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किसी भी माता-पिता के लिए उनके बच्चे का देहांत होना सबसे दुखद क्षण होता है । निर्देशक शोनालि बोस ने एक ऐसे ही मुद्दे पर बेस्ड फ़िल्म बनाई है, द स्काई इज पिंक, जो इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई है । सबसे कम उम्र की मोटिवेशनल स्पीकर आयशा चौधरी की जिंदगी पर बेस्ड फ़िल्म है द स्काई इज पिंक । तो क्या यह फ़िल्म दर्शकों के दिलों को छू पाती है या यह अपने प्रयास में विफ़ल होती है ? आइए समीक्षा करते है ।

The Sky Is Pink Movie Review: दिल को छू नहीं पाती प्रियंका चोपड़ा-जायरा वसीम की द स्काई इज पिंक

द स्काई इज पिंक, एक ऐसे परिवार की कहानी है जो लगभग दो दशकों से परेशानी से जूझ रही है । चांदनी चौक के रहने वाले निरेन चौधरी (फरहान अख्तर) 1986 में दक्षिण दिल्ली की लड़की अदिति चौधरी (प्रियंका चोपड़ा) , जो उनका बचपन का प्यार है, से शादी करता है । शादी के कुछ साल बाद उनका बेटा होता है ईशान (रोहित सराफ) । इसके बाद अदिति एक बेटी को जन्म देती है जिसका नाम होता है, तान्या महज 6 महीने में इसका निधन हो जाता है । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अदिति और निरेन दोनों में से एक के जीन दुर्लभ दोषपूर्ण है । वे फिर से एक बच्चे के लिए प्रयास करते हैं और 27 मार्च, 1996 को आयशा (जायरा वसीम) का जन्म होता है । दुख की बात यह है कि तान्या की तरह, आयशा भी अपने माता-पिता के दुर्लभ दोषपूर्ण जीन को लेकर पैदा होती है जिसकी वजह से वह Severe Combined Immunodeficiency (SCID), नाम की इम्यून डिसॉर्डर से पीड़ित होती है । क्योंकि अदिति और निरेन इस बार अपनी बेटी को खोना नहीं चाहते हैं इसलिए वह आयशा को हर हालत में बचाने का प्रयास करते है और इसलिए वह उसे इलाज के लिए लंदन ले जाते है । महज 6 महीने की उम्र में आयशा का बोनमेरो ट्रांसप्लांट होता जिसके साइड इफ़ैक्ट कुछ साल बाद नजर आते है और उसके लंग्स में प्रोब्लम आ जाती है । यह तब होता है जब आयशा 13 साल की होती है । अब अदिति और निरेन आयशा को हर हाल में जिंदा रखने का प्रयास करते है । इसके बाद आगे क्या होता है यह बाकी की फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।

शोनाली बोस और निलेश की कहानी काफ़ी प्रोमिसिंग है जो इस साल की सबसे टचिंग फ़िल्म बन सकती थी । शोनाली बोस और निलेश मनियार की पटकथा केवल हिस्सों में काम करती है । कुछ दृश्य असाधारण हैं लेकिन कुछ दृश्यों में, लेखन का वांछित प्रभाव नजर नहीं आता है । फिल्म में कई फ्लैशबैक मोड है जिससे दर्शकों को समझना थोड़ा मुश्किल होता है । जूही चतुर्वेदी और निलेश मनियार के संवाद ठीक हैं । कुछ वन-लाइनर अच्छी तरह से काम करते हैं और मजाकिया हैं । लेकिन कुछ संवाद मिसफायर करते हैं, खासकर निशा द्वारा लिखे गए आयशा के कथन । संवादों में हास्य जबरन सा लगता है, विशेष रूप से अदिति और निरेन की सेक्स लाइफ़ में ।

शोनाली बोस का निर्देशन सख्ती से ठीक है । उनके हाथ में बहुत अच्छा विषय था लेकिन वह इसके साथ न्याय करने में नाकाम हो जाती है । यह फ़िल्म 149 मिनट लंबी है जिसे और छोटा होना चाहिए था । वहीं फ़िल्म में से कुछ जानकारियां पूरी तरह से नदारद है जिन पर फ़ोकस किया जाना आवश्यक था । क्योंकि आयशा चौधरी एक मोटिवेशनल स्पीकर थी लेकिन फ़िल्म में उनका ये रूप सिर्फ़ चंद सेकेंड के लिए ही दर्शाया गया है । दर्शक भी निश्चितरूप से आयशा को मोटिवेशनल स्पीकर में देखना पसंद करते । लेकिन अफ़सोस ऐसा होता नहीं है । इसके अलावा एक जगह उल्लेख किया जाता है कि निरेन का एक बैंड भी है लेकिन फ़िल्म में इसे कहीं भी नहीं दिखाया जाता है । शोनाली ने पूरी फ़िल्म को हल्की बनाने की कोशिश की है जिससे फ़िल्म भारी न लगे । इसलिए उन्होंने इसमें कुछ फ़नी सीन भी जोड़े है । हालांकि शोनाली ने कुछ सीन को बहुत ही बेहतरीन तरीके से हैंडल किया है । फ़िल्म का जो सबसे अच्छा प्वाइंट है वो है आईशा और ईशान की बॉंडिग । इसे काफ़ी पसंद किया जाएगा ।

