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उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक की अपार सफ़लता के बाद यह साबित हो गया है कि बॉक्सऑफ़िस पर जब बहादुर लोगों की सच्ची कहानियों को अच्छी तरह से और मनोरंजक तरीके से दर्शाया जाता है तो ये छप्पर फ़ाड़कर सफ़लता अर्जित करती है । और ऐसी ही सच्ची और वीरगाथा के साथ इस हफ़्ते फ़िल्मी पर्दे पर आई है कंगना रनौत अभिनीत मणिकर्णिका- द क्वीन ऑफ़ झांसी, जो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के अद्मय शौर्य की अनुपम गाथा है । ऐतिहासिक पीरियड ड्रामा फ़िल्म में क्या मणिकर्णिका- द क्वीन ऑफ़ झांसी दर्शकों के दिल में जगह बनाने में कामयाब हो पाएगी या यह अपने प्रयास में विफ़ल होती है, आईए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : ललकार के साथ आई मणिकर्णिका - द क्वीन ऑफ़ झांसी

मणिकर्णिका - द क्वीन ऑफ़ झांसी, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के अद्मय शौर्य की गाथा है । मणिकर्णिका [कंगना रनौत] बिठूर में रहती है और वह पेशवा [सुरेश ओबेरॉय] की पसंदीदा है और इसे वह खूब लाड़-प्यार से बढ़ा करते है । एक दिन झांसी के दीक्षित जी [कुलभूषण खरबंदा] मणिकर्णिका को एक क्रूर बाघ का निडरता से सामना करते हुए देख लेते है । और उससे प्रभावित होकर वह पेशवा से झांसी के राजा गंगाधर राव [जिशु सेनगुप्ता] के लिए मणिकर्णिका का हाथ मांग लेते है । दीक्षित जी को पता है कि ब्रिटिश झांसी को हड़पना चाहते है । इसलिए वह झांसी की रानी के रूप में मणिकर्णिका को चुनते हैं ताकि वो जरूरत पड़ने पर अंगेजों से बहादुरी से लोहा ले सके । गंगाधर और मणिकर्णिका की शादी हो जाती है और उसे एक नया नाम मिलता है, लक्ष्मीबाई । लेकिन इन सबसे गंगाधर का भाई सदाशिव [मोहम्मद जीशान अयूब] अपसेट हो जाता है । इसलिए वह ब्रिटिश लोगों से जा मिलता है और किसी भी कीमत पर झांसी के सिंहासन को पाना चाहता है । शादी के कुछ साल बाद लक्ष्मीबाई एक बेटे को जन्म देती है जिसका नाम दामोदर होता है । लेकिन सदाशिव दामोदर को धोखे से जहर देकर मार देता है । इसके बाद गंगाधर और लक्ष्मीबाई एक बेटे को गोद लेते हौ और उसे दामोदर का नाम देते है । कुछ दिनों बाद गंगाधर भी मर जाता है फ़िर लक्ष्मीबाई झांसी की बागडोर अपने हाथ में लेती है । लेकिन ब्रिटिश झांसी के सिंहासन को हड़प लेते है । लेकिन फ़िर लक्ष्मीबाई अपने झांसी को वापस पाने के लिए सबको एकजुट करती है और ब्रिटिश लोगों को खुली चुनौती देती है । इसके बाद क्या होता है यह बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

के वी विजयेंद्र प्रसाद की कहानी सरल है और यथासंभव ऐतिहासिक रूप से सटीक होने की कोशिश करती है । के वी विजयेंद्र प्रसाद की पटकथा बहुत प्रभावी और प्रभावशाली है । वह यह सुनिश्चित करने की कोशिश करते हैं कि वह तथ्यों से चिपके रहे और उसे ठोस रूप से चित्रित करे । फ़र्स्ट हाफ़ हालांकि धीमी कार्यवाही के कारण थोड़ा कमजोर है । सेकेंड हाफ़ कई सारे ट्विस्ट एंड टर्न्स के साथ कहानी को तेजी से आगे बढ़ाता है । प्रसून जोशी के डायलॉग्स शार्प, सराहनीय और धारदार है और फ़िल्म के प्रभाव को बेहतरीन बनाते है ।

