एक दशक से भी अधिक समय से, हमारे फिल्म मेकर्स छोटे शहरों, खासकर उत्तर भारत में अपनी फ़िल्म को सेट करना ज्यादा पसंद करते हैं । ऐसी जड़वत कहानियां ज्यादा समय तक काम करती है, खासकर यदि वे पर्याप्त मनोरंजन प्रदान करे तो । इसका सशक्त उदाहरण रहीं हालिया रिलीज फ़िल्म, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स, सुल्तान और दंगल, इन फ़िल्मों की सफ़लता ने यह साबित कर दिया है कि कैसे 'देसी' तड़के वाली फ़िल्म का तहे दिल से स्वागत किया जाता है । इस हफ़्ते रिलीज हुई फ़िल्म 'बरेली की बर्फ़ी' यूपी के बरेली शहर पर बेस्ड है, जैसा की टाइटल से पता चलता है, जारी हुए प्रोमो में काफ़ी मनोरंजक लगती है । तो क्या यह दर्शकों को गुदगुदाने में कामयाब होगी या फ़िर फ़्लॉप होती फ़िल्मों में एक और फ़्लॉप बन जाएगी, आइए समीक्षा करते है ।

बरेली की बर्फ़ी की कहानी एक प्रिंटिग प्रेस मालिक के बारें में है, जो एक लड़की, जिससे वह प्यार करता है, को लुभाने के लिए अनूठी योजना तैयार करता है, लेकिन उसका ये आइडिया उल्टा हो जाता है । चिराग दुबे (आयुष्मान खुराना) उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में एक प्रिंटिंग प्रेस चलाता है । दिल टूटने के बाद, वह उस लड़की, जिससे वह प्यार करता है, के ऊपर 'बरेली की बर्फ़ी' नाम की एक किताब लिखता है । उसे यह डर सताता है कि यदि वह अपने नाम से किताब लिखेगा तो वह लड़की उसे निंदित करेगी। इसलिए वह अपने शर्मीले, गंभीर, मृदुभाषी दोस्त प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव), को उस किताब के लेखक के रूप में पेश करता है । यह किताब नहीं चलती है, लेकिन पांच साल बाद, शहर की सबसे कूल लड़की बिट्टी (कृति सैनॉन), रेलवे स्टेशन से इस किताब को खरीदती है । ट्रेन में, बिट्टी उस किताब बरेली की बर्फ़ी को पढ़ती है और ये पढ़कर हैरान हो जाती है कि किताब में उल्लखित लड़की हू-ब-हू वैसी ही है जैसी वो है, एकदम जिंदादिल, ब्रेक डांस लवर, स्मोकर, फिल्म बफ और प्रगतिशील है । वह तुरंत बरेली लौटती है और चिराग से मिलती है, क्योंकि उसने उस किताब को प्रिंट करवाया था, और उससे प्रीतम की कॉंटेक्ट डिटेल के बारें में पूछती है, क्योंकि वह उस किताब से उसे काफ़ी प्रभावित किया । चिराग ये बताने में असमर्थ होता है कि 'बरेली की बर्फ़ी' का लेखक वह खुद है न कि प्रीतम । तब चिराग एक प्लान बनाता है- वह प्रीतम से मेकओवर करने, बिट्टी से मिलने और फ़िर उसका दिल तोड़कर भाग जाने के लिए कहता है । इस मोड़ पर, चिराग सफ़लतापूर्वक बिट्टी को लुभा लेगा ले्किन दुख की बात ये है कि ऐसा होता नहीं है और बिट्टी धीरे-धीरे प्रीतम के प्यार में पड़ जाती है । चिराग इस स्थिती को कैसे संभालता है, यह सब फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

बरेली की बर्फ़ी की शुरूआत काफ़ी अच्छे तरीके से होती है और किरदारों का परिचय काफ़ी अच्छी तरह से कराया जाता है । लेकिन फ़िल्म असल में सही मायने तब आगे बढ़ती है जब फ़िल्म की कहानी में प्रीतम की एंट्री होती है । उनका ट्रांसफ़ोरमेशन और कई मायनों में, उसकी पूरी प्रक्रिया काफ़ी मजेदार है, और यही फ़िल्म का सबसे बेहतरीन भाग है । फ़र्स्ट हाफ़ में चिराग-बिट्टी के सीन इतने अच्छे नहीं है लेकिन देख सकते हैं । एक सीन बहुत ही अच्छा है जब बिट्टी चिराग का जन्मदिन मना रही होती है । इंटरवल के बाद, शुरूआत में चीजें अच्छी लगती है । कॉमेडी और नाटकीय सीन लगातार चलते हैं और मनोरंजित करते हैं लेकिन एक समय पर आकर फ़िल्म खींचने लगती है । बरेली की बर्फ़ी, इतनी असंगत नहीं है, लेकिन फिर भी, कुछ पहलुओं को हजम करना मुश्किल लगता है । जैसे- चिराग ने अपना उपन्यास लिखने के लिए उपनाम का उपयोग क्यों नहीं किया ? उनका किरदार को दबंग दिखाया गया है, जो प्रीतम को आतंकित करने और परेशान करने में कोई कसर नहीं छोडता है । फ़िर भी, वह बिट्टी को ये बताने में साहस नहीं जुटा पाता है कि वह उससे कितना प्यार करता है । फ़िल्म के अंत में कुछ ट्विस्ट है जिससे दर्शक अनजान है और यह एक राहत लाता है क्योंकि क्लाइमेक्स घिसा-पिटा होने जा रहा था । लेकिन ट्विस्ट के पीछे स्पष्टीकरण देना, एक बार फ़िर से फ़िल्म को दुविधाग्रस्त बना देता है ।

