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हॉलीवुड में असल जिंदगी के राजनेताओं और मंत्रियों की जिंदगी पर अब तक कई फ़िल्में बनाई जा चुकी है । और अब बॉलीवुड में भी ये दौर चल पड़ा है । इससे पहले राजनीति और राजनेता पर बेस्ड कई बॉलीवुड फ़िल्में देखने को मिली लेकिन इसमें से अधिकतर काल्पनिक होती थी लेकिन इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई फ़िल्म, द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की जिंदगी पर आधारिक बायोपिक फ़िल्म है । इसके रिलीज होने से पहले ही इस फ़िल्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया । तो क्या यह फ़िल्म किसी की छवि को खराब करने या सुधारने के बजाए एक मनोरंजक फ़िल्म साबित होगी या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाएगी, आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : द एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉं मनमोहन सिंह की कहानी पर आधारित है । साल 2004 में, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA), जिसके पास भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में एक सशस्क्त पार्टी है, लोकसभा चुनाव जीत जाती है । कांग्रेस की अध्यक्ष और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी (सुज़ैन बर्नर्ट) प्रधानमंत्री बनने के लिए पूरी तरह तैयार हैं । लेकिन विपक्ष इस बात का विरोध करता है क्योंकि वह भारत में जन्मी नागरिक नहीं हैं इसलिए वह भारत के प्रधानमंत्री बनने के योग्य नहीं है । इसलिए सोनिया ऐसे किसी व्यक्ति को तलाशने का फ़ैसला करती है जो सहयोगियों के विश्वास को जीत सके और प्रधानमंत्री के पद को संभाल सके । गहन विचार-विमर्श के बाद, वह डॉ मनमोहन सिंह (अनुपम खेर) से भारत का अगला पीएम बनने के लिए कहती हैं । डॉ सिंह पीएम बनने के लिए मान जाते हैं लेकिन उन्हें जल्द ही ये महसूस हो जाता है कि सभी बड़े फैसले खुद सोनिया गांधी और उनके अधीनस्थ अहमद पटेल (विपिन शर्मा) लेंगे । डॉ मनमोहन सिंह इस बीच पत्रकार संजय बारू (अक्षय खन्ना) को अपना मीडिया सलाहकार बनाते हैं । संजय एक दशक से ज्यादा समय से डॉ सिंह को जानते हैं और उनके प्रति बेहद सम्मान रखते हैं । वह मीडिया में उनकी छवि को मजबूत करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करते हैं । डॉ मनमोहन सिंह हालांकि बहुत मृदुभाषी हैं । वह सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी (अर्जुन माथुर) द्वारा रिमोट नियंत्रित होने के लिए सहमत हैं, जो भारत के अगले प्रधानमंत्री होने की ओर अग्रसर है । आगे क्या होता है यह बाकी की फिल्म देखने के बाद पता चलता है ।

माध्यमिक प्रधान मंत्री संजय बारू के उसी नाम की पुस्तक पर आधारित है। पुस्तक काफी विस्तृत रही होगी, लेकिन मयंक तिवारी, विजय रत्नाकर गुट्टे, कार्ल दुने और आदित्य सिन्हा की कहानी बहुत कमजोर है। मयंक तिवारी, विजय रत्नाकर गुट्टे, कार्ल दुने और आदित्य सिन्हा की पटकथा

ये फ़िल्म, दरअसल संजय बारू द्दारा लिखित किताब, द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के ऊपर आधारित है । पुस्तक काफी विस्तृत रही होगी, लेकिन मयंक तिवारी, विजय रत्नाकर गुट्टे, कार्ल दुने और आदित्य सिन्हा की कहानी बहुत कमजोर है । वही मयंक तिवारी, विजय रत्नाकर गुट्टे, कार्ल दुने और आदित्य सिन्हा की पटकथा भी बहुत कमजोर है । कई दृश्यों के बीच ये फिल्म सिर्फ एक दृश्य से दूसरे दृश्य में कूदती हुई नजर आती है, और इसके बाद उसकी कोई बैकग्राउंड स्टोरी भी नहीं दिखलाई जाती इसलिए दर्शक कुछ भी समझ नहीं पाते है । परिणामस्वरूप, कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं । मयंक तिवारी, विजय रत्नाकर गुट्टे, कार्ल दुने और आदित्य सिन्हा के संवाद अच्छे हैं लेकिन यादगार नहीं हैं ।

विजय रत्नाकर गुट्टे का निर्देशन अदक्ष है । फ़िल्म का विषय निसंदेह आकर्षक है और दर्शकों को खींचता है । लेकिन ऐसे कठिन विषय को हैंडल करने के लिए किसी सक्षम और पारंगत हाथों की जरूरत थी जो इसके साथ सही मायने में न्याय कर पाता । दुख की बात है कि विजय रत्नाकर गुट्ट अपने असंगत निष्पादन से इस फ़िल्म को बेकार कर देते है । वह फ़नी बैकग्राउंड स्कोर के साथ कुछ सीन को हल्का-फ़ुल्का बनाने की कोशिश करते हैं लेकिन इसमें वे मात खा जाते है । शुक्र है कि कुछ सीन को हैंडल करने में कामयाब हुए जैसे, पीएमओ के गलियारों से गुजरते हुए डॉ सिंह को अपने पुराने दिनों को याद करना, संजय का डॉं सिंह को ‘क्यू सेरा सेरा’ को समझाना और संजय और डॉं सिंह की लास्ट मीटिंग ।

