यह अक्सर कहा जाता है कि, सपने को पूरा करने में केवल टेलेंट काम नहीं करता है बल्कि भाग्य भी इसमें काफ़ी अहम रोल प्ले करता है । नतीजतन, जिसके पास प्रतिभा तो भर-भर कर है लेकिन उसकी किस्मत उसका साथ नहीं दे रही है, वो इस क्षेत्र में काफ़ी संघर्ष करते है । लेकिन उनमें से भी कुछ ऐसे जुझारु लोग हैं, जो अपने सपनों को पूरा करने में हार नहीं मानते है और झक मारकर किस्मत को भी उनका साथ देना ही होता है । अतुल मांजरेकर के निर्देशन में बनी फ़िल्म फन्ने खान, ऐसे ही पहलुओं को दर्शाती है और कई दिल को छू लेने वाले और मजेदार पलों को दर्शाती है । तो क्या, फन्ने खान दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब हो पाती है या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाती है ? आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : फन्ने खान

फन्ने खान एक ऐसे पिता की कहानी है जो अपनी बेटी को स्टार बनने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है । प्रशांत शर्मा उर्फ फ़न्ने खान (अनिल कपूर) मुंबई में एक स्थानीय ऑर्केस्ट्रा में गायक थे, जिसे अपनी बेटी लता (पिहु सांड) के पैदा होने पर अपने गायन को छोड़न पड़ा । अब जबकि लता 20 साल की होने वाली है और फ़न्ने खान एक फ़ैक्ट्री में काम कर रहा है । वहीं लता सेंसेशनल सिंगल बेबी सिंह (ऐश्वर्या राय बच्चन) की जबरदस्त फ़ैन है और उसके जैसा बनना चाहती है । लेकिन लता अपना ये सपना पूरा नहीं कर पाती है क्योंकि जब भी वह गायन प्रतियोगि्ताओं में भाग लेने का प्रयास करती है, वहां उसके बढ़े हुए वजन का मजाक बनाया जाता है और उसे सभी मोटी-मोटी कहकर चिढ़ाते है जिससे उसका मनोबल टूट जाता है । इसके बाद फ़न्ने खान पैसा बचाता है और अपनी बेटी के लिए एक एलबम बनाने का सपना देखता है । हालांकि इन सबके लिए उसके पास पैसा काफ़ी कम है । और एक दिन उस पर दुखों का पहाड़ टूट जाता है जब उसकी फ़ैक्ट्री, जिसमें वो काम करता है, अचानक बंद हो जाती है । लेकिन इसके बाद फ़न्ने खान टैक्सी ड्राइवर बन जाता है । एक दिन उसकी पैंसेजर बनकर आती है सिंगर बेबी सिंह । फ़न्ने खान बेबी सिंह को बजाए उसकी बताई लोकेशन पर छोड़ने, किडनैप कर उसी बंद फ़ैक्ट्री में ले जाता है । और इसमें उसकी मदद करता है उसका सहयोगी अधीर (राजकुमार राव) । ये दोनों मिलकर बेबी सिंह का अपहरण कर लेते है और उसके मैनेजर कक्कड़ (गिरीश कुलकर्णी) को फ़ोन करते है और बेबी सिंह के अपहरण की सूचना देते है । लेकिन इन सब में वे फ़िरौती की मांग नहीं करते है । इसके बाद क्या होता है, ये आगे की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

फ़न्ने खान, दरअसल एक बैल्जियम फ़िल्म इडरियन बेरोमड उर्फ एवरीबॉडीज़ फैमस [2000] का ऑफ़िशियली रीमेक है । जहां ऑरिजनल फ़िल्म काफ़ी छोटी थी और उसमें डार्क कॉमेडी थी वहीं फ़न्ने खान अपनी धुन में चलती है और काफ़ी नाटकीय लगती है । जहां कुछ जगह ये काम कर सकती है वहीं कुछ को ये समझ से परे लगेगी । अतुल मांजरेकर, हुसैन दलाल और अब्बास दलाल की पटकथा कुछ जगहों पर कमजोर है लेकिन कुछ जगहों पर अच्छी है । हुसैन दलाल, अब्बास दलाल, जसमीत के रीन और अथार नवाज के संवाद सरल हैं लेकिन कुछ दृश्यों में काफी मजाकिया हैं ।

अतुल मांजरेकर का निर्देशन और भी बेहतर हो सकता था और जिससे यह फ़िल्म और भी बेहतर बन जाती । इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने कुछ सीन तो बेहद शानदार तरीके से हैंडल किए है । हालांकि, कई जगहों पर वह कहानी से भटक जाते है । शुरूआत में फ़िल्म की कहानी काफ़ी तर्कहीन है और इसे एक विशेषज्ञ हाथ की आवश्यकता है जो इसे तर्कशील बनाए । दुर्भाग्यवश, अतुल आंशिक रूप से अपने प्रयास में विफल रहते है ।

