एक समय था जब बॉलीवुड में मल्टीस्टारर फ़िल्म काफ़ी ट्रेंड में थी लेकिन फ़िर ऐसा समय आया जब ऐसी फ़िल्मों को अच्छा रि्स्पॉंस नहीं मिला । गोलमाल, हाउसफ़ुल जैसी कुछ फ़्रैंचाइजी इसमें अभी तक अपवाद रही हैं । यहां तक की धमाल फ़्रैंचाइजी भी इसमें बाजी मार ले जाती है और इसकी हालिया रिलीज हुई फ़िल्म टोटल धमाल ने बॉक्सऑफ़िस पर सफ़लता के नए झंडे गाड़े । ऐसी ही एक मल्टीस्टारर फ़िल्म इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई है, कलंक । इस फ़िल्म में कई बड़े और दिग्गज सितारें लीड रोल में नजर आएंगे । तो क्या कलंक हिट मल्टीस्टारर फ़िल्मों में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो पाती है, या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाती है, आइए समीक्षा करते है ।
कलंक एक ऐसे प्रेमी-प्रेमिकाओं की कहानी है जिनका साथ होना उनकी नियती में ही नहीं है । ये साल है 1945 । देव चौधरी (आदित्य रॉय कपूर) की पत्नी सत्या चौधरी (सोनाक्षी सिन्हा) को कैंसर है और उसे बताया गया है कि उसके पास अब जीने के लिए सिर्फ़ एक ही साल या अधिकतम दो साल हैं । सत्या यह जानकर कि देव उसके निधन के बाद बिखर जाएगा, वह उसके लिए दूसरी पत्नी खोजने का फैसला करती है । उसकी खोज उसे राजपूताना, राजस्थान में ले जाती है जहाँ रूप (आलिया भट्ट) रहती है । रूप और सत्या के परिवार का काफ़ी पुराना नाता रहा है । रूप पहले सत्य के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है लेकिन उसकी बीमारी जानने के बाद, वह सहमत हो जाती है । हालाँकि, उसकी एक शर्त है - देव को पहले उससे शादी करनी होगी और उसके बाद ही वह चौधरी के घर में रहने जाएगी । सत्य, देव और देव के पिता बलराज (संजय दत्त) रूप की इस शर्त से सहमत हो जाते हैं । देव और रूप की शादी हो जाती है और शुरूआत में ही ये साफ़ कर दिया जाता है कि यह शादी महज एक समझौता है । विवाह के बाद, रूप लाहौर के पास हुस्नाबाद चली जाती है जहाँ चौधरी रहते हैं । शुरूआत में वह खुद को अकेला महसूस करती है लेकिन फिर बहार बेगम (माधुरी दीक्षित) की आवाज सुनकर उत्सुक हो जाती है । वह अपने अकेलेपन को मिटाने के लिए संगीत सीखने का फैसला करती है । सत्या और घर के अन्य लोग रूप के इस फैसले को सुनकर पहले इंकार कर देते हैं क्योंकि बहार बेगम एक तबायफ़ है जो एक वेश्यालय चलाती है और वो वेश्यालय शहर का बदनाम इलाका है जिसे हीरा मंडी कहा जाता है । रूप जिद पर अड़ जाती है जिसके बाद चौधरी परिवार से इजाजत दे देता है । इस बीच बहार, रूप से प्रभावित हो जाती है और उसे गायन सिखाने का फैसला करती है । हीरा मंडी में, रूप चुलबुले ज़फर (वरुण धवन) से टकराता है। दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाते हैं । ज़फ़र एक लुहार है और अब्दुल (कुणाल खेमू), जिसकी सांप्रदायिक मानसिकता है, के लिए काम करता है । वह देव के अखबार डेली टाइम्स के खिलाफ भी है जो एक राष्ट्र सिद्धांत के विचार को बढ़ावा देता है, विभाजन की धारणा को खारिज करता है । साथ ही हीरा मंडी में स्टील इंडस्ट्री आने का बहिष्कार करता है क्योंकि इससे उनके लु्हार व्यवसाय पर असर पड़ेगा । बहार को समझ आ जाता है कि जफ़र रूप की ओर आकर्षित हो रहा है वह उसे आगाह करती है । आखिरकार, वह जान जाती है कि रूप का रोमांस करने के पीछे ज़फर का मकसद क्या है और जफ़र का ऐसा करने से उसे कितने भयानक परिणाम से भुगतना पड़ सकता है । इसके बाद क्या होता है, यह आगे की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।
