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साल 2012 में करण जौहर द्दारा निर्देशित स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर फ़िल्म रिलीज हुई । ये टीनेज ड्रामा फ़िल्म बॉक्सऑफ़िस पर न केवल हिट रही बल्कि इसने बॉलीवुड इंडस्ट्री को सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन और आलिया भट्ट के रूप में तीन नई पीढ़ी के कलाकार भी दिए । जहां एक तरफ़ आलिया भट्ट ने सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ कपूर एंड संस बनाई थी वहीं दूसरी तरफ़ आलिया ने वरुण धवन के साथ साल 2014 में हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया फ़िल्म बनाई,जो कि बॉक्सऑफ़िस पर हिट साबित हुई । इस बार, एक बार फ़िर वरुण धवन और आलिया भट्ट एक साथ नजर आए हैं फ़िल्म बद्रीनाथ की दुल्हनिया फ़िल्म में, जो इसी हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई है । तो क्या यह फ़िल्म एक बार इतिहास दोहराएगी या खुद एक इतिहास बन जाएगी, आइए समीक्षा करते हैं ।

बद्रीनाथ की दुल्हनिया एक निपुण बॉलीवुड रॉम-कॉम ड्रामा (शशांक खेतान द्वारा लिखी गई) फ़िल्म है, जो कि जोड़ों के जीवन में आए उतार-चढ़ाव और रिश्तों में समाज की उत्कृष्ट भूमिका को दर्शाती है । फ़िल्म की शुरूआत होती है झांसी से जहां दहेज प्रथा का प्रचलन दिखाया गया है और एक ऐसी जगह जहां लड़के को 'संपत्ति' और लड़की को 'कर्ज' समझा जाता है । इसके बाद बंसल परिवार का परिचय होता है । उस बंसल परिवार में है दसवीं पास बद्रीनाथ बंसल उर्फ़ बद्री (वरुण धवन) और उसका परिवार जिसमें उसकी मां है, एक बड़ा भाई आलोक बंसल (यश सिन्हा) और उसके भाई की पत्नी उर्मिला (श्वेता बसु प्रसाद) है । इस पूरे बंसल परिवार में सख्त और पितृसत्तात्मक पिता बंसल साहब (रितराज सिंह) का हुक्म चलता है और उन्होंने पूरे परिवार को अपने नियंत्रण में रखता है । एक दिन, जब बेपरवाह बद्री एक शादी में वैदेही त्रिवेदी (आलिया भट्ट) को देखता है, तो उसे तुरंत वैदेही से प्यार हो जाता है । वह वैदेही का पीछा करना शुरू कर देता है और उसकी एक हां के लिए उसे मनाता है । हालांकि वह वैदेही का अतीत जान जाता है लेकिन फ़िर भी वह खुद को उससे प्यार करने से रोक नहीं पाता है । एक दिन, बहुत हलचल के बाद, वैदेही बद्री के शादी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती है लेकिन कुछ शर्तों के साथ, और वो शर्त है कि वह शादी तब ही करेगी जब उसकी बड़ी बहन किरण (आकांक्षा सिंह) की शादी उससे पहले हो जाएगी । किरण के लिए दुल्हे की तलाश में शहर-दर-शर भटकने (जिसमें 'दुल्हे' के लिए किया गया ऑडिशन' भी शामिल है), के बाद भूषण (अपरशक्ति खुराना) के रूप में अपना दुल्हा मिलता है । सभी 'प्रथागत व्यवहार' के बाद, दोनों परिवारों के वृद्ध वैदेही और किरण के विवाह को एक साथ करने का फ़ैसला करते हैं । जब किरण की भूषण से शादी हो रही होती है तब अचानक वैदेही घर से बिना किसी को बोले भाग जाती है और ये स्थिती दोनों परिवारों को बेहद शर्मनाक स्थिति में छोड़ देती है । इसके बाद परेशान बंसल साहब बद्री को आदेश देते हैं कि वो कहीं से भी वैदेही को पकड़ कर लाए ताकि वो उसे जनता के सामने पींटे और बाकी के लोगों को उदाहरण दे सकें । क्या हमेशा से आज्ञाकारी रहा बद्री अपने पिता की आज्ञा का पालन करता है या वह सिर्फ़ अपने दिल की सुनता है जो अभी भी वैदेही से प्यार करता है । ऐसा क्या हुआ था जिसकी वजह से वैदेही अपनी शादी के दिन किसी को बिना बोले घर से भाग गई, क्या बद्री वैदेही को ढूंढने में कामयाब हो पाता है, या खाली हाथ ही घर वापस आता है, और अंततः बद्री और वैदेही के प्रति उसके निस्वार्थ प्रेम का क्या होता है, यह सब बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

