाकई बहुत दिलचस्प है । इंटरवल एकदम सही मोड़ पर आता है और सेकेंड हाफ़ के लिए एक इच्छा सी जगा जाता है । इंटरवल के बाद कई सीन बेहद शानदार हैं और ताली बजाने योग्य हैं । अक्सर फ़िल्में सेकेंड हाफ़ में लय से भटक सी जाती हैं लेकिन केसरी उन सभी में एक अपवाद है । वह सीन जिसमें ईशर सिंह केसरी रंग की पगड़ी पहन अपनी सिख रेजीमेंट के सामने आता है, यकीनन एक जोश पैदा करता है । युद्ध के सीन वाकई काफ़ी दिलचस्प है और जब सिख सैनिक अपनी ट्रिक्स से अफ़गानियों को चकमा देते हैं उन्हें देखना रोमांचकारी है । वहीं जब एक-एक करके सिख शहीद होते हैं तो ये देखकर दिल भर सा जाता है और यहां फ़िल्म इमोशनल हो जाती है । क्लाइमेक्स निश्चितरूप से दर्शकों को उत्तेजित करता है लेकिन मेकर्स यहां एक अच्छा हीरोयुक्त एंग़ल देते हैं जो निश्चितरूप से दर्शकों में देशभक्ति की भावना को जगाएगा ।
फ़िल्म में अभिनय की बात करें तो, अक्षय कुमार बेहद शानदार परफ़ोर्मेंस देते हैं । वह अपने किरदार में पूरी तरह समाए हुए नजर आते हैं । जब एक सिख सैनिक अफ़गानों को उनके सामने मूत्र त्याग करते हुए धमकी देता है, तब अक्षय की मुस्कान देखने लायक है । या क्लाइमेक्स में जब वह घायल होकर गिर जाते हैं तब भी । अक्षय ने एक बार शानदार परफ़ोर्मेंस देकर साबित कर दिया कि वह एक प्रतिभाशाली अभिनेता हैं । परिणीति चोपड़ा (जिवानी कौर), जिसे विशेष रूप से श्रेय दिया जाता है, फिल्म में अपना ज्यादा योगदान नहीं देती है । उनके वो सीन, जहाँ वह ईशर के विचारों में शामिल हैं, बहुत कुछ नहीं जोड़ते हैं। अभिनेत्री टॉरन क्यवन (अफगानी महिला) परिणीति की तुलना में बहुत अधिक प्रभाव डालती है । मीर सरवर (खान मसूद) अफगानी आदिवासियों के अधिकतम छाप छोड़ते हैं । भवानी मुज़म्मिल (रहस्यमय स्नाइपर) को एक बदमाश किरदार निभाने का मौका मिलता है और वह काफी मज़ेदार है। राकेश चतुर्वेदी (मुल्ला) दुष्ट किरदार को अच्छी तरह से निभाते हैं । अश्वथ भट्ट (गुल बादशाह खान) अच्छे हैं । सिख सैनिकों से, गुरमीत सिंह के रूप में सुरमीत सिंह बसरा सर्वश्रेष्ठ हैं और कहानी में अहम हिस्सा निभाते हैं । वंश भारद्वाज (लांस नायक चंदा सिंह) भी अच्छा काम करते हैं।
संगीत का यूं तो फ़िल्म में कोई ज्यादा स्थान नहीं है लेकिन जितना है वो फ़िल्म में काफ़ी अच्छा काम करता है । अफ़सोस है कि बहुत ही मनोरंजक 'सानू कहंदी' फिल्म से नदारद है । और ‘अज सिंह गरजेगा’ का भी वही हाल है । 'देह शिव' सबसे अच्छा है और इसका बहुत अच्छा उपयोग किया गया है । 'तेरी मिट्टी' काफी दिल को छू लेने वाला है । राजू सिंह का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म को एक वीरता का एहसास देता है ।
अंशुल चौबे की सिनेमैटोग्राफी शानदार है । लंबे शॉटस विशेष रूप से प्रभावशाली हैं । लेंसमैन का काम काबिलेतारिफ़ है जिसने फ़िल्म को कुछ लुभावनी जगहों पर शूट किया गया है । शीतल शर्मा की वेशभूषा प्रामाणिक है । सुब्रत चक्रवर्ती और अमित रे का प्रोडक्शन डिज़ाइन खासकर किले के सीन में थोड़ा अप्रमाणिक सा लगता है, विशेष रूप से बाहरी शॉट्स नकली से लगते हैं । लेकिन बीते युग को फिर से दोहराने के लिए बहुत प्रयास किए गए हैं और यह कई जगह सफ़ल साबित होता है। परवेज शेख और लॉरेंस वुडवर्ड के एक्शन आवश्यकता के अनुसार कट्टर है और शानदार ढंग से कोरियोग्राफ किए गए हैं । फ्लुईडमास्क स्टूडियो का वीएफएक्स सराहनीय है । मनीष मोरे का संपादन जबरदस्त है और फ़र्स्ट हाफ़ में थोड़ा छोटा हो सकता था ।
कुल मिलाकर, केसरी नाटकीय युद्ध सीन के साथ, जो इसकी सबसे बड़ी खासियत है, साहस और देशभक्ति की एक साहसी और प्रेरणादायक कहानी है । बॉक्सऑफ़िस पर इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों द्दारा पसंद किया जाएगा और चार दिन का लंबा वीकेंड निश्चितरूप से मेकर्स के लिए फ़ायदेमंद साबित होगा । इसे जरूर देखिए ।