मुंबई अंडरवर्ल्ड पर फ़िल्म बनाने का हिट फ़ॉर्मूला बॉलीवुड में काफ़ी प्रचलित है । फ़िल्ममेकर संजय गुप्ता भी इस विषय पर दो फ़िल्में बना चुके हैं । और अब संजय गुप्ता लेकर आए हैं एक और मुंबई अंडरवर्ल्ड पर बेस्ड फ़िल्म मुंबई सागा, जिसमें जॉन अब्राहम और इमरान हाशमी लीड रोल में नजर आए हैं । इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई मुंबई सागा दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब हो पाएगी, या यह अपने प्रयास में विफ़ल होती है ? आइए समीक्षा करते हैं ।
मुंबई सागा एक गैंगस्टर और एक पुलिस वाले के बीच की प्रतिद्वंद्विता की कहानी है । 80 के दशक के मध्य में, अमर्त्य राव (जॉन अब्राहम) अपने परिवार के साथ रहता है । उसकी फ़ैमिली में उसके पिता (राजेंद्र गुप्ता), भाई अर्जुन (हर्ष शर्मा) और पत्नी सीमा (काजल अग्रवाल) शामिल हैं । उसका परिवार सड़कों पर सब्जियां बेचता है और उन्हें परेशान किया जाता है क्योंकि उन्हें गायतोंडे (अमोल गुप्ते) के गुंडों को हफ़्ता (रिश्वत) देना पड़ता है । एक दिन, अर्जुन एक गुंडे के साथ बहस करता है और वो गुंडा अर्जुन को पुल से फेंक देता है । अमर्त्य ने अब तक गैंगस्टरों के साथ नहीं जुड़ने का फैसला किया था । लेकिन अमर्त्य अर्जुन को बचा लेता है । अर्जुन के लिए चिंतिंत अमर्त्य अकेले गायतोंडे के आदमियों के साथ मारपीट करता है और यहां तक कि उन गुंडों में से एक के हाथ भी काट देता है । गायतोंडे, जो जेल में बंद है और वहीं से अपनी गुंडागर्दी झाड़ता है, पुलिस को अमर्त्य को गिरफ्तार करने के लिए कहता है । पुलिस अमर्त्य को भी उसी जेल में डाल देती है । गायतोंडे के गुर्गे जेल में अमर्त्य पर हमला करते हैं । फिर भी, अमर्त्य अकेले ही उनसे मुकाबला करता है और उन्हें हरा देता है । गायतोंडे को फ़िर पता चलता है कि अमर्त्य बहुत खतरनाक है । अगले दिन, अमर्त्य को जमानत पर रिहा कर दिया जाता है । यह मुंबई के अनौपचारिक राजा भाऊ (महेश मांजरेकर) द्वारा हो पाया । भाऊ, अमर्त्य को उसके लिए काम करने और गायतोंडे और उसके साम्राज्य को खत्म करने का ऑफ़र देता है । कुछ ही समय में, अमर्त्य व्यापार के गुर सीख जाता हैं । वह दादर और भयखला के बीच, गायतोंडे के इलाके को भी नापता है। हार मानने के सिवाय गायतोंडे के पास कोई विकल्प नहीं बचता है । कहानी फिर 12 साल आगे बढ़ती है । अर्जुन (प्रतीक बब्बर) अब बड़ा हो गया है और उसकी रक्षा के लिए अमर्त्य उसे यूके भेज देता है । इस बीच, सुनील खेतान (समीर सोनी) जो एक उद्योगपति है और अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित एक मिल का मालिक हैं । वह सभी मिल श्रमिकों को हटाना चाहता है । वह मिल मालिकों को बेदखल करने के लिए गायतोंडे की मदद लेता है । भाऊ अमर्त्य से कहता है कि वह सुनील खेतान को मिल बेचने से रोके जिससे उसे वोट मिल सके । अमर्त्य सुनील से मिलता है और उसे गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी देता है । अमर्त्य की प्रवृत्ति के बारे में सुनील गायतोंडे से शिकायत करता है । जवाबी कार्रवाई में, गायतोंडे अर्जुन को मारने की कोशिश करता है जब अर्जुन मुंबई आया हुआ होता है । लेकिन अर्जुन कैसे भी करके खुद को बचा लेता है । गुस्से में अमर्त्य सुनील खेतान को दिन के उजाले में खत्म कर देता है । जिसके बाद सुनील की विधवा सोनाली (अंजना सुखानी) पुलिस मुख्यालय जाती है और घोषणा करती है कि वह अमर्त्य को मारने वाले पुलिस वाले को 10 करोड़ का इनाम देगी । विजय सावरकर (इमरान हाशमी) इस ऑफ़र में दिलचस्पी लेता है और निर्णय लेता है कि वह अमर्त्य को मार डालेगा । इसके बाद आगे क्या होता है, यह आगे की फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।
संजय गुप्ता की कहानी दिलचस्प और रोमांच और कई सारे ट्विस्ट एंड टर्न्स से भरी है । फिल्म सच्ची घटनाओं से प्रेरित है । इसके अलावा, यह उन लोगों पर आधारित है जिनके बारे में बहुत से लोग नहीं जानते होंगे । रॉबिन भट्ट और संजय गुप्ता की पटकथा प्रभावी है । लेखक यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश करते हैं कि मुख्य प्लॉट पर ध्यान केंद्रित रहे और दर्शक एक सेकंड के लिए भी ऊब न जाएं । इसलिए फ़िल्म सही गति से आगे बढ़ती है । कुछ सीन्स फ़िल्म में असाधारण हैं और अच्छे से सोचे गए हैं । संजय गुप्ता के डायलॉग्स (वैभव विशाल के अतिरिक्त संवाद) फिल्म के आकर्षण को बढ़ाते हैं। कुछ वन-लाइनर्स सिनेमाघरों में ताली बजाने के लिए निश्चित हैं ।
संजय गुप्ता का निर्देशन सटीक है । वह बहुत ही नाटकीय और मनोरंजक तरीके से कहानी को पेश करते हैं । नतीजतन फ़िल्म मेंकई सारे दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देने वाले सीन देखने को मिलते हैं । अमर्त्य और सावरकर के किरदार विशेष रूप से मजबूत हैं और अच्छी तरह से फ़िल्माए गए हैं । वहीं इसके विपरीत कुछ योग्य किरदारों को पर्याप्त स्क्रीन टाइम नहीं मिलता है । संजय गुप्ता को सेकेंड हाफ़ को थोड़ा और बेहतर बनाना चाहिए था, खासकर क्लाइमेक्स को । सेकेंड हाफ़ की लंबाई भी एक मुद्दा है ।
मुंबई सागा की शुरूआत काफ़ी बेहतरीन होती है जिसमें कुछ दशक पहले मुंबई में राजनीतिज्ञ-गैंगस्टर सांठगांठ को दर्शाया गया है । बिना समय बर्बाद किए फ़िल्म आगे बढ़ती है और ये बताया जाता है कि आखिर अमर्त्य डॉन क्यों बन गया । वो सीन जहां अमर्त्य ने रेलवे ब्रिज पर गायतोंडे के आदमियों पर हमला किया, अप्रत्याशित रूप से शुरू होता है और इसे दर्शकों द्वारा सराहा जाएगा । जेल वाला दूसरा एक्शन सीन फ़िल्म के मजे को और बढ़ा देता है । अमर्त्य का उदय बहुत जल्दी होता है लेकिन शुक्र है कि फिल्म में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिसमें दिलचस्पी बनी रहे । सुनील खेतान की हत्या का मामला हाईपॉइंट है । इंटरमिशन दिलचस्प मोड़ पर आता है । इंटरवल के बाद, अमर्त्य और सावरकर के बीच पीछा करने के सीन दर्शकों को सीट से बांधे रखते हैं > वहीं क्लाइमेक्स से ठीक पहले का ट्विस्ट भी हैरान कर देने वाला है । हालांकि क्लाइमेक्स थोड़ा और बेहतर हो सकता था, लेकिन कुल मिलाकर फ़िल्म देखने लायक है ।
