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समानांतर सिनेमा आंदोलन कई दशकों से चल रहा है । इस आंदोलन के हिस्से के रूप में बहुत सारी अच्छी तरह से बनाई गई फिल्में बनाई गई हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश फ़िल्में अलग लेवल की होने के कारण, किसी के नोटिस में नहीं आई । इसमें हालांकि, रितेश बत्रा की द लंचबॉक्स [2013] एक अपवाद थी । और इस फ़िल्म को हर जगह सराहा गया । रितेश बत्रा इस हफ़्ते लेकर आए हैं अपनी दूसरी फ़िल्म, फ़ोटोग्राफ़, जो मुंबई की एक असामान्य प्रेम कहानी को दर्शाती है जो धीरे-धीरे जन्म लेती है । तो क्या फ़ोटोग्राफ़ दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब होगी, या यह अपने प्रयास में विफ़ल होती है । आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : फ़ोटोग्राफ़

फ़ोटोग्राफ़, समाज के विभिन्न तबकों से जुड़े दो लोगों की कहानी है जो एक असामान्य परिस्थिति के कारण एक साथ आते हैं । रफीक (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) गेटवे ऑफ इंडिया, मुंबई में एक फोटोग्राफर है । वह तीन लोगों के साथ झुग्गी के एक छोटे से कमरे में रहता है जिसमें उनके साथ तीन और लोग भी रहते है । उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव में बेस्ड रफीक की दादी (फारुख जाफ़र) बूढ़ी हैं और रफ़ीक के विवाह से इनकार करने से व्यथित हैं । इसलिए वह इसके विरोध के रूप में अपनी दवा लेना बंद कर देती है । अपनी दादी को शांत करने के लिए, रफीक उससे झूठ बोलता है कि वह नूरी नाम की लड़की के साथ रिलेशनशिप में है । इतना ही नहीं वह नूरी नाम की एक लड़की की एक तस्वीर भी अपनी दादी को दिखाता है । दरअसल, वह तस्वीर एक गुजराती परिवार के सभ्रांत मिलोनी (सान्या मल्होत्रा) की होती है । रफ़ीक ने ये तस्वीर उस वक्त क्लिक की थी जब मि्लोनी गेट ऑफ़ इंडिया पर अपने परिवार से अलग हो गई थी । मिलोनी अपने परिवार से अलग होकर डर सी गई थी और रफ़ीक को बिना पैसे दिए अपनी तस्वीर उसी पर छोड़ जाती है । तभी रफ़ीक उसकी मासूमियत और सुंदरता से प्रभावित हो जाता है । वहीं दूसरी ओर रफ़ीक की दादी इस बात से बेहद खुश हो जाती हैं कि उनके पोते ने एक लड़की को पसंद भी कर लिया है । और दादी नूरी से मिलने की खातिर मुंबई आ जाती है । रफ़ीक परेशान हो जाता है और मिलोनी को अपनी दादी से मिलने के लिए मना लेता है । मिलोनी मान तो जाती है लेकिन आगे क्या होता है यह आगे की फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।

रितेश बत्रा की कहानी दिलचस्प और द लंचबॉक्स जोन लिए हुए है । रितेश बत्रा की पटकथा कई जगहों पर बांधे रखने वाली है लेकिन कई सीन में बिखर जाती है । फ़िल्म में से स्थिरता का तत्व गायब है । रितेश बत्रा के संवाद सरल और यथार्थवादी हैं ।

रितेश बत्रा का निर्देशन औसत है । अस्थिर स्क्रीनप्ले की भरपाई आदर्श रूप से निर्देशन को करनी चाहिए थी । लेकिन ऐसा नहीं होता है । कुछ सीक्वेंस फिल्म में बहुत कुछ नहीं जोड़ते हैं और यह सेकेंड हाफ़ में और ज्यादा बढ़ जाता है । साथ ही फ़िल्म में कुछ अनकहे पल भी हैं जिन्हें अच्छे से संभाला नहीं गया ।

फ़ोटोग्राफ़ की शुरूआत एक सोबर नोट पर होती है और दर्शकों को फ़िल्म और किरदारों के मूड में आने में थोड़ा समय लगता है । केवल 20-30 मिनट बाद यह फिल्म अपनी रफ़्तार पकड़ती है । फ़िल्म के कुछ सीन बहुत ही शानदार हैं जैसे- मिलोनी जब पहली बार दादी से मिलती है इत्यादि । हालांकि सेकेंड हाफ़ थोड़ा खींचा हुआ सा लगता है । फ़ोटोग्राफ़ 110 मिनट लंबी है और कायदे से इसे 90 मिनट से अधिक लंबा नहीं होना चाहिए था । फ़िल्म का क्लाइमेक्स काफ़ी अस्पष्ट है और नतीजतन यह बुरी तरह से मात खा जाती है । फ़िल्म अचानक खत्म हो जाती है जो समझ के परे है ।

नवाजुद्दीन सिद्दीकी हमेशा की तरह एक सराहनीय प्रदर्शन करते हैं । वह मृदुभाषी और अच्छे स्वभाव के फोटोग्राफर के किरदार में जंचते हैं । लेकिन सान्या मल्होत्रा पूरी लाइमलाइट चुरा ले जाती है और इतना दमदार परफ़ोरमेंस देती है जिससे साबित होता है वह अच्छी अभिनेत्री में से एक है । वह अपने किरदार में पूरी तरह से समाई हुई नजर आती है । फ़ारूख़ जाफ़र पसंद करने योग्य है । गीतांजलि कुलकर्णी प्यारी हैं और फ़र्स्ट हाफ़ में सान्या के साथ उनका दृश्य एक हाईलाइट है । सचिन खेडेकर (मिलोनी के पिता) कामचलाऊ है और उनके ज्यादातर डायलॉग्स सबटाइटल्स के साथ गुजराती है । आकाश सिन्हा (फोटोग्राफर बंके) और सर्वेश कुमार शुक्ल ठीक और प्रामाणिक हैं । जिम सरभ (प्रोफेसर अनमोल) का एक दिलचस्प लुक है । और पर्फ़ोरमेंस के लिहाज अच्छा करते है ।

पीटर रायबर्न के संगीत में फिल्म की तरह एक शांत सा एहसास है । बेन कच्छिन और टिमोथी गिलिस की सिनेमैटोग्राफी रॉ है और मुंबई को बखूबी कैप्चर करती है । नेहा कामरा के बाल और श्रृंगार और निहारिका भसीन की वेशभूषा शानदार है, खासकर सान्या मल्होत्रा के मामले में । श्रुति गुप्ते का प्रोडक्शन डिज़ाइन भी चरित्र के भाव के साथ तालमेल बैठा रहा है। जॉन एफ ल्योंस का संपादन बहुत अधिक खींच रहा है । इसके अलावा कुछ दृश्यों में इंटरकटिंग अपरिपक्व लगती है ।

कुल मिलाकर, फ़ोटोग्राफ़ बहुत ही अलग तरह की और अस्पष्ट फ़िल्म है जिसकी कम चर्चा में रहने के कारण बॉक्सऑफ़िस पर सफ़ल होने की संभावना बेहद कम है ।