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यदि अच्छे से बनाई गई हो तो हॉरर कॉमेडी शैली की फ़िल्में काफ़ी दिलचस्प फ़िल्म साबित हो सकती है । बीते साल हमने देखा कि गोलमाल अगेन कैसे ब्लॉकबस्टर साबित हुई क्योंकि इसमें बराबर मात्रा में, मनोरंजक तरीके से डर और कॉमेडी को जोड़ा गया था । हालांकि इस साल की शुरूआत में अभय देओल अभिनीत नानू की जानू को भी देखा गया और ये भी इसी शैली की फ़िल्म थी लेकिन ये दर्शकों पर प्रभाव छोड़ने में नाकामयाब हुई । इस हफ़्ते एक नवोदित निर्देशक अमर कौशिक लेकर आए हैं ऐसी ही एक हॉरर कॉमेडी फ़िल्म, स्त्री । तो क्या स्त्री गोलमाल अगेन की तरह दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब हो पाती है या नानू की जानू की तरह दर्शकों पर कोई प्रभाव नहीं बना पाती है ? आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : स्त्री

स्त्री, लोककथाओं और मिथक पर आधारित है जिसे पूरे भारत में कई राज्यों में स्वीकृति मिली हुई है । मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर चंदेरी में स्थित इस फ़िल्म की कहानी,एक ऐसी दुल्हन की आत्मा की कहानी दर्शाती है जो वार्षिक पूजा के दौरान चार दिनों तक सड़कों पर घूमती है । वह युवा पुरुषों को बुलाती है, और जब ये उसके पास आते हैं तो वो उनकी स्वीकृती समझ उन्हें अपने साथ ले जाती है । विक्की (राजकुमार राव) मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे चंदेरी में एक टेलर है । पूजा के पहले दिन, एक रहस्यमयी युवा लड़की (श्रद्धा कपूर) अपने घाघरा को सिलवाने के लिए उसके पास जाती है । वह उसके प्रति अपनी दिलचस्पी दर्शाती है और विकी उसके प्यार में पड़ जाता है । विकी अपने दोस्तों बिट्टू (अपारशक्ति खुराना) और जना (अभिषेक बनर्जी) को उसके बारे में बताता है । विक्की उस लड़की से कई बार मिलता है । जना विकी के लिए खुश होता है लेकिन बिट्टू उससे सचेत रहने के लिए कहता है । मुश्किल वहां खड़ी होती है जब बिट्टू को पता चलता है कि, विकी जिस लड़की से प्यार करता है वह कोई और नहीं बल्कि वही स्त्री है । इसके बाद क्या हो्ता है, यह बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

राज निदिमोरु, कृष्ण डीके और पवन सोनी की कहानी एक असली घटना पर आधारित है । वे इस प्लॉट का बहुत अच्छा उपयोग करते हैं क्योंकि यह काफी फ़्रेश है और वे इसे बेहतर बनाने के लिए आवश्यक चीजें जोड़ते हैं । राज निदिमोरु और कृष्णा डीके की पटकथा बहुत प्रभावी और मनोरंजक है । इस फ़िल्म की लंबाई महज 128 मिनट है और ये पूरे समय दर्शकों को बांधे रखती है । सुमित अरोड़ा के डायलॉग बहुत मजाकिया और मजेदार है । कुछ वन लाइनर तो निश्चितरूप से हंसा-हंसा कर लोटपोट कर देते हैं ।

अमर कौशिक का निर्देशन सराहनीय है, क्योंकि यह उनकी पहली फिल्म है । वह डरावने सीन के साथ-साथ नाटकीय सीन को भी काफ़ी खूबसूरती के साथ हैंडल करते है । हालांकि यह एक हॉरर-कॉमेडी फ़िल्म है, इसलिए यह थोड़ी सी खौफ़नाक लगती है । इसलिए, यह फ़ैमिली ऑडियंस के लिए भी थोड़ी ज्यादा खौफ़नाक हो सकती है । दूसरी बात ये है कि, उन्होंने अंत तक ऐसा ही किया है । बिल्ड अप उत्कृष्ट है लेकिन फिर वह इसे एक पल में खत्म कर देते है । वहीं कुछ दर्शकों को इसका फ़ाइनल सीन भी कंफ़्यूज करेगा और हो सकता है कि वे थिएटर से झुंझलाकर बाहर भी निकल आए ।