शिबानी बाथिजा की कहानी घटिया और मूर्खतापूर्ण है और बारीक प्लॉट पर टिकी हुई है । रूप-ज़फ़र के ट्रैक को छोड़कर, कहानी के अन्य सभी किरदारों की कहानी को नहीं दर्शाया गया जिसकी वजह से कई कमियां रह जाती है । अभिषेक वर्मन की पटकथा इस कमी से निकलने के लिए कोई प्रयास भी नहीं करती है । जल्दी से दृश्यों को खत्म करने के बजाय, वह उन्हें और आगे बढ़ने देते है । और इसलिए वह इन खामियों की भरपाई करने से चूक जाते है । हुसैन दलाल के डायलॉग्स कई जगहों पर काफी अच्छे हैं । लेकिन कुछ दृश्यों में, यह बहुत फिल्मी है और यहां तक कि अनजाने में हंसी भी ला सकते है ।
अभिषेक वर्मन का निर्देशन उच्च स्तर का नहीं है । वह अपने निर्देशन की पहली फिल्म, 2 स्टेट्स [2014] में काफी नियंत्रण में थे । लेकिन कलंक के मामले में, वह मात खा जाते हैं । वैसे भी जब स्क्रिप्ट ही त्रुटिपूर्ण हो तो वह ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे । लेकिन यह कहना जरूरी है कि फ़िल्म का क्लाइमेक्स बेहद आकर्षक है और वह इस दौरान फिल्म की दृश्य भव्यता को अच्छी तरह से संभालने में सक्षम है ।
प्रसिद्द और लोकप्रिय ट्रेडमार्क कार्ड धर्मा प्रोडक्शंस की कलंक की शुरूआत काफ़ी आश्चर्यजनक होती है लेकिन यह अपनी सामान्य स्टाइल में पेश नहीं होती है । फिल्म से जुड़े तीन प्रोडक्शन हाउस का जिक्र जल्दी से हो जाता है और फिल्म शुरू हो जाती है । इसके अलावा फ़िल्म में इसकी मुख्य स्टारकास्ट को बिना उनका चेहरा दिखाए स्मार्ट तरीके से दर्शाया गया है । इससे सभी को यह विश्वास हो सकता है कि एक फिल्म को एक शानदार पटकथा और निष्पादन के साथ देखा जा सकता है । कुछ ही समय में, यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा नहीं होने जा रहा है । फिल्म के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें होने वाले अधिकांश घटनाक्रम समझ के परे हैं । शुरुआत में ही, दर्शकों को इस बात पर आश्चर्य होगा कि सत्या एक दुल्हन की खोज के लिए राजपुताना ही क्यों गई थी । रूप ने सत्य को याद दिलाया था कि उनकी पूर्व फ़ैमिली मेंबर्स ने उनके फ़ैमिली की काफ़ी मदद की थी लेकिन इसकी कोई जानकारी नहीं दी गई इसलिए यह समझ के परे लगता है । यह काफ़ी हास्यपद है कि जफ़र ने कभी देव चौधरी का चेहरा ही नहीं देखा जबकि देव उस इलाके का प्रमुख व्यक्ति है और जफ़र की देव के साथ एक आपसी रंजिश भी है । औद्योगीकरण के खिलाफ और एक अलग राष्ट्र के लिए विद्रोह करने वाले लुहारों का पूरा ट्रैक भी बनावटी लगता है । अब्दुल देव के अखबार में प्रकाशित होने वाली खबरों को लेकर इतना असुरक्षित क्यों था ? चलो मान लेते हैं कि देव की अखबार डेली के पास बड़ी तादाद में पाठक है । लेकिन यह प्रचलन में एकमात्र अखबार नहीं हो सकता है ? वह अपना एजेंडा फैलाने के लिए दूसरे अखबारों की मदद ले सकता था । फिल्म काफ़ी लंबी लगती है और कुछ दृश्यों को दूर किया जा सकता था । उदाहरण के लिए बुल फ़ाइट सीन, का कोई मतलब ही नहीं था, इसे सिर्फ़ दर्शक जुटाने के लिए जोड़ा गया । वहीं फ़िल्म का पॉजिटिव साइड ये है कि इसके कुछ सीन बहुत अच्छी तरह से निर्देशित किए गए है । जैसे-इंटरमिशन प्वाइंट, हालांकि अंदाजा लगाने योग्य था, देखने योग्य है । बहार बेगम, बलराज और जफ़र का सीन, जो सेकेंड हाफ़ में आता है, काफ़ी नाटकीय है । इसके अलावा क्लाइमेक्स सीन और रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ दर्शकों को बांधे रखती है ।