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर की सबसे बड़ी खामी यह है कि इस फ़िल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है वो बिना किसी संदर्भ के पेश किया गया है । फ़िल्म के मेकर्स का मानना है कि दर्शक पिछले 15 वर्षों के हर राजनीतिक विकास को आसानी से याद कर पाएंगे । जबकि, ऐसा नहीं होता है । नतीजतन, फिल्म में बहुत सारे सीक्वेंस सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं । डॉ सिंह का संजय बारू को उसके 1991 घपले के बावजूद अपने मीडिया सलाहकार के रूप में नियुक्त करना,राहुल गांधी का अध्यादेश को फ़ाड़ देना, डॉ मनमोहन सिंह का बलूचिस्तान पर चर्चा करना, नटवर सिंह को जॉर्ज बुश के केबिन में जाने की अनुमति नहीं देना, नरसिम्हा राव का हैदराबाद में अंतिम संस्कार करना, जैसे फ़िल्म में ऐसे कई सीन है जिन्हें समझना बेहद मुश्किल है । इसके अलावा, कुछ डायलॉग्स और टर्म्स को म्यूट कर दिया गया है । उनमें से कुछ को सरल संपादन द्वारा पूरी तरह से टाला जा सकता था, लेकिन निर्माताओं ने उन कारणों के लिए ऐसा नहीं किया जो उन्हें सबसे अच्छी तरह से जानते हैं ।

अनुपम खेर और अक्षय खन्ना पूरी फ़िल्म को अपने असाधारण प्रदर्शन से खींच ले जाते है । अनुपम खेर एक सिख के किरदार में पूरी तरह से समा जाते हैं और हर तरफ़ से डॉ मनमोहन सिंह की तरह दिखाई देते है । उनके हाव-भाव,तौर-तरीके, बात करने का ढंग, बॉडी लैग्वेज एकदम सटीक है । अक्षय खन्ना शानदार परफ़ोरमेंस देकर पूरी तरह से छा जाते है । उनका बात करने का ढंग और स्माइल करने का अंदाज पसंद किया जाएगा । सुज़ैन बर्नर्ट एक छोटी सी भूमिका में अपनी एक छाप छोड़ती है । अर्जुन माथुर भी अपने रोल में जंचते है । अहाना कुमरा का मेकअप और लुक काफी शानदार है लेकिन उनका स्क्रीन टाइम न के बराबर है । विपिन शर्मा भरोसेमंद हैं । दिव्या सेठ ठीक हैं । राम अवतार भारद्वाज (अटल बिहारी वाजपेयी) अस्वाभाविक है । विमल वर्मा (लालू प्रसाद यादव), अवतार सैनी (लाल कृष्ण आडवाणी), अनिल रस्तोगी (शिवराज पाटिल), अजीत सतभाई (पी वी नरसिम्हा राव), शिव सुब्रह्मणम (पी चिंदब्रम) और सुनील कोठारी (एपीजे अब्दुल कलाम) ठीक हैं । प्रकाश बेलावादी (माइक) और पीएमओ के अन्य लोगों के पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं है ।

सुदीप रॉय और साधु एस तिवारी के संगीत का फिल्म में कोई स्थान नहीं है । एकमात्र गीत 'ओम शबद' अंतिम क्रेडिट के दौरान प्ले किया जाता है । सुमित सेठी और अभिजीत वघानी का बैकग्राउंड स्कोर सूक्ष्म है, लेकिन शुरुआती क्रेडिट्स में यह बहुत लाउड है । सचिन कृष्ण की सिनेमैटोग्राफी साफ-सुथरी है । इसके बाद स्टूडियो का VFX निराशाजनक है । डॉ सिंह के कमरे से लुटियन की दिल्ली का दृश्य अवास्तविक है । इसके अलावा, बहुत सारे स्टॉक फुटेज के इस्तेमाल से बचा जा सकता था । एक दृश्य में, अनुपम खेर का चेहरा असली के डॉ मनमोहन सिंह पर लगाया गया है, जिसे बहुत बुरी तरह से अंजाम दिया गया है । पॉल रोवन और तर्पण श्रीवास्तव का प्रोडक्शन डिजाइन समृद्ध है । श्रीकांत देसाई का मेकअप डिज़ाइन प्रशंसा का पात्र हैं क्योंकि यह काफ़ी असरदार हैं । प्रवीण केएनएल का संपादन बेतरतीब है ।

कुल मिलाकर, द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर एक अच्छे आधार पर टिकी है लेकिन दोषपूर्ण और त्रुटिपूर्ण पटकथा और निर्देशन इस फ़िल्म को खराब कर देते है । इस फ़िल्म से जुड़े विवाद शुरूआत में बॉक्सऑफ़िस पर इसे उठाने में मदद कर सकते हैं लेकिन इसके बाद इसके लिए दर्शक जुटाना मुश्किल होगा ।