बरेली की बर्फ़ी निकोलस बारुओ द्वारा लिखे गए उपन्यास 'द इन्ग्रीडीअन्ट ऑफ़ लव' से प्रेरित है । नितेश तिवारी और श्रेयस जेन की कहानी कमजोर है और इसे चमकने की जरूरत थी । नितेश तिवारी और श्रेयस जैन की पटकथा कुछ जगहों पर प्रभावी है, लेकिन इसके बाद भी यह खींची-खींची सी लगती है । नितेश तिवारी और श्रेयस जैन के संवाद हालांकि बहुत अच्छे हैं और जो कि संभवत: फिल्म की सबसे अच्छी बात है । अश्वनी अय्यर तिवारी का निर्देशन सीधा और सरल है और यही उनकी सबसे बड़ी जीत है । लेकिन निर्देशक, जिसने बीते साल नील बट्टे सन्नाटा जैसी फ़िल्म बनाई थी, इस फ़िल्म के साथ और भी अच्छा काम कर सकते थे, जिससे फ़िल्म और भी बेहतरीन बन सकती थी ।

आयुष्मान खुराना हमेशा आत्मविश्वास से भरे हुए दिखाई देते हैं और कुछ दृश्यों को काफी अच्छी तरह से निभाते है । वह प्रेमी लड़के और धमकाने वाले (राजकुमार के दृश्यों के साथ) के रूप में काफ़ी जंचते है और यह काफी सराहनीय है । हालांकि उनका दोस्ताना अवतार कहीं कहीं उनकी फ़िल्म मेरी प्यारी बिंदु में किए उनके काम की याद दिलाता है । दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने अपनी बैक-टू-बैक फ़िल्मों में इसी तरह के रोल को निभाया है । कृति सैनॉन बेहतरीन परफ़ोरमेंस देती है और एक छोटे शहर की लड़की के किरदार में खूब जंचती है । वह पूरी तरह से सफ़ल नहीं होती है लेकिन फ़िर भी, यह उनके प्रगतिशील किरदार के लिए काम करती है । राजकुमार बहुत ही बेहतरीन हैं । पहले तो वह इसमें एक शर्मिले, गंभीर आदमी के रूप में सामने आते हैं और एक बड़े बदलाव के बाद वह निर्गामी, भड़कीले अवतार में नजर आते हैं, और दोनों ही अवतार को वह बखूबी निभाते हैं । यदि आगे आने वाले वर्षों में बरेली की बर्फ़ी को याद किया जाएगा, तो यह मुख्य रूप से इस राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेता पंकज त्रिपाठी (नरोत्रम मिश्रा), जो हास्यास्पद है और भावनात्मक दृश्यों में काफ़ी जंचते है, के प्रदर्शन के लिए होगा ! हालांकि उन्होंने ऐसी भूमिकाएं इससे पहले भी निभाई हैं लेकिन वह हमेशा इस बात का ध्यान रख कर, अपना अभिनय करते है । सीमा भार्गव एक अमिट छाप छोड़ती है । बिट्टी के विवाह के दौरान उनका लगातार शेखी बघारना और जिस तरह से वह हरदम चमकती है, वह एक संभावित दुल्हन के रूप में सामने आती है । रोहित चौधरी (मुन्ना) चिराग की साइडकिक के रूप में जंचते है । स्वाति समावाल (माया) के लिए भी ऐसा ही कुछ है ।

फ़िल्म का संगीत याद रखने योग्य नहीं है । 'स्वीटी तेरा ड्रामा' ही एक गाना है जो अच्छा है । प्रीतम के परिवर्तन के मनोरंजक मान्टाश़ के दौरान 'बडास बाबु' को चलाया जाता है । 'नज़्म नज़्म' गाना कोई छाप नहीं छोड़ता है, जबकि 'बैरागी' गाना बेकार हो जाता है । 'ट्विस्ट कमरिया' जबरदस्ती का घुसाया हुआ लगता है, लेकिन चूंकि यह ओपनिंग क्रेडिट देने के दौरान आता है, इसलिए इतना ध्यान नहीं जाता । समीरउद्दीन का पृष्ठभूमि स्कोर बेहद मनोरंजक और उत्थानकारक है ।

गावेक यू आर्य का छायांकन कुछ खास नहीं है, लेकिन सबसे पहला दृश्य काफ़ी अच्छे से कैप्चर किया गया है । चंद्रशेखर प्रजापति का संपादन पचाने योग्य है लेकिन सेकेंड हाफ़ में राह भटक जाता है ।

कुल मिलाकर, बरेली की बर्फ़ी शानदार अभिनय से सजी अपने आप में खास फ़िल्म है लेकिन आकर्षित नहीं करती है । फ़िल्म में ज्यादा बड़े कलाकारों की कमी, प्रमोशन की कमी, शानदार म्यूजिक का अभाव, और सबसे ऊपर टॉयलेट-एक प्रेम कथा का वर्चस्व, होने के कारण इस फ़िल्म को बॉक्सऑफ़िस पर काफ़ी नुकसान झेलना पड़ेगा ।