जरा हटके जरा बचके, एक ऐसे जोड़े की कहानी है जो अपनी समस्याओं को हल करने के लिए एक नया आईडिया लगाता है । कपिल दुबे (विकी कौशल) और सौम्या चावला दुबे (सारा अली खान) की खुशहाल शादीशुदा ज़िंदगी है । वे अपने माता-पिता वेद प्रकाश दुबे (आकाश खुराना) और ममता दुबे (अनुभा फतेहपुरिया) के साथ इंदौर के एक घर में रहते हैं । पिछले छह महीनों से कपिल के मामा पुरुषोत्तम (नीरज सूद) और उनकी पत्नी दीपा मामी (कनुप्रिया शंकर पंडित) उनके यहां रहने आ जाते हैं । कपिल और सौम्या को अपना बेडरूम उन्हें देना पड़ता है । नतीजतन, उनकी प्राइवेसी ख़त्म हो जाती है । इसलिए, सौम्या कपिल को सुझाव देती हैं कि उनका अपना अलग घर होना चाहिए । वे घर की तलाश शुरू करते हैं लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास होता है कि प्रॉपर्टी की क़ीमतें तो आसमान छू रही हैं । एक दिन, सौम्या को जन आवास योजना के बारे में पता चलता है, जो एक सरकारी योजना है जो सस्ती दरों पर घर उपलब्ध कराती है । कपिल इसके लिए आवेदन करने की कोशिश करता है लेकिन उसे बताया जाता है कि वह इसके लिए पात्र नहीं है क्योंकि यह योजना केवल आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए है और जिनके पास अपना खुद का पक्का घर नहीं है । भगवानदास (इनामुलहक), जन आवास योजना कार्यालय में एक कर्मचारी, कपिल से अचानक मिलता है और वह उन्हें आश्वासन देता है कि वह उसे और सौम्या को एक घर दिलवा सकता है । लेकिन उनकी एक शर्त है: कपिल और सौम्या को तलाक लेना होगा । आगे क्या होता है, इसके लिए पूरी फ़िल्म देखनी होगी ।
मैत्रेय बाजपेयी, रमिज़ इल्हाम खान और लक्ष्मण उतेकर की कहानी रिलेटेबल है और प्यार पर स्क्वायर फ़ीट [2018] और हिंदी मीडियम [2017] के बीच एक क्रॉस है । मैत्रेय बाजपेयी, रमिज़ इल्हाम खान और लक्ष्मण उतेकर की स्क्रिप्ट एक बिंदु तक ठीक है लेकिन सेकेंड हाफ़ में लड़खड़ा जाती है । मैत्रेय बाजपेयी और रमिज़ इल्हाम खान के डायलॉग कई जगहों पर मज़ेदार हैं। लेकिन भावनात्मक रूप से, वन-लाइनर्स को अधिक प्रभावशाली होना चाहिए था ।
लक्ष्मण उतेकर का निर्देशन अच्छा है । उनकी पिछली फिल्म मिमी (2021) बहुत शानदार थी लेकिन यहां वह बेहतरीन फॉर्म में नहीं लग रहे हैं । हालांकि यहाँ उन्होंने कुछ दृश्यों को काफी अच्छी तरह से हैंडल किया है जैसे दूसरी सालगिरह का जश्न, कपिल और सौम्या कपिल के परिवार के सामने लड़ने का नाटक करना, कपिल और सौम्या भगवानदास से मिलना और सड़क के किनारे भोजनालय में उनकी डेट्स। फ़र्स्ट हाफ़ में कोर्ट रूम के दृश्य मज़ेदार हैं और जो फ़िल्म का सबसे अच्छा हिस्सा भी । इसके अलावा, अपना खुद का घर होने की आकांक्षा एक ऐसा फ़ैक्टर है जिससे शहरी क्षेत्रों में बहुत से लोग रिलेट कर सकते हैं ।
वहीं फ़िल्म की कमियों कि बात करें तो, फिल्म वास्तव में कभी भी हाई लेवल पर नहीं जाती है । महज़बीन (सृष्टि गांगुली रिंदानी) के किरदार, गोपी के रूप में सोम्या का नाम बचाते हुए कपिल और कपिल की समय की पाबंदी की आदत जैसे बहुत सारे प्लॉट्स अचानक से लगते हैं । इन प्लॉट्स का कहानी में एक महत्वपूर्ण हिस्सा था और इसे दर्शकों को बीच में फेंकने और उन्हें भ्रमित करने के बजाय प्लॉट में पहले डाला जाना चाहिए था । क्लाईमेक्स काफ़ी झकझोर देने वाला होना चाहिए था है लेकिन यह काफी फ़्लैट सा है ।
अभिनय की बात करें तो, विकी कौशल अपने रोल में जंचते हैं और काफी पसंद किए जाते हैं । वह अपना रोल काफ़ी मासूमियत और ईमानदारी से निभाते हैं । सारा अली खान एक आत्मविश्वासी अभिनय करती हैं और स्क्रीन पर उनकी उपस्थिति बहुत अच्छी लगती है । नीरज सूद सभ्य हैं जबकि कनुप्रिया शंकर पंडित यादगार हैं । इनामुलहक बहुत अच्छा करते है । सृष्टि गांगुली रिंदानी प्यारी हैं, हालांकि उन्हें ज्यादा स्कोप नहीं दिया । हिमांशी कोहली (एडवोकेट मनोज बघेल) ने शो में धमाल मचा दिया । शारिब हाशमी (दारोगा रघुवंशी) हमेशा की तरह प्यारे लगाते हैं अपने रोल में । विवान शाह (सजन; बच्चा) ठीक है । आकाश खुराना और अनुभा फतेहपुरिया को ज्यादा स्कोप नहीं मिलता है । राकेश बेदी (हरचरण चावला) मजाकिया बनने की बहुत कोशिश करता है लेकिन विफल रहते हैं । सुष्मिता मुखर्जी (रोशनी चावला) शायद ही नज़र आती हैं । अतुल तिवारी (जज अनिल कुमार पालीवाल) छोटे से रोल में गहरा प्रभाव छोड़ते हैं । डिंपी मिश्रा (डिंपी सर) कुछ खास नहीं हैं ।
सचिन-जिगर का संगीत मिलाजुला है । 'फिर और क्या चाहिए' बहुत ही भावपूर्ण और आकर्षक है । 'तेरे वास्ते' और 'सांझा' रजिस्टर नहीं हो पाए । फिल्म में 'बेबी तुझे पाप लगेगा' नदारद है । संदीप शिरोडकर का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के मिजाज के हिसाब से थोड़ा हटके है । 'देखो मैंने देखा है एक सपना' के वाद्य संस्करण बहुत अच्छे हैं ।
राघव रामदास की सिनेमेटोग्राफ़ी उपयुक्त है । सुब्रत चक्रवर्ती और अमित रे की प्रोडक्शन डिजाइन यथार्थवादी है । शीतल इकबाल शर्मा की वेशभूषा पात्रों और उनकी आर्थिक स्थिति के अनुकूल है । मनीष प्रधान की एडिटिंग साफ-सुथरी है ।
कुल मिलाकर, भले ही जरा हटके जरा बचके खराब लेखन से पीड़ित है, लेकिन इसका फ़र्स्ट हाफ़ वाक़ई मज़ेदार है और कई यादगार और हंसाने वाले दृश्यों पर टिका है । पॉजिटिव वर्ड ऑफ माउथ और इसकी टार्गेट ऑडियंस यानी फ़ैमिली थिएटर तक फ़िल्म देखने पहुँचे तो इसकी बॉक्स ऑफिस संभावना अच्छी है ।