फ़िल्म :- इंस्पेक्टर झेंडे
कलाकार :- मनोज बाजपेयी, जिम सर्भ
निर्देशक :- चिन्मय डी. मंडलेकर
रेटिंग :- 3.5/5
संक्षिप्त में इंस्पेक्टर झेंडे का प्लॉट :-
इंस्पेक्टर झेंडे एक ऐसे जांबाज़ पुलिस अफ़सर की कहानी है जो एक खतरनाक गैंगस्टर को पकड़ने के मिशन पर निकलता है। 16 मार्च 1986 को कार्ल भोजराज (जिम सर्भ), जिसने 32 हत्याएं की हैं, दिल्ली की तिहाड़ जेल से अपने साथियों डेविड जोन्स (पीटर डिलाइट), ललित खताना (देवांग बग्गा), रतन तोमर (अजीत सिंह पहलावत) और सुभाष त्यागी (सुकुमार तुडू) के साथ फरार हो जाता है। इसके बाद महाराष्ट्र के डीजीपी चंद्रकांत पुरंदरे (सचिन खेडेकर) मुंबई पुलिस के ईमानदार अफ़सर माधुकुर जेंडे (मनोज बाजपेयी) को इस खतरनाक अपराधी को पकड़ने का ज़िम्मा सौंपते हैं। इस मिशन के लिए जेंडे को इसलिए चुना जाता है क्योंकि साल 1971 में जब कार्ल छोटा-मोटा चोर था, तब उसे रंगे हाथों पकड़ने वाला वही था। लेकिन अब वही कार्ल खतरनाक क़ातिल बन चुका है। ख़तरा बहुत बड़ा है, फिर भी जेंडे इस चुनौती को स्वीकार करता है। इस मिशन में उसके साथ बहादुर अफ़सर पाटिल (भालचंद्र कदम), जैकब (हर्ष दुहाडे), देशमाने (नितिन भजन), नाईक (भरत सावले) और पाटेकर (ओंकार राउत) जुड़ते हैं। हालांकि ये पांचों अफ़सर एक गुप्त और अनौपचारिक मिशन पर हैं। यानी उन्हें कार्ल को पकड़ना है, लेकिन दूसरे इलाकों की पुलिस से आधिकारिक मदद नहीं ले सकते। इसके बाद क्या होता है, यही फ़िल्म की आगे की कहानी है।
इंस्पेक्टर झेंडे मूवी रिव्यू :-
चिन्मय डी मंडलेकर की लिखी हुई यह कहानी सच्ची घटनाओं से प्रेरित है। उनका स्क्रीनप्ले मनोरंजक है जिसमें भरपूर हास्य और नयापन देखने को मिलता है। वहीं, उनके डायलॉग्स फिल्म की मस्ती और पागलपन को और बढ़ा देते हैं।
चिन्मय डी मंडलेकर का निर्देशन काबिले-तारीफ है। आमतौर पर सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्में गंभीर हो जाती हैं, खासकर जब कहानी किसी बेरहम अपराधी के इर्द-गिर्द घूम रही हो। लेकिन इंस्पेक्टर जेंडे में कई मज़ेदार पल हैं, जो गंभीर विषय होने के बावजूद माहौल को हल्का बनाए रखते हैं। किरदार अच्छी तरह गढ़े गए हैं और मेकर्स ने फिल्म की लंबाई पर भी ध्यान रखा है। महज़ 112 मिनट में कहानी को बिना जल्दबाज़ी किए बखूबी पेश किया गया है। कुछ सीन्स खास तौर पर छाप छोड़ते हैं – 1971 में कार्ल की गिरफ्तारी, पनवेल के होटल में मचती अफरा-तफरी, जेंडे के घर पर पुलिस अफसरों की मीटिंग और जेंडे का दिल्ली के एसीपी व्यास का मज़ाक उड़ाना। फिनाले भी बेहद मज़ेदार है और फिल्म एक जस्टिफाइड नोट पर खत्म होती है।
