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राकेश रोशन द्दारा बनाई गई 'खुदगर्ज' [1987], जिसके साथ राकेश रोशन निर्देशन के क्षेत्र में उतरे, और उसके बाद 'खून भरी मांग' [1988], ये वो फ़िल्में हैं जो 1980 के दशक की सबसे शानदार बदले की कहानी में शुमार थीं, जो मैंने देखी थी । हालांकि फ़िल्म की कहानी का अनुमान लगाना काफ़ी आसान है, रोशन सर ने कहानी को इस तरह से संजोया है कि दर्शक अंत तक सांस रोक कर पूरे ध्यान से फ़िल्म देखेंगे ।

लगभग तीन दशक बाद, रोशन सर के प्रोडक्शन हाउस फ़िल्मक्राफ़्ट ने एक और दिलचस्प बदले की कहानी को प्रस्तुत किया है । इस बार, संजय गुप्ता को स्क्रीन पर दिखाई दिए जाने वाले किरदार में जान डालने की जिम्मेदारी सौंपी गई है । उस दौर की फ़िल्म खून भरी मांग के ट्रेलर की तरह ही काबिल के ट्रेलर देखकर भी दर्शकों को अंदाजा लग जाता है कि उन्हें फ़िल्म में क्या देखने को मिलेगा ।

तकनीकी रूप से चिकनी/उजली फिल्मों के लिए जाने जाने वाले संजय गुप्ता ने काबिल में एक स्मार्ट और दिलचस्प बदले की कहानी को पेश किया है । फ़िल्म की पटकथा का बहुत ही खूबसूरती से निर्माण किया गया है...फ़िल्म के ट्विस्ट और टर्न ध्यान खींचते हैं…फ़िल्म के नाखून काटने वाले सीन आपको गले तक पकड़ते हैं और आप अंत तक उसी स्थिती में रहते हो । हकीकत में आप फ़िल्म का प्लॉट जानते हो, लेकिन गुप्ता आपको, क्या आने वाला है, ये नहीं बताते । इसके अतिरिक्त, काबिल, किसी की

बुद्दिमत्ता का अपमान नहीं करती, बल्कि ये एक ऐसी फ़िल्म है जो दर्शकों को भावनात्मक और बौद्दिक स्तर पर जोड़ती है ।

ज्यादा खुलासा किए बिना, चलिए अब फ़िल्म की कहानी के बारें में बात करते हैं… काबिल, रोहन [ह्रितिक रोशन] और सुप्रिया [यामी गौतम] की कहानी को दर्शाती है । दोनों को, एक-दूसरे के साथ में बहुत खुशी और आनंद मिलता है । रोहन संघर्ष करने क फ़ैसला करता है, लेकिन उसके विरोधी, माधव [रोनित रॉय] और उनके भाई अमित [रोहित रॉय] बहुत ही शक्तिशाली और प्रभावशाली हैं । क्या वह उनसे जीत पाने में सक्षम होगा ?

गुप्ता अपनी फिल्मों में पश्चिमी प्रभाव के लिए जाने जाते हैं, लेकिन काबिल में, भावनाओं के प्रति झुकाव ज्यादा है बजाए कलर टोन और कैमरा एंगल के । काबिल का भावनात्मक पहलु काफ़ी जबरदस्त है, और जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है उसका मुख्य लक्ष्य एकदम साफ़-साफ़ नजर आता है कि कहानीकार चाहता है कि दर्शक, नायक (ह्रितिक) से जुड़ें और खलनायक (रोहित रॉय और रॉनित रॉय) से नफ़रत करें । हालांकि कहानी एकदम प्रमाणिक/चिर-परिचित सी दिखती है, पर गुप्ता और विजय कुमार मिश्रा ने उन सब तौर तरीकों से बचने की कोशिश की है जो इस तरह की फ़िल्मों में दर्शकों के लिए जाने पहचाने से हैं । कबिल में, खलनायक उतना ही स्मार्ट था जितनी की नायक, लेकिन बहुत ज्यादा बेरहम, लेकिन नायक कैसे उन्हें कब्जे में लेकर मात दे देता है, यही इस फ़िल्म की खासियत है ।

काबिल फ़िल्म प्रेमियों को मनोरंजन के क्षेत्र में जरा भी निराश नहीं करती है और अगर मैं ऐसा कह सकता हूं कि, पूरी फ़िल्म की अवधि के दौरान इस फ़िल्म में सिनेप्रेमियों का ध्यान खींचने के लिए पर्याप्त योग्य सामग्री शामिल है । फ़िल्म में शांत हास्य के साथ संतुलित भावनात्मक अंश, तनाव भरे क्षण, हैरत अंगेज एक्शन सीन [घूंसा मारने की लड़ाई, शूटआउट, विस्फोट] और नि;संदेह, नाटकीय सीक्वेंस में बहुत तेज और

