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दुनिया के कई हिस्सों में महिलाओं ने भेदभाव सहा है और इसमें भारत भी अछूता नहीं है । लेकिन वहीं भारत में महिलाओं की ऐसी कई प्रेरक कहानियां हैं जिन्होंने लैंगिक भेदभाव के कारण उत्पन्न चुनौतियों का सामना किया लेकिन आखिरकार वह सफ़ल हुई । बॉलीवुड आजकल ऐसी ही प्रेरक कहानियों में दिलचस्पी लेने लगा है । जहां बीते साल मणिकर्णिका और सांड की आंख ऐसी महिला की प्रेरक कहानी से बुनी फ़िल्म थी वहीं अब 2020 में भी ऐसी फ़िल्में देखने को मिल रही हैं । जहां अभी कुछ दिन पहले देश की ह्यूमन कंप्यूटर कही जाने वाली शकुंतला देवी फ़िल्म रिलीज हुई वहीं अब रिलीज हुई है देश की जाबांज महिला पायलट गुंजन सक्सेना की जिंदगी पर आधारित फ़िल्म, गुंजन सक्सेना - द कारगिल गर्ल । तो क्या यह फ़िल्म दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब होगी, या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाएगी, आइए समीक्षा करते हैं ।

गुंजन सक्सेना - द कारगिल गर्ल मूवी रिव्यू : अच्छे से बनाई गई फ़िल्म है

गुंजन सक्सेना - द कारगिल गर्ल, भारतीय वायुसेना की पायलट गुंजन सक्सेना की अविश्वसनीय वास्तविक जीवन पर आधारित है । ये साल 1984 है । गुंजन सक्सेना (रीवा अरोड़ा), जो लगभग 9 साल की है, अपने परिवार के साथ एक हवाई जहाज में यात्रा कर रही है । उसे कॉकपिट में प्रवेश करने और विमान उड़ाने के जादू का अनुभव करने का मौका मिलता है । वह तुरंत निर्णय लेती है कि वह बड़ी होकर पायलट बनेगी। 1989 में, गुंजन (जान्हवी कपूर) ने कक्षा 10 की परीक्षा शानदार अंको से पास की । वह अपने परिवार - पिता अनूप सक्सेना (पंकज त्रिपाठी), माँ कीर्ति सक्सेना (आयशा रज़ा मिश्रा) और सैनिक भाई अंशुमान (अंगद बेदी) से अपने सपनों को साकार करने के लिए अपनी आगे की पढ़ाई को छोड़ने के बारें में बताती है । जहां गुंजन के मां और भाई उसे आगे बढ़ने से रोकते हैं वहीं उसके पिता अनुप उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते  हैं । वह एक फ़्लाइंग स्कूल में दाखिला लेती है लेकिन फ़िर उसे पता चलता है कि नए नियम के मुताबिक इसके लिए उसका स्नातक होना जरूरी है । इसके बाद वह पांच साल बाद फ़िर से अप्लाई करती है लेकिन अब इस कोर्स की फ़ीस बढ़ गई है जिसे उसके माता-पिता अफ़ोर्ड नहीं कर सकते । इससे गुंजन का दिल टूट जाता है । अनूप उससे कहता है कि वह भारतीय वायु सेना में आवेदन करे क्योंकि वहां हाल ही में महिला अधिकारियों की भर्ती के लिए कोर्स शुरू किया है । गुंजन वह फ़ॉर्म भरती है और सलेक्ट हो जाती है । वह अपनी ट्रेनिंग सफ़लतापूर्वक पूरी करती है और उसकी पोस्टिंग जम्मू-कश्मीर के उधमपुर वायु सेना स्टेशन में होती है । यहां एकमात्र महिला अधिकारी होने के नाते उसे भेदभाव सहना पड़ता है । उसके साथ के ऑफ़िसर उसके साथ उड़ने से इंकार कर देते हैं । उसके फ्लाइट कमांडिंग अधिकारी दिलीप सिंह (विनीत कुमार सिंह) यह स्पष्ट करते हैं कि वह शिविर में नहीं के बराबर है । इसके बाद आगे क्या होता है, यह आगे की फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।