वहीं कमियों की बात करें तो, मनोज बाजपेयी और गिरिजा ओक (विजया) का रोमांटिक ट्रैक उतना असरदार नहीं रहा, हालांकि इसमें कुछ अच्छे पल ज़रूर हैं। विंटेज कलर टोन देने की कोशिश में टीम कई जगह ज़्यादा आगे बढ़ गई, जिसकी वजह से शुरुआती सीन्स थोड़े अजीब लगते हैं। वीएफएक्स भी औसत दर्जे का है। इसके अलावा, हल्के-फुल्के नैरेटिव की वजह से कई बार दर्शक यह भूल जाते हैं कि कार्ल दरअसल एक खतरनाक क़ातिल है, जिसने 30 से ज़्यादा हत्याएं की हैं। यही वजह है कि कार्ल ज़्यादा डरावना नहीं लगता। इसका असर उस अहम सीन पर भी पड़ता है जहां पाटिल (भालचंद्र कदम) कार्ल के आमने-सामने होते हैं लेकिन फिर भी उसे पकड़ नहीं पाते।
परफॉरमेंस :-
मनोज बाजपेयी ने हमेशा की तरह इस बार भी शानदार अभिनय किया है और अपने हाव-भाव से कई जगह फिल्म के ह्यूमर को और ऊंचाई पर ले जाते हैं। जिम सर्भ अपने किरदार के लिए बिल्कुल सटीक साबित हुए हैं और उन्होंने बेहतरीन और स्टाइलिश परफॉर्मेंस दी है। सचिन खेडेकर ने मजबूत सपोर्ट दिया है, वहीं गिरिजा ओक स्क्रीन पर बेहद प्यारी लगी हैं। पुलिस अधिकारियों के किरदारों में सबसे ज्यादा असर भालचंद्र कदम का रहा। हर्ष दुहाडे अपने किरदार की खासियत के चलते अलग नजर आते हैं। नितिन भजन, भरत सावले और ओंकार राउत ने ठीक-ठाक काम किया है। वैभव मांगले (फोंसेका) अपने कॉमिक टाइमिंग से मज़ेदार लगे। पीटर डिलाइट और अश्वथ भट्ट (एसीपी व्यास) ने भी अपनी छाप छोड़ी, लेकिन सुकुमार तुडू, देवांग बग्गा और अजीत सिंह पहलावत को ज्यादा स्कोप नहीं मिला।
इंस्पेक्टर झेंडे मूवी का म्यूज़िक और टेक्निकल पहलू :-
संकट साने का म्यूज़िक कहानी के साथ अच्छे से जुड़ा हुआ है, लेकिन गाने ‘माझी बायगो’ और ‘चार्ली बेबी’ ज्यादा यादगार साबित नहीं होते। केतन सोधा का बैकग्राउंड स्कोर रेट्रो अंदाज़ लिए हुए है और फिल्म को सही टोन देता है।
विशाल सिन्हा की सिनेमैटोग्राफी संतोषजनक है। रियाज़ शेख और हबीब सैयद का एक्शन कहीं भी ज्यादा हिंसक नहीं लगता। फैंटम डिजिटल इफ़ेक्ट्स का वीएफएक्स, जैसा पहले भी जिक्र हुआ, औसत दर्जे का है। मनीष शेरला के कॉस्ट्यूम्स (प्रियंका कैस्टेलिनो की स्टाइलिंग के साथ) असली अहसास दिलाते हैं। यही बात राजेश चौधरी के प्रोडक्शन डिज़ाइन पर भी लागू होती है। मेघना मंचंदा सेन की एडिटिंग स्मार्ट और क्रिस्प है।
क्यों देंखे इंस्पेक्टर झेंडे ?
कुल मिलाकर,इंस्पेक्टर झेंडे असल जिंदगी से प्रेरित घटनाओं और मज़ेदार कहानी कहने का एक फ्रेश कॉम्बिनेशन है। यह फिल्म अपने ह्यूमर, छोटे और सटीक रनटाइम तथा दमदार अभिनय—खासकर मनोज बाजपेयी और जिम सर्भ—की वजह से अलग छाप छोड़ती है।