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कोरोना वायरस के कारण देश के सभी सिनेमाघर बंद हैं । इसलिए पिछले तीन महीने से एक भी फ़िल्म रिलीज नहीं हो पाई है । लेकिन अब फ़िल्ममेकर्स ने अपनी अटकी पड़ी फ़िल्म को रिलीज करने के लिए ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म का सहारा लिया है । इसमें सबसे पहले रिलीज हुई शुजीत सरकार की फ़िल्म गुलाबो सिताबो । अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना की गुलाबो सिताबो आज अमेजॉन प्राइम वीडियो पर रिलीज हुई है । तो क्या ये फ़िल्म दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब हो पाएगी, या तह अपने प्रयास में विफ़ल होती है ? आइए समीक्षा करते हैं ।

Gulabo Sitabo Movie Review: घर में देखने के लिए कैसी है अमिताभ-आयुष्मान की गुलाबो सिताबो ? पढ़ें रिव्यू

गुलाबो सिताबो, एक किराएदार और मकान मालिक के बीच की आपसी लड़ाई की कहानी है । 78 वर्षीय मिर्ज़ा चुन्नन नवाब (अमिताभ बच्चन), फातिमा बेगम (फ़ारुख जफ़र) जो उनसे लगभग 17 साल बड़ी है, पति-पत्नी हैं । बेगम की लखनऊ में एक 100 साल से भी पुरानी हवेली है जिसका नाम फ़ातिमा महल है । यहां वह अपने पति मिर्ज़ा के साथ रहती हैं । बेगम, क्योंकि बहुत बूढ़ी हो चुकी हैं, इसलिए हवेली की देखरेख की जिम्मेदारी अपने पति मिर्ज़ा को सौंपती है । फ़ातिमा महल का एक हिस्सा कई सारे किराएदारों के पास है जो बहुत कम किराए में वहां रहते हैं । इन्हीं किराएदारों में से एक किराएदार है बांके रस्तोगी (आयुष्मान खुराना) । बांके का परिवार इस हवेली में बरसों से रह रहा है जो किराए के नाम पर महज 30 रु महीना देता है । इसलिए मिर्ज़ा बांके को हवेली से निकालना चाहता है । मिर्ज़ा बांके से किराया बढ़ाने की कहता है तो वह गरीब कहकर ज्यादा किराया देने से इंकार कर देता है । वहीं पैसों की कमी के कारण मिर्ज़ा जर्जर हवेली की मरम्मत करावा पाने में सक्षम नहीं है । हवेली की हालत इतनी जर्जर हो चुकी है कि बांके एक लात से शौचालय की दीवार तोड़ देता है । मिर्ज़ा इस नुकसान की भरपाई बांके से करवाना चाहता है लेकिन बांके ये कहकर इंकार कर देता है कि हवेली की मरम्मत की जिम्मेदारी मकान मालिक की होती है । इसके बाद मामला पुलिस तक पहुंचता है । इसी बीच एंट्री होती है आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (लखनऊ सर्कल) के मिस्टर गणेश मिश्रा (विजय राज) की । गणेश धौंस दिखाने वाला एक चालाक ऑफिसर है, जो यह भांप लेता है कि यह जर्जर खंडहर नैशनल हैरिटेज प्रॉपर्टी (शायद नहीं भी) बन सकता है । वह बांके को कंवेंस करता है कि कैसे उसका प्लान उनके (बांके) और बाकी के किराएदारों के लिए बेहतर साबित हो सकता है । वहीं मिर्जा भी अपने वकील क्रिस्टोफ़र क्लार्क (ब्रिजेन्द्र काला) से मिलते हैं, जो कि प्रॉपर्टी के लफड़ों को सुलझाने में माहिर है । वकील मिर्ज़ा को सलाह देता है कि उसे ये हवेली बेच देनी चाहिए फ़िर सारा झगड़ा ही खत्म हो जाएगा । हालांकि इस हवेली की मालकिन तो बेगम है तो इस नाते इस हवेली पर उसके भाई-बहन का भी मालिकाना हक हो सकता है । इसलिए मिर्ज़ा पहले ये पता लगाता है कि उसके भाई-बहन कहां हैं । इसके बाद फ़िल्म में आगे क्या होता है, यह फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