निखिल मेहरोत्रा और शरण शर्मा की कहानी में काफ़ी सक्षमता हैं और समय की जरूरत है । निखिल मेहरोत्रा और शरण शर्मा का स्क्रीनप्ले कसा हुआ है । फ़िल्म का ध्यान सिर्फ गुंजन के जीवन की कहानी को बयान करने पर नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करने पर भी बराबर है कि मनोरंजन भी बना रहे। वे कथा को बहुत सरल रखते हैं और इसलिए जो कोई भी इसे देखता है उसके लिए समझना आसान होगा । वहीं इसके विपरीत, किरदारों के नाम का उपयोग किया जाना कितना महत्वपूर्ण है ऐसा इस फ़िल्म में देखने को नहीं मिलता है । जाह्मवी के पिता कमांडिंग ऑफ़िसर गौतम सिन्हा के नाम का कभी उल्लेख नहीं किया गया है । जाह्मवी के भाई का नाम भी सिर्फ़ निकनेम बताया गया जबकि उसका रियल नेम तो बताया ही नहीं गया । निखिल मेहरोत्रा और शरण शर्मा के डायलॉग (हुसैन दलाल के अतिरिक्त संवाद) प्रभाव को बढ़ाते हैं और हास्य को दूसरे स्तर पर ले जाते हैं । यहां फिर से यह कहने की जरूरत है कि हर चीज में संतुलन बनाए रखा जाता है - संवाद कहीं भी बहुत फिल्मी नहीं लगते ।

शरण शर्मा का निर्देशन अत्यंत शानदार है और यह कहना असंभव है कि इस फ़िल्म के साथ उन्होंने निर्देशन के क्षेत्र में अपना डेब्यू किया है । उन्होंने बिना किसी रोमांटिक एंगल या कुछ और चीज को जोड़े फ़िल्म की कहानी पर फ़ोकस किया है । फ़िल्म की अवधि का भी उन्होंने बखूबी ध्यान रखा है । नतीजतन फिल्म सिर्फ 1.52 घंटे लंबी है । फ़िल्म में हर पल कुछ न कुछ होता है इसका श्रेय नेरेशन को जाता है जिसकी वजह से जरा भी बोरियत नहीं होती है । वहीं इसके विपरीत, अंत के 20 मिनट वाले युद्ध के सीन थोड़े और रोमांचक बनाए जा सकते थे फ़िल्म के प्रभाव को बढ़ाने के लिए । इसके अलावा शरण जाह्नवी से आवश्यक परफ़ोर्मेंस निकलवाने में कामयाब नहीं हो पाए ।

गुंजन सक्सेना - द कारगिल गर्ल की शुरूआत काफ़ी तनावपूर्ण और थ्रिलिंग नोट से होती है । गुंजन की एंट्री काफ़ी हीरो स्टाइल में होती है और यदि ये फ़िल्म थिएटर में रिलीज होती तो इस सीन का सीटियों और तालियों से स्वागत होता । इसके बाद फ़िल्म फ़्लैशबैक मोड में चली जाती है । लेकिन इससे पहले यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि देश में युद्धपूर्ण स्थिती है और सक्षम होने के बावजूद गुंजन को हवाई ऑपरेशसं से निकाल दिया गया है । गुंजन के बढ़ते हुए वर्षों को काफ़ी मनोरंजक ढंग से दिखाया गया है । कई सीन तो बेहद शानदार हैं । जैसे- यंग गुंजन का कॉकपिट में होना, पार्टी सीक्वंस, गुंजन के माता-पिता की लेट नाइट बातचीत । ये सब सीन फ़र्स्ट हाफ़ में नजर आते हैं । सेकेंड हाफ़ से फ़िल्म थोड़ी गंभीर हो जाती है क्योंकि गुंजन को उधमपुर बेस पर मुश्किलों का सामना करना होता है । फ़िल्म का अंत काफ़ी इमोशनल कर देने वाला है ।

