दिवाली पर रिलीज होने वाली फ़िल्में खुद में एक त्यौहार की तरह होती हैं । और इस साल, अमिताभ बच्चन और आमिर खान पहली बार साल की सबसे बहुप्रतिक्षित फ़िल्म ठग्स ऑफ हिंदोस्तान में एक साथ नजर आए ।
हम सीधा मुद्दे पर आते हैं । क्या ठग्स ऑफ हिंदोस्तान सभी उम्मीदों पर खरी उतरती है ? या फ़िर ये चौंकाते हुए निराश करती है ? दुर्भाग्य से, यह फ़िल्म बहुत बड़े स्तर पर निराश करती है ।
ठग्स ऑफ हिंदोस्तान अंग्रेजों से लड़ने वाले विद्रोहियों के एक समूह की कहानी है । यह साल 1795 है । साम्राज्य के शासन की बागडोर एक उदार राजा [रोनीत रॉय] के पास होती है । क्रूर क्लाइव [लॉयड ओवेन] विश्वासघाती माध्यमों से साम्राज्य को हड़प लेता है और वहां के राजा और रानी को मार देता है ।
राजा का एक संरक्षक, खुदाख्श [अमिताभ बच्चन] राजा की बेटी जाफिरा [फातिमा सना शेख] को किसी भी तरह से बचा लेता है । 11 साल बाद, खुदाबख्श, जाफिरा और उनका गिरोह ठग बन जाता है । उन्होंने अंग्रेजों के जीवन में आतंक मचा रखा है ।
सामने कोई और विकल्प नहीं मिलता, इस कारण क्लाइव खुदाबख्श के ठिकाने का पता लगाने के लिए फिरंगी मल्ला [आमिर खान] को बुलाता है । फिरंगी एक कुटिल/चालाक किरदार है और उस पर भरोसा करना मुश्किल है। विश्वासघात करना उसकी आदत है और ये बात वो खुद भी मानता है ।
अपने मित्र शनीचार [मोहम्मद जीशान अयूब] की मदद से, फिरंगी खुदाबख्श की सेना में घुसने की एक योजना बनाता है । इसके बाद क्या होता है ?
शुरूआत यहां से करते हैं कि, फ़िल्म की कहानी पहले भी आजमाई जा चुकी है और यह पूरी तरह से अनुमानित है । लेखक कोंटेंट के साथ बहुत कुछ कर सकता था, लेकिन अफ़सोस वह इस सुनहरे अवसर को गंवा देता है । पटकथा लेखन में कुछ पल है [विशेष रूप से फ़र्स्ट हाफ़ में], लेकिन जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है, कहानी अपनी पकड़ खोने लगती है । इससे भी बदतर, कई सारी सिनेमाई स्वतंत्रताएं और निर्जीव सा सेकेंड हाफ़, फ़िल्म का सबसे बड़ा रोड़ा बनता है । फ़िल्म के डायलॉग्स दिलचस्प हैं, खासकर सीनियर्स कलाकारों के बीच के, लेकिन वे कुछ ही हैं और फ़िल्म में कुछ खास नहीं जोड़ते हैं ।
विजय कृष्ण आचार्य का निर्देशन कमजोर है । स्पष्ट रूप से, बेहद कमजोर लेखक के साथ निर्देशक फ़िल्म को डूबने से बचा नहीं पाए । हालांकि, उन्होंने कुछ सीन को प्रभावशाली बनाने में जरूर कामयाबी हासिल की…।
* फिरंगी की एंट्री और पहले घंटे में फिरंगी और खुदाबख्श के बीच के सीन याद रखने लायक हैं ।
* खुदाबख्श की एंट्री का तालियों और सीटी से स्वागत किया जाएगा । यहां तक कि फिरंगी मल्ला का परिचय भी मजाकिया है और दिलचस्पी को बढ़ाता है ।
* इंटरवल मोड़ और इससे ठीक पहले का सीक्वंस जिसमें दो अभिनेताओं का आमना-सामना और एक्शन सीन बांधे रखता है ।
37 साल पहले साल 1981 में रिलीज हुई मनोज कुमार की मल्टी-स्टारर फ़िल्म क्रांति, जो इसी विषय [ब्रिटिशों से लड़ने वाले विद्रोहियों के समूह] पर बनी थी, आज भी कहीं ज्यादा दिलचस्प और मनोरंजक फ़िल्म है । उस फ़िल्म के यादगार गीत आज भी इस फ़िल्म को यादगार बनाते हैं ।
अजय-अतुल का संगीत निराश करता है । बेहद प्रतिभाशाली संगीतकार इस बार काम नहीं करते हैं । बैकग्राउंड स्कोर झटकेदार है। छायांकन आश्चर्यजनक है । एक्शन दृश्यों को अच्छी तरह से निष्पादित किया जाता है । प्रोडक्शन डिजाइन शीर्ष स्तर पर है। वीएफएक्स बेहतर होना चाहिए था । संपादन असमान है । फिल्म का रन टाइम भी कम किया जा सकता था ।
आमिर अपने फ़िरंगी किरदार में बहुत जंचते हैं, लेकिन कमजोर लेखन की वजह से निराश कर जाते हैं । इसके अलावा, कई जगहों पर वह मजाकिया होने के लिए बहुत मेहनत करते हैं । अमिताभ बच्चन सभी के ऊपर एक जबरदस्त परफ़ोरमेंस देते हैं और अपने किरदार में बेहतरीन दिखते हैं । फातिमा सना शेख वांछित प्रभाव बनाने में विफल रहती है । कैटरीना कैफ़ बमुश्किल नजर आती हैं, वह कुछ सीन और दो गानों में नजर आती हैं ।
मोहम्मद जीशान अयूब अस्वाभिक अभिनय करते हैं । दो ब्रिटिशर हास्य किरदार की तरह दिखते हैं । इला अरुण बर्बाद हो जाती हैं । रोनीत रॉय सभ्य है । शरत सक्सेना को करने के लीए ज्यादा कुछ नहीं है ।
कुल मिलाकर, ठग्स ऑफ़ हिंदोस्तान के फ़र्स्ट हाफ़ में कुछ मनोरंजक पल है, जो इसके बारें में है । इंटरवल के बाद का हिस्सा पूरी तरह से निराश करता है । फ़िल्म का प्लॉट फार्मूलाबद्ध है, जबकि पटकथा सिनेमाई स्वतंत्रताओं के साथ झुकी हुई है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म, फ़ेस्टिवल के कारण मिले लंबे वीकेंड और बड़े-बड़े कलाकारों के नाम जुड़ने और जबरदस्त प्रचार के कारण दर्शक जुटाने में कामयाब होगी । लेकिन फ़िल्म के लिए पैदा हुए प्रारंभिक उत्साह खत्म हो जाने के बाद, इसे दर्शक जुटाना मुश्किल होगा । यह एक सुनहरा मौका गंवा देती है, और बड़े स्तर पर निराश करती है ।