राधा कृष्ण जगरलामुदी और कंगना रनौत का निर्देशन काफी अच्छा है और दोनों कमोबेश फिल्म के पैमाने और ऐतिहासिक महत्व के साथ न्याय करते हैं । यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कंगना द्वारा फिल्म के आधे से अधिक हिस्से को फिर से शूट किया गया है । लेकिन कुछ स्थानों को छोड़कर, ऐसा नहीं लगता कि फिल्म को दो अलग-अलग निर्देशकों ने अलग-अलग संवेदनशीलता के साथ संभाला है । कुछ दृश्य असाधारण रूप से संभाले गए हैं जो उल्लेखनीय है जैसे- मणिकर्णिका की एंट्री, उनके बेटे का निधन,इंटरमिशन प्वाइंट, लक्ष्मीबाई की ग्वालियर किले में नाटकीय एंट्री इत्यादि । इसके अलावा एक्शन दृश्य भी हैं । इसके विपरीत कुछ जगहों पर निर्देशन लड़खड़ा सा जाता है जो फ़िल्म के प्रभाव को कम करता है । और जब दर्शकों ने पहले से ही बाहुबली [2015, 2017], बाजीराव मस्तानी [2015], पद्मावत [2018] और कई फ़िल्में जिनमें बेहद प्रभावशाली प्रदर्शन हुए । मणिकर्णिका - द क्वीन ऑफ़ झांसी में कई जगहों पर खामियां है ।

मणिकर्णिका - द क्वीन ऑफ़ झांसी, 2.28 घंटे लंबी फ़िल्म है । फ़र्स्ट हाफ़ तकरीबन एक घंटे लंबा है । मेकर्स ने फ़िल्म के फ़र्स्ट हाफ़ को किरदारों को सेट करने में ज्यादा इस्तेमाल किया है और तब तक कहानी में थोड़ा-बहुत ही डेवलपमेंट होता है । फ़िल्म का यह भाग दिलचस्प है लेकिन धीमा भी है । फ़िल्म का इंटरमिशन प्वाइंट सराहना के काबिल है और इस बात का संकेत देता है कि सेकेंड हाफ़ में अब बहुत कुछ देखने लायक है । उम्मीद के मुताबिक, यहां से फ़िल्म शिर्ष स्तर पर पहुंच जाती है । एक्शन सीन काफ़ी मनोरंजक है और वो सीन देखने लायक है जिसमें लक्ष्मीबाई अकेली ही मां काली के सामने कई सारे ब्रिटिश सैनिकों को मार गिराती है । इस समय पूरा सिनेमाघरों तालियों की गड़गड़ाहट और सीटियों से गूंज जाता है । इमोशनल लेवल पर यह फ़िल्म खूबसूरती से कनेक्ट करती है इसलिए दर्शक लगातार लक्ष्मीबाई से जोड़े रहते है । फ़िल्म का क्लाइमेक्स थोड़ा बेहतर हो सकता था लेकिन फ़िर भी यह दिल को छूनेवाला है । अंत में वर्णित तथ्यात्मक विवरण भी फ़िल्म के प्रभाव को जोड़ते हैं ।