जब बद्रीनाथ की दुल्हनिया के प्रोमो रिलीज किए गए थे, तब फ़िल्म ये उम्मीद जताने में कामयाब रही कि यह हिट फ़िल्म हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया की फ़्रेंचाइजी है । दर्शकों की उम्मीदों के विपरीत, बद्रीनाथ की दुल्हनिया पूरी तरह से हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया

का सीक्वल नही हैं बल्कि इसकी फ़्रेंचाइजी है । फ़िल्म के मुख्य कलाकारों, निर्देशक और बेसिक प्रीमाइस के अलावा, इन दोनों फ़िल्मों में कोई समानता नहीं है । फिल्म की पटकथा (शशांक खेतान) नियमित मार्गों का पालन नहीं करती है और यह सुनिश्चित करती है कि यह कट्टरपंथियों और रूढ़िताओं से आजाद है जो आम तौर पर इस तरह की शैली वाली फ़िल्मों में दिखाई देता है । फ़िल्म का दूसरा पहलू यह है कि, इसमें सामाजिक संदेश देने के चक्कर फ़िल्म काफ़ी उपदेशात्मक लगती है (जो फिल्म में कुछ जगहों में दिखाई दे रहा है) । इतना ही कफ़ी नहीं था कि सिनेमा में कुछ भी दिखाने की आजादी और समझ, कई दृश्यों में दर्शकों के लॉजिक और समझ को चुनौती देती है ।

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शंशाक खेतान, (हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया को निर्देशित करने के बाद), एक बार फ़िर बद्रीनाथ की दुल्हनिया के विजेता के रूप में उभरे हैं । इस फ़िल्म में उनका कौशल उनकी पिछली फ़िल्म की तुलना में बहुत सुधरा है । बद्रीनाथ की दुल्हनिया फ़िल्म अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाने में कामयाब रहती है और उसमें जरा भी 'हम्प्टी शर्मा हैंगओवर' की छाप दिखाई नहीं पड़ती है और इसके लिए शंशाक खेतान को पूरे में से पूरे अंक दिए जाते हैं । शंशाक खेतान, जो अपने वाकपटु निर्देशन के साथ आपका दिल जीतते हैं, बिना किसी घटना या स्थि्तियों का सहारा लिए बिना फ़िल्म की कहानी सुस्पष्ट और संबद्ध है । फ़िल्म की कहानी के मूल बिंदु के साथ फ़िल्म में हास्य परोसने में (विशेष रूप से फ़र्स्ट हाफ़ में) कामयाब रहते हैं । हालांकि वह फ़िल्म में हास्य के साथ महिला सशक्तिकरण के संदेश को देने में सफ़ल रहते हैं, वहीं एक ऐसी चीज भी है जो फ़िल्म में विलेन का काम करती है वो उनका फ़िल्म को अंत की ओर झुका देना, जो कि बहुत अप्रत्याशित, यकायक लगती है । फ़िल्म का फ़र्स्ट हाफ़ बहुत रुचिकर है जबकि सेकेंड हाफ़, एक जगह आकर खींचा हुआ और जबरदस्ती घसीटा हुआ लगता है जो मज़ा खराब करने वाला बन जाता है । हालांकि 'सिंगापुर पर्यटन' के साथ फिल्म का एकीकरण एक

स्मार्ट विचार बन सकता था लेकिन वह फ़िल्म में जगह-जगह दिखाई पड़ता है और एक जगह आकर ओवर लगने लगता है और सेकेंड हाफ़ तक खत्म नहीं होता है । यहां तक कि आलिया भट्ट की एयर होस्टेस की ट्रेनिंग ने फ़िल्म की लंबाई को बढ़ाने में योगदान दिया जो कि बहुत ही स्मार्टली संभाली जा सकती थी ।

