फ़िल्म :- निशांची

कलाकार :- ऐश्वर्य ठाकरे, वेदिका पिंटो, मोनिका पंवार

निर्देशक :- अनुराग कश्यप

रेटिंग :- 3/5

Nishaanchi Movie Review: क्राइम, ड्रामा और डार्क ह्यूमर के साथ अनुराग कश्यप स्टाइल फिल्म है निशांची

संक्षिप्त में निशांची का प्लॉट :-  

साल है 2006, बबलू उर्फ़ टोनी मोंटाना (ऐश्वर्य ठाकरे), उसका जुड़वां भाई डबलू (ऐश्वर्य ठाकरे) और उसकी गर्लफ्रेंड रिंकू (वेदीका पिंटो) कानपुर में बैंक लूटने की कोशिश करते हैं। इस दौरान टोनी पकड़ा जाता है जबकि डबलू और रिंकू भाग निकलते हैं। टोनी को 7 साल की सज़ा होती है। चूँकि डबलू ने मंकी कैप पहन रखी थी, गवाह उसे पहचान नहीं पाते। पुलिस अफसर कमल अजीब (मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब) टोनी से उसके साथी का नाम निकलवाने की पूरी कोशिश करता है, लेकिन टोनी अपने भाई को बचाने के लिए चुप रहता है। घर पर टोनी और डबलू की मां मंजीरी (मोनिका पंवार) परेशान है। रिंकू भी उदास है और इसी बीच डबलू, जिसे हमेशा से रिंकू पर क्रश था, उसके करीब आने की कोशिश करता है। इसी दौरान अंबिका प्रसाद (कुमुद मिश्रा) पुरानी दुश्मनी निकालने के लिए टोनी, डबलू, रिंकू और मंजीरी की ज़िंदगी को और मुश्किल बनाने पर तुल जाता है। आगे की कहानी पूरी फिल्म में सामने आती है।

निशांची मूवी स्टोरी रिव्यू :-  

अनुराग कश्यप की कहानी विस्तृत और गहरी है। प्रसून मिश्रा, रंजन चैनल और अनुराग कश्यप की पटकथा मनोरंजन और ड्रामे से भरपूर है, हालांकि कई जगह यह खिंची हुई लगती है। डायलॉग्स फिल्म की बड़ी ताकत हैं।

अनुराग कश्यप का निर्देशन शानदार है। फिल्म का अंदाज़ गैंग्स ऑफ वासेपुर ज़ोन में है। कहानी यहाँ खत्म नहीं होती, बल्कि इसका दूसरा पार्ट भी आने वाला है। कई किरदार और स्थितियाँ 2012 की दो-भाग वाली क्लासिक फिल्म की याद दिलाती हैं। फिल्म में ह्यूमर मौजूद है, लेकिन असली ताकत ड्रामे में है।

कहानी एक खास मुकाम से शुरू होती है और अनुराग शुरू से ही किरदारों की ज़िंदगी में हुए बड़े बदलावों की ओर इशारा करते हैं। यह दर्शकों को उत्सुक बनाए रखता है। फ्लैशबैक हिस्से ज़्यादातर फिल्म पर हावी हैं और इन्हें रोचक ढंग से दिखाया गया है। कई सीन्स यादगार हैं जबरदस्त (विनीत कुमार सिंह) का बदला लेना और जेल वाला सीन, टोनी और रिंकू की पहली मुलाक़ात, मंजीरी का डबलू को चेतावनी देना, अंबिका पर हमला आदि। क्लाइमैक्स बेहतरीन है और अगले पार्ट के लिए उत्सुकता बढ़ाता है।

वहीं कमियों की बात करें तो, फिल्म 179 मिनट लंबी है। लगातार कुछ न कुछ होता रहता है, फिर भी कहीं-कहीं यह बोझिल लगने लगती है। गाने ज़्यादा हैं और दो गाने आसानी से छोटे किए जा सकते थे। इंटरवल प्वाइंट बहुत गंभीर है। फिल्म को क्राइम कॉमेडी बताकर प्रमोट किया गया है, लेकिन कई हिस्सों में ह्यूमर गायब हो जाता है। इससे दर्शक निराश हो सकते हैं। एक बड़ी कमी यह है कि मेकर्स ने यह खुलकर प्रमोट नहीं किया कि निशांची दो-भाग वाली कहानी है। दर्शकों को यह जानकर झटका लग सकता है कि लगभग तीन घंटे लंबी फिल्म देखने के बाद भी कहानी अधूरी है और आगे जारी रहेगी। इसके अलावा, फिल्म का सीमित बज़ भी नुकसानदायक साबित हो सकता है।