द स्काई इज पिंक की शुरूआत साल 2015 से होती है । कहानी में दिखाते हैं कि, अदिति और नरेन के बीच कुछ ठीक नहीं । इसके बाद फ़िल्म फ़्लैशबैक में चली जाती है । जहां अदिति और नरेन अपनी नवजात आयशा को इलाज के लिए लंदन लेकर जाते है । फ़िल्म के कुछ सीन हालांकि बहुत ही शानदार है, जैसे अदिति का नरेन को सोनिया नाम की लड़की से दूर रहने के लिए वॉर्न करना इसके बाद नरेन का अदिति को मनाने के लिए लंदन जाकर सरप्राइज देना, जब फ़रहान को अपने बड़े बेटे ईशान की रिपोर्ट से पता चलता है कि वो उसका बेटा नहीं है । फ़िल्म के फ़र्स्ट हाफ़ में इमोशनल टच गायब है । सेकेंड हाफ़ में कुछ सीन शानदार है और प्रभाव छोड़ते है । लेकिन फ़िल्म के लिए जो सबसे बड़ी खामी है वो है इसका रन टाइम । वहीं फ़िल्म का कंटेट, विषय यहां तक की टाइटल भी चुनिंदा दर्शकों को लुभाएगा ।

प्रियंका चोपड़ा बहुत ही शानदार परफ़ोर्मेंस देती है और अपनी बेहतरीन अदायगी से पूरी फ़िल्म को खींचती है । इस फ़ि्ल्म में उनका किरदार काफ़ी जटिल है जिसे बड़ी ही सहजता के साथ निभाती है । जायरा वसीम काफ़ी आत्मविश्वासी दिखती है । हालांकि फ़िल्म की कहानी उनकी जिंदगी पर बेस्ड है लेकिन फ़िल्म का फ़र्स्ट हाफ़ उनके बचपन में ही बीत जाता है । नतीजतन उनकी एंट्री फ़िल्म में बहुत लेट होती है । लेकिन उनका वॉइसऑवर फ़िल्म के पहले सीन के साथ सुनाई देता है । वह गंभीर बीमारी से पीड़ित होने के बावजूद एक हैप्पी पर्सन के रूप में काफ़ी जंचती है । फ़रहान अख्तर अपने रोल में जंचते है । दुख की बात है कि फ़िल्म की कहानी ज्यादातर प्रियंका और जायरा के इर्द-गिर्द घूमती है इसलिए उन्हें छाने का मौका कम मिलता है । रोहित श्रॉफ़ काफ़ी डेशिंग लगते है और सेकेंड हाफ़ के कुछ सीन में तो छा जाते है । राजश्री देशपांडे (अनीता टंडन), जिन्होंने SACRED GAMES में अपनी छाप छोड़ी, पूरी फिल्म में पलक झपकते ही गायब हो गई। Ishan Jotshi (करण; आयशा का क्रश) अपने रोल में जंचते है । सुधावन देशपांडे (डॉ निर्विक), पूजा सरूप (मोहिनी), सुनील चितकारा (नरेन के पिता) और निरुपमा वर्मा (नरेन की माँ) अपने रोल में ठीक है ।

प्रीतम का संगीत औसत है । 'दिल ही तो है' सभी गानों में बेहतर है और इसे बहुत ही अच्छी तरह शूट किया है । 'नादानियां" और 'जिंदगी' याद रखने योग्य नहीं है । 'पिंक गुलाबी' अंत के क्रेडिट में प्ले किया जाता है । मिकी मैक्लेरी का बैकग्राउंड स्कोर थोड़ा नाटकीय है और कुछ दृश्यों में ही काम करता है ।

कार्तिक विजय और निक कुक की सिनेमैटोग्राफी उपयुक्त है । अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के स्थानों को अच्छी तरह से कैप्चर किया गया है । आराधना सेठ का प्रोडक्शन डिजाइन यथार्थवादी और आकर्षक है । इका लखानी की वेशभूषा एकदम सटीक है और जरा भी आउट ऑफ़ प्लेस नहीं लगती है । मानस मित्तल का संपादन और शार्प हो सकता था ।

कुल मिलाकर, द स्काई इज पिंक का प्लॉट बहुत अच्छा है लेकिन कमजोर निष्पादन और लंबे रन टाइम की वजह से ये मात खा जाती है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म चुनिंदा दर्शकों और शहरों को आकर्षित करेगी ।