वरुण धवन और आलिया भट्ट इस फ़िल्म को एक बड़ी फ़्लॉप होने से काफ़ी हद तक बचाते है । वरुण धवन हमेशा की तरह बेहतरीन प्रदर्शन देते है और अपने किरदार को अपना शत प्रतिशत देते है । वह कहीं-कहीं हास्य भी लेकर आते है । क्लाइमेक्स में वह छा जाते हैं । आलिया भट्ट वरुण की तरह अपना बेहतरीन करती है लेकिन वह कमजोर लेखन की वजह से मात खा जाती है । यकीनन उनके पास सभी छ कलाकारों में सबसे ज्यादा स्क्रीन टाइम मिलता है और जिसका वह भरपूर फ़ायदा उठाती है । आदित्य रॉय कपूर नीरस लगते हैं लेकिन उनका किरदार ही ऐसा है । उनकी डायलॉग डिलीवरी काफी अच्छी है और वरुण के साथ एक सीन में वह काफी अच्छी तरह से दिखाई देती है । सोनाक्षी सिन्हा अच्छी हैं लेकिन उनकी भूमिका उनकी ही फ़िल्म लुटेरा [2013] के सेकेंड हाफ़ की याद दिलाती है । माधुरी दीक्षित काफ़ी खूबसूरत दिखती हैं और बेहतरीन परफ़ोरमेंस देती है । संजय दत्त, स्पेशल एपीरियंस में, ठीक लगते है । कुणाल खेमु (अब्दुल) खलनायक की भूमिका काफ़ी मनोहर ढंग से निभाते हैं । अचिंत कौर (सरोज), हितेन तेजवानी (अहमद) और पावेल गुलाटी (आदित्य; रूप का साक्षात्कार करने वाले पत्रकार) ठीक हैं । किआरा आडवाणी बिल्कुल बेकार चली जाती है । आइटम सॉन्ग में कृति सैनॉन काफ़ी ग्लैमरस लगती हैं ।
प्रीतम का संगीत और बेहतर हो सकता था । 'घर मोर परदेसिया' और उसके बाद 'तबाह हो गया' प्रभाव छोड़ते हैं । टाइटल ट्रैक को बैकग्राउंड में प्ले किया जाता है । 'फर्स्ट क्लास’ आकर्षक है और 'रजवाडी ओढ़नी’ ठीक है, लेकिन ये एक के बाद एक ही आ जाते है । 'ऐसा गेरा' जबरदस्ती जोड़ा गया है । संचित बलहारा और अंकित बलहारा का बैकग्राउंड स्कोर नाटकीय है और प्रभाव को जोड़ता है ।
बिनोद प्रधान की सिनेमैटोग्राफी मनोरम है और इसमें बड़े परदे की अपील है । अमृता महल नकई का प्रोडक्शन डिज़ाइन अवास्तविक है और हालाँकि यह संजय लीला भंसाली की एक फिल्म की याद दिला सकती है, यह प्रशंसनीय है । हीरा मंडी सेट और विशेष रूप से बहार का तबायफ़खाना आश्चर्यजनक खूबसूरत है । मनीष मल्होत्रा और मैक्सिमा बसु गोलानी की वेशभूषा अपील कर रही है, लेकिन यह कुछ युगों और कुछ पात्रों की आर्थिक स्थिति के संदर्भ में प्रामाणिक नहीं है । शाम कौशल के एक्शन ठीक हैं और ज्यादा हिंसात्मक नहीं है । रेमो डिसूजा, बोस्को-सीजर और सरोज खान की कोरियोग्राफी सराहना के योग्य है । फ्लुईडमास्क स्टूडियो और NY VFXWaala का VFX समग्र रूप से अच्छा है, लेकिन कुछ स्थानों पर, विशेष रूप से बुल फाइट सीक्वेंस में काफी बुरा है । श्वेता वेंकट मैथ्यू का संपादन बहुत निराशाजनक है क्योंकि यह फिल्म 168 मिनट में काफी लंबी लगती है ।
कुल मिलाकर, कलंक एक ऐसी फ़िल्म है जो दिखने में खूबसूरत है लेकिन इसमें आत्मा की कमी है और इसकी बड़ी वजह है इसका कमजोर लेखन, जरूरत से ज्यादा लंबाई और संगीत । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म जुबानी आलोचना की शिकार बनेगी जिसके चलते इसे दर्शक जुटाने में मुश्किल होगी । शुरूआती उत्साह के बाद इसका बॉक्सऑफ़िस कलेक्शन भी नीचे आएगा । निराश करती है ये फ़िल्म ।