परफॉरमेंस :

ऐश्वर्य ठाकरे ने हाल के समय की सबसे बेहतरीन डेब्यू परफॉर्मेंस दी है । अपनी पहली ही फिल्म में उन्होंने दो बिल्कुल अलग-अलग किरदार निभाए हैं और जिस आत्मविश्वास के साथ वे स्क्रीन पर नजर आते हैं, वह काबिले-तारीफ है। मोनिका पंवार ने शानदार काम किया है। शुरुआत में लगा था कि वह किरदार के लिए शायद बहुत युवा दिखेंगी, लेकिन कुछ ही मिनटों में यह संदेह मिट जाता है। वेदीका पिंटो का पहले हाफ में स्क्रीन टाइम सीमित है, लेकिन इंटरवल के बाद उनका काम एक नए स्तर पर पहुंचता है। कुमुद मिश्रा निशांची के लिए वही हैं, जो गैंग्स ऑफ वासेपुर में तिग्मांशु धूलिया थे। उनका अभिनय दमदार है और यह देखना दिलचस्प है कि उन्हें डी-एज कैसे किया गया है। विनीत कुमार सिंह को ‘वेरी स्पेशल अपीयरेंस’ में क्रेडिट किया गया है, लेकिन उनका किरदार काफी अहम है। एक बार फिर उन्होंने साबित किया है कि वह हमारे समय के बेहतरीन अभिनेताओं में से एक हैं। दुर्गेश कुमार (बैंक सिक्योरिटी गार्ड) एक सीन से ही असर छोड़ जाते हैं। सहार्श शुक्ला (पुराने), शुभम तिवारी (हवा हवाई) और मुरारी कुमार (बाबा लस्सन) भी गहरी छाप छोड़ते हैं। राजेश कुमार (भोला पहलवान) का अभिनय ठीक है, लेकिन इस तरह के रोल में वह मिसकास्ट लगते हैं। खास ज़िक्र नितप्रीत गोरख्याल और सुप्रीत गोरख्याल का होना चाहिए, जिन्होंने युवा बाबलू और डबलू की भूमिकाएँ निभाई हैं।

संगीत और तकनीकी पहलू :

फिल्म का म्यूज़िक जोशीला और विविधता से भरा है। ‘फिलम देखो’ ओपनिंग क्रेडिट्स में आता है और फिल्म का मूड सेट कर देता है। ‘नींद भी तेरी’ और ‘क्या है क्या है’ (जो ज्यूकबॉक्स में नहीं है) सोलफुल हैं। ‘झूले झूले पालना’ अच्छी तरह से फिट बैठता है। ‘पिजन कबूतर’, ‘कानपुरिया कंठाप’ और ‘राजा हिंदुस्तानी’ फिल्म के टोन के अनुरूप हैं। ‘भागा भागा के मारेंगे’ एनर्जेटिक है, जबकि ‘ऊपर वाले ने’ इमोशनल टच देता है। ‘डियर कंट्री’ मजेदार है लेकिन जल्दी अपनी नयापन खो देता है। ‘सरम लगे ला’ जबरदस्ती डाला गया लगता है। ‘रह गए अकेले’ एंड क्रेडिट्स में प्रभावी है।

अजय जयंती का बैकग्राउंड स्कोर सटीक है। सिल्वेस्टर फोंसेका की सिनेमैटोग्राफी रॉ और रियल लगती है। अमृत सिंह का एक्शन भी इसी टोन में है। विक्रम सिंह और पारुल राय का प्रोडक्शन डिज़ाइन तथा श्रुति कपूर की कॉस्ट्यूम डिज़ाइन यथार्थपरक है; वेदीका के कपड़े उनके किरदार की मांग के अनुसार ग्लैमरस हैं। RedChillies.VFX और White Apple Studios का वीएफएक्स ठीक-ठाक है। आर्टी बजाज की एडिटिंग और बेहतर हो सकती थी; फिल्म को और क्रिस्प रखा जा सकता था।

क्यों देंखे निशांची ?

कुल मिलाकर, निशांची एक रॉ और बाँधे रखने वाली फिल्म है जो अनुराग कश्यप की क्राइम, ड्रामा और डार्क ह्यूमर को मिलाने की खासियत को एक बार फिर साबित करती है। हालांकि, तीन घंटे की लंबाई, अचानक से टू-पार्ट फॉर्मेट, सीमित चर्चा और बॉक्स ऑफिस पर जॉली एलएलबी 3 जैसी मजबूत प्रतिस्पर्धा इसकी कमाई को सीमित कर सकती है।