स्त्री की शुरूआत काफ़ी उच्च स्तर पर होती है और यह डर के मूड को बनाती है । और इसके तुरंत बाद, विकी, बिट्टू और जना की एंट्री होती है और फ़िल्म में ह्यूमर का तड़का लगता है । जिस तरह से, विकी और वो लड़की प्यार में पड़ती हैं ये देखना काफ़ी प्यारा लगता है । हालांकि इस बीच डरावने सीन को अच्छी तरह से जोड़ा गया है । वो सीन जहां नरेंद्र (आकाश दाभाडे) को ले जाया जाता है, वह काफी डरावना है । फ़र्स्ट हाफ़ का सबसे चिलिंग सीन इंटरवल के ठीक पहले आता है । इंटरवल के बाद, फ़न और हॉरर के बीच दोलन अच्छी तरह से जारी रहता है । लेकिन यहां आकर थोड़ी सी रूचि कम होने लगती है । इसके अलावा, अंत में कुछ क्षण हैं लेकिन यह भी जबरदस्त और भ्रमित कर देने वाले है ।

अभिनय की बात करें तो, इस फ़िल्म के साथ राजकुमार राव को एक नई शैली में उतरने का मौका मिला है और वह उत्कृष्टता के साथ इसमें खरे उतरते है । वह वाकई एक ईमानदार प्रदर्शन देते हैं और उन्हें डरते हुए, आत्मभाषण देते हुए और प्यार में पागल देखना अच्छा लगता है । जब वह जना और स्त्री के सामने अपना आपा खो देते हैं, तो ये देख आपका हंस-हंस के लोट-पोट हो जाना तय है । सेकेंड हाफ़ सीक्वंस में उन्हें देखना और भी ज्यादा दिलचस्प है जब वह स्त्री का विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं । वह एकदम शानदार है । श्रद्धा कपूर बेहतरीन परफ़ोरमेंस देती है और अपने किरदार की आवश्यकता के अनुसार रहस्यमयी लगती है । सेकेंड हाफ़ में वह और भी बेहतर लगती है । अपारशक्ति खुराना शानदार परफ़ोरमेंस देते हैं और जरा भी अपने किरदार से बाहर नहीं लगते है । और ऐसा ही अभिषेक बनर्जी के साथ भी है । अंत के एक घंटे में वह बेहद दिलचस्प लगते है । पंकज त्रिपाठी बमुश्किल फ़र्स्ट हाफ़ में दिखाई देते है लेकिन सेकेंड हाफ़ में वह पूरी तरह से छा जाते है । लॉन सीक्वेंस में विजय राज (शास्त्री) एक छाप छोड़ते हैं । फ्लोरा सैनी एलियन के साथ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । अतुल श्रीवास्तव (विकी के पिता) उस सीन में हंसा-हंसा के लोटपोट कर देते हैं जहां वह राजकुमार राव से सेक्स के बारें में बात करते है । नोरा फ़तेही अपने आइटम नंबर में सिजलिंग लगती है ।

सचिन जिगर का संगीत मनोरंजक है । 'दर्जी' पैपी है जबकि, 'मिलेगी मिलेगी' सभी गानों में बेहतरीन है लेकिन इसे अंत के क्रेडिट देने के दौरान प्ले किया जाता है । 'कमरिया' मनोरंजक है जबकि, 'नजर न लग जाए' ठीक है । 'आओ कभी हवेली पे' को बैकग्राउंड में प्ले किया जाता है । केतन सोढ़ा का बैकगाउंड स्कोर उत्कृष्ट है और यह डर को, और ज्यादा बढ़ाता है । हालांकि कुछ जगहों पर साउंड की क्वालिटी थोड़ी और बेहतर हो सकती थी ।

अमलेंदु चौधरी का छायांकन बेहतरीन है और बिना किसी भी कैमरावर्क की अस्पष्टता के यह साबित करता है कि बॉलीवुड में ऐसी कुछ बेहतरीन डरावनी फ़िल्में भी बनती है । उन्होंने चंदेरी के कुछ स्थानीय इलाकों को काफ़ी खूबसूरती से शूट किया है । मधुसूदन का प्रोडक्शन डिजाइन प्रामाणिक है । मनोहर वर्मा और गुलजार अमीन खातिब के एक्शन कुछ खास नहीं है । प्राइम फोकस का वीएफएक्स अमिट छाप छोड़ता है । हेमांति सरकार का संपादन सरल है और अच्छी तरह से काम करता है ।

कुल मिलाकर, स्त्री ह्यूमर और हॉरर का एक अद्वितीय मिश्रण है जो आपको पूरी तरह से आश्चर्यचकित करती है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म भरपूर मनोरंजन का वादा निभाती है और निश्चितरूप से दर्शकों को हंसा-हंसाकर लोटपोट करने, आपके डर व घबराहट को बढ़ाने वाली दिलचस्प रोलर कोस्टर राइड का अनुभव देती है । प्रभावपूर्ण हैं ये फ़िल्म ।