हालांकि फ़िल्म एक भी यादगार वन-लाइनर से सजी हुई नहीं है, लेकिन फ़िर भी फ़िल्म में ओजपूर्ण डायलॉग और मजेदार पल हैं । फ़िल्म के वो सीन जो मिस करने लायक बिल्कुल नहीं है, वो हैं, जब आलिया की बहन के लिए सही वर की तलाश करने के लिए ऑडिशन आयोजित किया जाता है, चलती बस में वरुण का आलिया को लुभाना, अपरशक्ति खुराना का परिचय सीन, आलिया भट्ट का वरुण की नंगी छाती को ढकने के लिए खुद के दुपट्टे के साथ 'कवर-अप' एक्ट, समुद्र में वरुण और उनके दोस्त के बीच की लड़ाई, और ऑक्सीजन सिलेंडर के दृश्य भी, जो भारतीय विद्वानों की स्थिति को बहुत विनोदी तरीके से दर्शाते हैं ।

अभिनय की बात करें तो, यह फ़िल्म पूरी तरह से वरुण धवन और आलिया भट्ट, जो पूरी फ़िल्म को अपने कंधो पर लेकर चलते हैं, के ऊपर टिकी हुई है । फ़िल्म में दोनों की कैमेस्ट्री पूरी तरह से त्रुटीहीन है । इस बात पर विश्वास करने के लिए आपको इसे देखना पड़ेगा । वरुण धवन की बात करें तो, बीते साल अपनी फ़िल्म ढिशूम में अपने शानदार प्रदर्शन से सबको मोहित करने के बाद एक बार फ़िर वरुण,'बद्रीनाथ' नाम की अपनी भूमिका में छा जाते हैं । जिस एटीट्यूड और बॉडी लैंगग्विज के साथ उन्होंने अपने किरदार को निभाया है वह एकदम सही है । उनका नैचुरल बचपना और मासूमियत उनके किरदार में झलकती है । वह दर्शकों को एक और विस्मय होने का कारण दे देते हैं । जिस सहजता के साथ वह कॉमिक और इमोशनल किरदार अदा करते हैं वह वाकई काबिलेतारीफ़ है । वहीं दूसरी तरफ़, आलिया भट्ट, जो (फिर से) फिल्म में अपनी भूमिका को बहुत ही नैसर्गिक तरीके से खींच ले जाती हैं । कपूर एंड संस, उड़ता पंजाब, हाईवे

और अपनी पिछली फ़िल्म डियर जिंदगी में अपनी अदयगी का लोहा मनवा चुकी आलिया ने बद्रीनाथ की दुल्हनिया में एक बार फ़िर दिल जीतने वाली परफ़ोरमेंस दी है । फ़िल्म के बाकी के कलाकार भी काफ़ी अच्छे हैं । साहिल वैद्य, जो वरुण धवन के दोस्त के किरदार में हैं, बहुत ही उम्दा हैं और उन्हें फ़िल्म में अपना अभिनय दिखाने का उपयुक्त समय भी मिला है । गौहर खान फ़िल्म में हालांकि कम समय के लिए दिखती हैं लेकिन उतने में भी वो निरर्थक साबित होती हैं ।

फिल्म का संगीत (अमाल मलिक, तनिष्क बागची, अखिल सचदेवा) औसत । लेकिन उम्मीद के मुताबिक नहीं है जितना की सिनेप्रेमी 'धर्मा' फ़िल्म से अपेक्षा करता है । इसके अलावा, फ़िल्म में कुछ एक अच्छे-अच्छे गाने है जैसे 'तम्मा तम्मा' और फ़िल्म का शीर्षक गीत । वहीं दूसरी तरफ़, फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर (जॉन स्टीवर्ट) अच्छा है, जो फिल्म की कथा के साथ घुलमिल जाता है ।

फिल्म का छायांकन (नेहा पार्टि) अच्छा है । वहीं दूसरी तरफ़, फिल्म का संपादन (मानन सागर) बेहद औसत है जो कि और कसा जा सकता था ।

कुल मिलाकर, बद्रीनाथ की दुल्हनिया बहुत अच्छे से गूंथी हुई एक खूबसूरत प्रेम कहानी है और आनंद प्रदान करने वाली मनोरंजक फ़िल्म है जो अंत तक आपको बांधे रखती है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म निश्चित रूप से सफ़ल फ़िल्म रहेगी । इसे मिस मत कीजिए ।