जूही चतुर्वेदी की कहानी प्रोमसिंग और अनूठी है । हमने किरायेदारों की डर से सामना होने की कई फ़िल्मों को देखा है । लेकिन मकानमालिक को गलत तरीके से परेशान किया जाना भी एक वास्तविकता है और यह फ़िल्म उस पहलू पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक दुर्लभ फिल्म है । जूही चतुर्वेदी की पटकथा, हालांकि, कॉंसेप्ट के साथ पूरा न्याय नहीं करती है । फिल्म में कई सारे दिलचस्प किरदारों को दिखाया गया है जिनके साथ बहुत कुछ किया जा सकता था । जूही इस अवसर को गंवा देती हैं । जूही चतुर्वेदी के डायलॉग्स बातचीत-टाइप और सरल हैं, जिनमें से कुछ काफी तीखे और मजाकिया हैं ।

शूजीत सरकार का निर्देशन अच्छा है । लेकिन उनके हाथ में एक कमजोर स्क्रिप्ट थी इसलिए वह इसके साथ ज्यादा कुछ नहीं कर सके । हालांकि, हमने उनके द्दारा बनाई गई फ़िल्में जैसे- विकी डोनर और पिकू जैसी फ़िल्में देखी है, जिसमें उनकी प्रतिभा निकलकर सामने आती है । गुलाबो सिताबो उसी जोन की फ़िल्म है लेकिन उनका निर्देशन परफ़ेक्ट नजर नहीं आ पाता । वहीं कुछ अच्छी चीजें भी हैं- जैसे वह लखनऊ की खूबसूरती को अच्छे से कैप्चर करते हैं । बड़े पर्दे पर इसका अनुभव कुछ अलग ही होता । वहीं वह अपने कलाकारों से बेहतरीन प्रदर्शन करवाने में सक्षम होते हैं । वहीं दूसरी ओर, फ़िल्म में से हास्य गायब है जो फ़िल्म में कमी छोड़ता है । इसके अलावा कुछ सीक्वंस चौंकाने वाले हैं, खासकर मिर्ज़ा के किरदार में । एक तरफ, तो वह काफी समझदार और पैसे वाला था, जिसने बेगम से शादी की । वहीं दूसरी तरफ़ वह इतना सज्जन था कि उसे घर में रखी चीजों की सही कीमत भी नहीं पता थी और तो और उस हवेली में जिसमें वह सालों से रहता है, उसे ही बेचने चला गया था ।

गुलाबो सिताबो की शुरूआत एक अच्छे नोट पर होती है, जिसमें किरदारों का परिचय (हवेली सहित), फ़िल्म के टाइटल की प्रासांगिकता और वो दुनिया जहां वे रहते हैं, को दर्शाया जाता है । बैकग्राउंड स्कोर और यहां तक की परिस्थितियां कुछ फ़नी होने का संकेत देती हैं, लेकिन अफ़सोस फ़िल्म में शायद ही कोई फ़नी क्षण हैं । फ़िल्म में फ़नी पल तभी आता है जब मिर्ज़ा बीच गली में जागता है और तभी फ़िल्म में कुछ हंसने वाले सीक्वंस देखने को मिलते हैं । ज्ञानेश शुक्ला और क्रिस्टोफर क्लार्क की एंट्री के साथ ही फ़िल्म थोड़ी बेहतर होने लगती है और यह मिर्जा और बांके के बीच के खेल को बढ़ाती है । फ़िल्म में कुछ मिसिंग सा लगता है जो किरदारों से जुड़ाव पैदा नहीं कर पाता । सिर्फ़ लास्ट के 10-15 मिनट ही फ़िल्म से बांधे रखते हैं । यहां से फ़िल्म की कहानी में एक नया मोड़ आता है जो अप्रत्याशित है । लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती, फ़िल्म का अंत और भी रोमांचक नोट पर होता है ।