फ़न्ने खान की शुरुआत काफ़ी अच्छी है और फिल्म के मूड को सेट करती है । हालांकि फ़िल्म का परिचय उतना प्रभाशाली नहीं है । हालांकि अधीर और जिनाल (स्वाती सेमवाल) का ट्रैक काफ़ी दिलचस्प है । फ़िल्म तब रफ़्तार पकड़ती है जब अपहरण का सीन आता है । जिस तरीके से फ़न्ने खान और अधीर, बेबी सिंह को डराने का व्यर्थ प्रयास करते हैं, उसे देखना वाकई मजेदार है । सेकेंड हाफ़ में, फ़िल्म फ़िर से अपनी गति खो देती है और फ़िर दर्शक केवल क्लाइमेक्स का इंतजार करते है । फ़िल्म का क्लाइमेक्स दर्शकों के कुछ वर्ग को पसंद आएगा । लेकिन कुछ लोगों को ये तर्कहीन लग सकता है ।

फ़िल्म में हालांकि प्रदर्शन बहुत अच्छा है, जिससे फिल्म को काफ़ी मदद मिलती है । अनिल कपूर काफ़ी बेहतरीन प्रदर्शन देते है और कह सकते हैं कि वह फ़िल्म की आत्मा है । फ़िल्म के इमोशनल सीन उनकी वजह से दिल में उतर जाते है । कोई भी उनके दर्द को महसूस कर सकता है लेकिन उनकी मदद नहीं कर सकता, लेकिन उनके लिए शोर कर सकता है, जबकि सब जानते हैं कि उन्होंने जो किया है वह सही नहीं है, फ़िर भी । राजकुमार राव वास्तव में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देते हैं और बहुत ही प्यारे लगते हैं । ऐश्वर्या राय बच्चन बेहद खूबसूरत दिखती हैं और फ़िल्म में अपने सपोर्टिंग रोल से काफ़ी मदद करती है । पिहू सांड कई जगह काफ़ी चिड़चिड़ी सी लगती है लेकिन क्लाइमेक्स में वो अपना बेहतरीन प्रदर्शन देकर सब कुछ कवर कर लेती है । दिव्य दत्ता (कविता) हमेशा की तरह काफ़ी भरोसेमंद है । हमेशा की तरह गिरीश कुलकर्णी नकारात्मक हिस्से को काफ़ी अच्छी तरह से निभाते हैं । सतीश कौशिक (कादर भाई) का एक दिलचस्प हिस्सा है लेकिन वो बर्बाद हो जाता है । बार्बी राजपूत (रिया), स्वाती सेमवाल और असिफ बसरा अपने-अपने रोल में सभ्य हैं ।

गीत उन सीक्वंस के लिए उपयुक्त हैं जिनमें वे दिखाई देते हैं लेकिन ये और भी बेहतर हो सकते थे क्योंकि यह फ़िल्म एक म्यूजिकल फ़िल्म है । 'अच्छे दिन' सभी गानों में बेहतर है । 'तेरे जैसे तू है' भी अच्छा है और ये काफ़ी अहम मोड़ पर आता है । 'मोहब्बत' गाना ऐश्वर्या का अच्छा परिचय देता है । 'फ़ु बे फ़ु' के बोल काफ़ी अच्छे है । 'हल्का हल्का' फिल्म का सबसे असहज हिस्सा है क्योंकि यह एक प्रमुख गायक को दर्शाता है, जिसके अपहरण से पूरा देश हिल गया है । टब्बी - पारिक का पृष्ठभूमि स्कोर फिल्म के विभिन्न मूड के साथ अच्छी तरह से काम करता है ।

एस तिरु का छायांकन काफी प्रभावी है । हालांकि अजय विपिन का प्रोडक्शन डिजाइन कुछ खास नहीं है, लेकिन फ़न्ने खान के घर के सीन जंचते है । मोनीशा आर बलदावा का संपादन पास योग्य है । एका लखानी और मनीष मल्होत्रा के परिधान आकर्षक हैं, खासतौर पर ऐश्वर्या द्वारा पहनी गई ड्रेस ।

कुल मिलाकर, फ़न्ने खान अजीब सी और अनसुलझी कहानी से गूंथी हुई है । लेकिन फ़िल्म के कुछ इमोशनल और मजेदार पल और कुछ जबरदस्त परफ़ोरमेंस इस फ़िल्म को अच्छा व मनोरंजक बनाती है ।