कंगना रनौत बेहद शानदार परफ़ोर्मेंस देती है और चुनौतीपूर्ण किरदार को बखूबी जीती है । झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का किरदार अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है और कंगना इस किरदार के साथ पूरा न्याय करती है । कंगना को एक्शन सीन करते हुए देखना बहुत अच्छा लगता है वहीं इमोशनल सीन में भी वह बाजी मार ले जाती है । जिशु सेनगुप्ता महज सहायक भूमिका में नजर आते है । जीशान अय्यूब थोड़े हास्यपद हैं लेकिन अस्वभाविक नहीं है । सुरेश ओबेरॉय प्रभावशाली हैं । डैनी डेन्जोंगपा (गुलाम गौस खान) की अचानक एंट्री होती है लेकिन प्रदर्शन के लिहाज से वह भरोसेमंद है । उनकी आवाज़ और व्यक्तित्व उनके किरदार में बहुत कुछ जोड़ता है । अंकिता लोखंडे (झलकारी बाई) उत्कृष्ट है और सीमित समय में जबरदस्त छाप छोड़ती है । उनकी ये एक बेहतरीन शुरुआत! अतुल कुलकर्णी (तांत्या टोपे) अपने परिचय दृश्य में अच्छे हैं, लेकिन बाद में उनके पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं है । मिष्ठी चक्रवर्ती (काशी) की अच्छी स्क्रीन उपस्थिति है, लेकिन वह बमुश्किल नजर आती है । कुलभूषण खरबंदा अपनी भूमिका के लिए काफी उपयुक्त हैं । ताहिर मिठाईवाला (संग्राम सिंह) का एक बदमाश किरदार है, लेकिन यकीनन बर्बाद हो जाता है । उन्नाव दवारा (मुंदर), सुपर्णा मारवाह (राजमाता), निहार पंड्या (राव) और पीर अली (अनिल जॉर्ज) ठीक हैं । ब्रिटिश अधिकारियों की भूमिका निभाने वाले अभिनेताओं की बात करें तो एडवर्ड सोनेंब्लिक (गॉर्डन) छा जाते हैं । लेकिन रिचर्ड कीप (ह्यू रोज) नेचुरल लगते है । अन्य ठीक हैं ।

शंकर-एहसान-लॉय का संगीत चार्टबस्टर किस्म का नहीं है, लेकिन फिल्म में बहुत अच्छा काम करता है । 'भारत' फिल्म की थीम की तरह है और यह आपके दिमाग में रह जाता है । 'विजयी भव' और 'बोलो कब प्रतिकार करोगे' थीम के साथ मेल खाते हैं और मूड सेट करते है । 'राजा जी' अच्छे से काम नहीं करता है और 'शिव तांडव' बमुश्किल प्ले किया जाता है । 'डंकिला' में 'मल्हारी' की ऊर्जा का अभाव है, लेकिन वह मनोरंजक है । संचित बलहारा और अंकित बलहारा की पृष्ठभूमि स्कोर प्राणपोषक है ।

ज्ञान शेखर वी एस और किरण देहान्स की सिनेमैटोग्राफी शानदार है और फिल्म के विभिन्न मूड को अच्छी तरह से कैप्चर करती है । मुरलीधर जे साबत, रतन सूर्यवंशी, सुकांत पाणिग्रही, सुजीत सुभाष सावंत और श्रीराम कन्नन अयंगर का प्रोडक्शन डिजाइन भव्य है और फिल्म को बड़े पर्दे का एहसास दिलाने में मदद करता है । निक पॉवेल, टोडर लाज़रोव और हबीब रियाज़ के एक्शन बहुत अधिक रक्तरंजित नहीं है इसलिए इन्हें देखने लायक बनाती है । कुछ स्थानों पर हालांकि यह और बेहतर हो सकती थी । नीता लुल्ला की वेशभूषा आकर्षित करती है, विशेष रूप से कंगना रनौत और अंकिता लोखंडे द्वारा पहनी गई साड़ी । प्राइम फोकस, प्राण स्टूडियो, दृश्यम वीएफएक्स और फ्यूचर वर्क्स का वीएफएक्स काफी अच्छा है लेकिन कुछ शॉट और बेहतर हो सकते थे । रामेश्वर भगत का सम्पादन प्रशंसनीय है, खासकर दो अलग-अलग निर्देशकों के कामों को मर्ज करते हुए उन्होंने सराहनीय काम किया है ।

कुल मिलाकर, मणिकर्णिका- द क्वीन ऑफ़ झांसी बड़े पैमाने पर भावनात्मक रूप से और युद्ध के दृश्यों, जो इसकी खासियत है, के साथ एक अच्छी तरह से बनाई गई ऐतिहासिक फ़िल्म है । इसके अलावा कंगना रनौत का शानदार अभिनय इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खासियत है । क्योंकि यह फ़िल्म गणतंत्र दिवस के सही मौके पर आई है, इसलिए बॉक्सऑफ़िस पर इसके बेहतरीन परफ़ोरमेंस की संभवानाएं और ज्यादा बढ़ जाती है ।