Gulabo Sitabo Movie Review: घर में देखने के लिए कैसी है अमिताभ-आयुष्मान की गुलाबो सिताबो ? पढ़ें रिव्यू

अमिताभ बच्चन दमदार प्रदर्शन देते हैं । उनका मेकअप बेहतरीन है और जिस तरह से वह अपने किरदार में समाते हैं, वह देखने लायक है । वह अपने हाव-भाव से काफ़ी कुछ कह जाते हैं । आयुष्मान खुराना भी काफी मनोरंजक हैं लेकिन उनका स्क्रीन टाइम अमिताभ की तुलना में काफ़ी कम है । यह लगातार दूसरी बार है जब आयुष्मान ने विस्तारित सहायक भूमिका के लिए समझौता किया है । इससे पहले शुभ मंगल ज्यादा सावधान (2020) में भी उनका एक विस्तारित सपोर्टिंग रोल था । फ़ारुख जफ़र की महत्वपूर्ण भूमिका है और वह अपना अमिट प्रभाव छोड़ती हैं । सेकेंड हाफ़ के दो सीन में तो वह छा जाती हैं । विजय राज और बृजेन्द्र काला हमेशा की तरह भरोसेमंद हैं । सृष्टि श्रीवास्तव (गुड्डो) काफी आत्मविश्वासी हैं । पूर्णिमा शर्मा (फौज़िया), अनन्या द्विवेदी (नीतू), उजली राज (पायल), सुनील कुमार वर्मा (मिश्रा जी), जोगी मल्लंग (मुनमुन जी), राजीव पांडे (पुलिस निरीक्षक) और बेहराम राणा (अब्दुल रहमान) जैसे अन्य कलाकार अपने किरदार में जंचते हैं ।

शांतनु मोइत्रा, अभिषेक अरोड़ा और अनुज गर्ग के संगीत में कोई जान नहीं है । थीम संगीत आकर्षक है और अच्छी तरह से काम करता है । ‘मदारी का बंदर’ वो गीत है जो फ़िल्म की थीम से मेल खाता है । बाकी के गीत जैसे ‘क्या लेके आवो जगमे’, ‘कंजूस’, ‘बुद्धू’ आदि यादगार नहीं हैं । बैकग्राउंड स्कोर क्वर्की और बहुत बेहतर है ।

अविक मुखोपाध्याय की सिनेमैटोग्राफी बेहतरीन है और लखनऊ और विशेष रूप से जीर्ण-शीर्ण हवेली को सुंदर ढंग से दर्शाती है । मानसी ध्रुव मेहता का प्रोडक्शन डिज़ाइन भी फिल्म के यथार्थवाद में बहुत कुछ जोड़ता है । वीरा कपूर ई की वेशभूषा भी फ़िल्म में वास्तविकता को जोड़ती है । कोई भी किरदार कहीं से भी ग्लैमरस नहीं दिखता है और यह फिल्म को और रियल बनाता है । पिया कॉर्नेलियस का प्रोस्थेटिक्स मेकअप डिज़ाइन उत्कृष्ट है और फ़िल्म के प्रभाव को बढ़ाता है । चंद्रशेखर प्रजापति का संपादन कामचलाऊ है । हालांकि फिल्म सिर्फ 124 मिनट लंबी है, लेकिन यह काफी धीमी लगती है ।

कुल मिलाकर, गुलाबो सिताबो घर पर देखने के लिए एक मनोरंजक फ़िल्म है । ह्यूमर की कमी और औसत स्क्रिप्ट के बावजूद यह फ़िल्म अपने दमदार परफ़ोर्मेंस, लखनऊ में सेट और अंत में एक ट्विस्ट के बल पर काम करेगी ।