जाह्नवी कपूर शानदार प्रदर्शन देती हैं और कोई भी ये देखकर कह सकता है कि वह उन्होंने इस फ़िल्म को अपना बेहतरीन दिया है फ़िर चाहे वो फ़िजिकली हो या इमोशनली । लेकिन यदि वह अपने हाव-भाव में थोड़ी वैरायटी लाती तो ये उनके अभिनय और फ़िल्म दोनों में चार चांद लगा देते । लेकिन वहीं वे कुछ सीन में छा जाती है । पंकज त्रिपाठी बेहद शानदार लगते हैं और निश्चितरूप से ये उनका बेहतरीन परफ़ोर्मेंस में से एक है । एक सपोर्टिंग पिता के रूप में उनका किरदार पसंद किया जाएगा । वह पूरी फ़िल्म में छाए रहे हैं । जिस सीन में वह जाह्नवी को किचन में  खींचकर लेकर आते हैं वह देखने लायक है । अंगद बेदी अपने रोल में ठीक हैं । आयशा रज़ा मिश्रा अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभाती हैं । विनीत कुमार सिंह हमेशा की तरह बहुत अच्छा प्रदर्शन देते हैं । हालांकि, यह हैरान करता है कि उनकी भूमिका को स्पेशल एपीरियंस के रूप में क्रेडिट क्यों दिया जाता है । मानव विज एक अमिट छाप छोड़ते हैं और अपने रोल में जंचते हैं । मनीष वर्मा (एसएसबी अधिकारी समीर मेहरा, जो गुंजन को प्रशिक्षित करते हैं) यादगार है । योगेंद्र सिंह (पायलट मोंटू) और आकाश धर (पायलट शेखर) भी अपने रोल में जंचते है । अन्य कलाकार जो अच्छा करते हैं, वे हैं रीवा अरोड़ा, मारिया श्रृष्टि (एयर होस्टेस), बार्बी राजपूत (गुंजन के दोस्त मन्नू), राजेश बलवानी (दिल्ली फ्लाइंग स्कूल में क्लर्क) और गुलशन पांडे (श्रीनगर एयर फोर्स स्टेशन के मुख्य अधिकारी)।

अमित त्रिवेदी का संगीत ठीक है लेकिन ज्यादातर स्थितिजन्य है । फिल्म में 6 गाने हैं जो कहानी में अच्छे से बुने गए हैं । 'भारत की बेटी' शानदार है और अच्छे से आगे बढ़ता है । 'रेखा ओ रेखा' प्रफुल्लित करने वाला और बहुत ही मजाकिया है । 'धूम धड़ाका' आकर्षक है, लेकिन एंड क्रेडिट के दौरान प्ले किए जाने से यह बेकार हो जाता है । 'असमान दी परी', 'मन की डोरी' और 'डोरी टूट गईन' ठीक हैं । जॉन स्टीवर्ट एडुरी का बैकग्राउंड स्कोर प्रभाव को बढ़ाता है ।

मानुष नंदन की सिनेमैटोग्राफी शानदार है और फ़िल्म के विभिन्न मूड को अच्छी तरह से कैप्चर करती है । जॉर्जिया का लोकेशन फ़िल्म के लिए अच्छा काम करता है क्योंकि यह कश्मीर घाटी जैसा लगता है । आदित्य कंवर का प्रोडक्शन डिजाइन समृद्ध है । Samidha Wangnoo की वेशभूषा बहुत वास्तविक लगती है । विक्रम दहिया के एक्शन सीन अच्छे हैं और खून-खराबे वाले जरा भी नहीं है । Marc Wolff के एक्शन और हवाई करतब तारीफ़ के काबिल है । Red Chillies.VFX का VFX बहुत अच्छा है । नितिन बैद का संपादन शानदार है क्योंकि उन्होंने महज 112 मिनट में बहुत कुछ दिखा दिया और इतने पर भी इसमें जल्दबाजी जैसा कुछ नहीं दिखता ।

कुल मिलाकर, गुंजन सक्‍सेना - द कारगिल गर्ल भारत की एक महिला यौद्धा पर अच्छे से बनाई गई फ़िल्म है । कुछ कमियों के बावजूद यह फ़िल्म बहुसंख्य दर्शकों के दिलों को छूएगी, खासकर पारिवारिक दर्शकों को ।