प्रभावशाली डायलॉग [संजय मासूम द्वारा लिखे गए] हैं । अंत में,यह फ़िल्म नायक की एक भावनात्कम कहानी है जो एक आंकड़े के रूप में आपकी याददाश्त में लंबे समय तक ठहर जाती है ।

फ़िल्म में मामूली सी गड़बड़ियां हैं अन्यथा एक निर्बाध कहानी है । लेखन के दृष्टिकोण से मध्यांतर के बाद का भाग थोड़ा और अधिक प्रेरक हो सकता था । ह्रितिक की रणनीतियों में, कुछ जगहों पर, बहुत सरल तौर पर नायक का प्रभुत्व दिखया गया है ।

फ़िल्म का साउंडट्रैक [राजेश रोशन] फ़िल्म के मूड के साथ बहुत ही खूबसूरती से मिल जाता है । असल में, इस फ़िल्म में दो पुराने सदाबहार गानों [ 'सारा ज़माना' और 'दिल क्या करे'] को संगीतकार ने नए कलेवर में बहुत ही बेहतर ढंग से पेश किया गया । बाकी के गाने भी सुरीले लगे, विशेषरूप से फ़िल्म का टाइट सॉंग 'मोन अमोर' । 'सारा ज़माना' और 'मोन अमोर' की कोरियोग्राफी [अहमद खान] विशेष रूप से शानदार है । बैकग्राउंड स्कोर [सलीम-सुलेमान] खूबसूरती से कहानी में गूंथा हुआ है, और यह फ़िल्म के अनेक प्रासंगिक सीन को बढ़ाता है ।

फ़िल्म का छायांकन [सुदीप चटर्जी, अयानका बोस] उच्च स्तर का है । यह फ़िल्म दृष्टिगत रूप से शानदार है । फ़िल्म के एक्शन सीन [शाम कौशल] पर्याप्त प्राणपोषक क्षणों को प्रदान करता है और रोमांच से भरे हैं--जो सिनेप्रेमियों को काफ़ी पसंद आएंगे । अधिकांश भागों के लिए संपादन [अकीव अली] तीक्षण है ।

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ह्रितिक रोशन इस फ़िल्म में बसे हुए हैं । सबसे बड़ी बात ये है कि ह्रितिक रोशन ने इस फ़िल्म में अपने करियर की बेहतरीन परफ़ोरमेंस दी है और यही इस फ़िल्म की सबसे बड़ी शक्ति है, और इस बारें में कोई दूसरा सवाल नही है । वो आपको अलग-अलग अवसरों को अचंभित कर देते हैं, विशेषरूप जव वह एक दुर्घटना के बाद कहजोर प।द जाते हैं और उनकी जिंदगी अस्तव्यस्त हो जाती है । यामी गौतम स्पष्टतः अपने रोल के साथ

ईमानदार रहती हैं और अपने शानदार अभिनय से आपका दिल जीत लेती हैं । उनकी सादगी और मासूमियत फ़िल्म में एक चुंबकीय आकर्षण के रूप में काम करती है । एक शातिर किरदार में रोनित रॉय बेहतरीन लगते हैं । वह एक षड़यंत्रकारी राजनेता के रूप में बेहद डरावने लगते हैं । रोहित रॉय डराने में कामयाब होते हैं और अपनी एक मजबूत छाप छोड़ते हैं । उन्हें और अधिक फ़िल्मों में देखने की जरूरत है ।

नरेंद्र झा बहुत अच्छी तरह से, पूरी समझ के साथ अपने रोल को निभाते हैं । गिरिश कुलकर्णी, जो हाल ही में दंगल फ़िल्म में कोच के रूप में नजर आए थे, बेहद सक्षम है । सुरेश मेनन नॉन कॉमिक किरदार में हैरान कर देते हैं । रॉनित रॉय के दोस्त वसीम के किरदार में सुरेश मेनन सराहनीय है । अखिलेंद्र मिश्रा सही लगते हैं । आइटम नंबर में उर्वशी रौतेला धमाल मचा देती हैं ।

कुल मिलाकर, काबिल, बांधे रखने वाली, पेट में हलचल मचाने वाली और काफ़ी लंबे समय तक याद रहने वाली फ़िल्म है । दंगल के बाद, टिकिट विंडो पर भीड़ करीब-करीब खत्म हो गई है, इस समय बॉक्सऑफ़िस एकदम शांत और ठंडा पड़ा हुआ है ऐसे में काबिल को थिएटर की सीट भरने में, कोई परेशानी नहीं आनी चाहिए बावजूद इसके कि इसके साथ एक और बड़ी फ़िल्म रिलीज हो रही है । योग्यता के आधार पर यह फ़िल्म बॉक्सऑफ़िस पर भीड़ जुटाने में और सफ़लता के झंडे गाड़ने की योग्यता रखती है । इस फ़िल्म को जरूर देखने जाइए !

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