जॉन अब्राहम टॉप फॉर्म में हैं । वह हर लिहाज से एक खूंखार गैंगस्टर दिखते हैं एक्शन सीन में तो वह छा जाते हैं । कई जगहों पर, उन्होंने अपनी डिंपल वाली स्माइल को संक्षेप में दिखाया और इससे उनके किरदार का करिश्मा और बढ़ जाता है । इमरान हाशमी की एंट्री देर से होती है इसलिए उनके फ़ैंस इससे निराश हो सकते हैं । लेकिन एक बार जब फ़िल्म में उनकी एंट्री हो जाती है तो फ़िल्म और बेहतर हो जाती है । सिर्फ एक्शन से ही नहीं बल्कि वह अपने वन-लाइनर्स के साथ भी फ़िल्म की लाइमलाइट बन जाते हैं । पुलिस की वर्दी के साथ उनके ताली बजाने योग्य डायलॉग्स थिएटर में हंगामा कर देंगे । महेश मांजरेकर चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में बहुत जंचते हैं । अमोले गुप्ते शानदार हैं । प्रतीक बब्बर थोड़ा हटकर दिखते हैं लेकिन एक अपनी छाप छोड़ने में कामयाब होते हैं । काजल अग्रवाल और अंजना सुखानी को सीमित स्क्रीन टाइम मिलता है । तीथ राज (नीलम; अर्जुन की पत्नी) के साथ भी ऐसा ही है । गुलशन ग्रोवर (नारी खान) स्टाइलिश दिखते हैं और अपने रोल में जंचते हैं । रोहित बोस रॉय (बाबा) अमर्त्य के दाहिने हाथ के आदमी के रूप में ठीक हैं । लेकिन सेकेंड हाफ में उनका मकसद थोड़ा अटूट है । समीर सोनी, शाद रंधावा (जगन्नाथ), विवान पराशर (सदाशिव) और हर्ष शर्मा ठीक हैं । सुनील शेट्टी (सदा अन्ना) एक कैमियो के रूप में अच्छे लगते हैं । वह काफी स्टाइलिश दिखते हैं ।
इस तरह की फिल्म में संगीत का स्कोप सीमित है । शुक्र है कि फिल्म में केवल 2 ही गाने हैं । 'डंका बाजा' पैर थिरकाने वाला है जबकि 'शोर मचेगा ’अच्छी तरह से फिल्माया गया गाना है लेकिन एक पीरियड फिल्म में यह अजीब लगता है । अमर मोहिले का बैकग्राउंड स्कोर नाटकीय और रोमांचक है ।
शिखर भटनागर की सिनेमैटोग्राफी शिकायत से रहित है । प्रिया सुहास और सुनील निगवेकर का प्रोडक्शन डिजाइन और नाहिद शाह की ड्रेसेस ऑथेंटिक हैं । अंबरीव के एक्शन फिल्म के हाईप्वाइंट्स में से एक है । Nube Cirrus का VFX कुछ स्थानों पर अच्छा है । सेकेंड हाफ में बंटी नेगी की एडिटिंग और बेहतर हो सकती थी ।
कुल मिलाकर, मुंबई सागा एक ऐसी फ़िल्म है जो बड़े पर्दे पर देखने लायक है । शानदार सीन्स, ताली बजाने योग डायलॉग्स, अचानक आए ट्विस्ट एंड टर्न्स जैसे कई तत्वों से सजी फ़िल्म है । बॉक्स ऑफ़िस पर यह फ़िल्म दर्शक जुटाने में कामयाब होगी साथ ही वितरकों और प्रदर्शकों की खुशी का कारण बनेगी ।