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हमारे देश में हर गुजरते साल के साथ मानव-पशु संघर्ष बढ़ रहा है, क्योंकि जंगलों की जमीन को इंसान अपने उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करता जा रहा है । हालांकि यह एक ज्वलंत मुद्दा है लेकिन हैरानी की बात है कि कोई भी इस मुद्दे पर फ़िल्म नहीं बनाता । न्यूटन निर्देशक अमित मसुरकर ने पहल करते हुए इस मुद्दे को अपनी इस हफ़्ते रिलीज हुई फ़िल्म शेरनी में उठाया है । तो क्या शेरनी दर्शकों को रोमांचित और प्रबुद्ध करने में कामयाब हो पाती है ? या यह प्रभावित करने में विफल रहती है ? आइए समीक्षा करते हैं।

Sherni Movie Review: कैसी है विद्या बालन की शेरनी, यहां जानें

शेरनी एक ऐसी सख्त वन अधिकारी की कहानी है जो एक बाघिन को पकड़ने का इरादा रखता है जिसने उस जगह तबाही मचाई हुई है । विद्या विन्सेंट (विद्या बालन) ने बीजासपुर वन प्रभाग में संभागीय वन अधिकारी (डीएफओ) के रूप में कार्यभार ग्रहण किया है । उसका पति पवन (मुकुल चड्ढा) मुंबई में रहता है, जबकि वह वन विभाग द्वारा आवंटित क्वार्टर में अकेली रहती है । वह पिछले 9 वर्षों में मिले प्रमोशन और वेतन वृद्धि से खुश नहीं है और अपने जॉब को छोड़ना चाहती है। लेकिन पवन विद्या को उसकी नौकरी नहीं छोड़ने की सलाह देता है क्योंकि उसकी कॉर्पोरेट नौकरी अस्थिर है। एक दिन विद्या को पता चलता है कि एक गांव के पास एक बाघ देखा गया है । कुछ दिनों बाद, बाघ एक ग्रामीण को मार डालता है, जिससे स्थानीय लोगों में उस बाघिन को लेकर गुस्सा भर जाता है। कैमरा ट्रैप के जरिए वन अधिकारियों को पता चलता है कि ग्रामीण की हत्या के पीछे टी12 नाम की एक बाघिन है । चुनाव नजदीक हैं और मौजूदा विधायक जी के सिंह (अमर सिंह परिहार) इसे एक राजनीतिक मुद्दा बनाते हैं । वह गांव के निवासियों से वादा करता है कि वह बाघिन को मार डालेंगे और उन्हें इस मुश्किल से निकालेंगे । दूसरी ओर, पी के सिंह (सत्यकम आनंद) एक पूर्व विधायक हैं जो सत्ता में वापस आना चाहते हैं । वह जी के सिंह के खिलाफ लोगों को भड़काते हैं । इसी पागलपन के बीच एक और ग्रामीण की मौत हो जाती है, जब वह जंगल में लकड़ी लेने जाती है । जी के सिंह फिर रंजन राजहंस उर्फ पिंटू (शरत सक्सेना) को आमंत्रित करते हैं, जो एक स्व-घोषित संरक्षणवादी है, लेकिन वास्तव में एक शिकारी है । वह शिकार की अपनी भूख को पूरा करने के लिए T12 नाम की बाघिन को मारना चाहता है । विद्या, हालांकि, जानवर को मारने के पक्ष में नहीं है । वह ग्रामीणों को जंगल से दूर रहने की सलाह देती है । कैमरा ट्रैप का उपयोग करके और पांव के निशान को ट्रैक करते हुए, वह T12 को खोजने, उसे शांत करने और फिर उसे पास के राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ने का प्रयास करती है । समय बीतता जाता है, और इससे पहले की पिंटू बाघिन का शिकार कर ले वह अपने मिशन में सफ़ल होना चाहती है, क्या विद्या अपने मिशन में सफ़ल हो पाती है, आगे क्या होता है इसके लिए पूरी फ़िल्म देखनी होगी ।

आस्था टीकू की कहानी प्रभावशाली है । यह मुद्दा हर समय खबरों में आता रहता है लेकिन इस पर समर्पित एक पूरी फिल्म देखना दुर्लभ है। लेकिन आस्था टीकू की पटकथा नीरस और खिंची हुई है । प्रारंभिक भाग दिलचस्प हैं लेकिन एक समय के बाद, फ़िल्म दोहराई सी लगती है । और क्लाइमेक्स सबसे बड़ी निराशा देता है । अमित मसुरकर और यशस्वी मिश्रा के डायलॉग सरल और तीखे हैं । कुछ वन-लाइनर्स अप्रत्याशित रूप से मज़ेदार हैं और रुचि को बनाए रखने में मदद करते हैं।

अमित मसुरकर का निर्देशन औसत है । ऐसा लगता है कि उन्हें जंगलों में शूटिंग करना पसंद है । न्यूटन मुख्य रूप से जंगल में सेट थी और ऐसा ही शेरनी के साथ भी है। कुछ दृश्य असाधारण रूप से हैंडल किए गए हैं । अमित ने वन अधिकारी की भूमिका, वन मित्र की अवधारणा, नौकरशाही और सरकारी उदासीनता चीजों को कैसे गड़बड़ कर सकती है आदि को बड़े करीने से समझाया है । दूसरी ओर, वह एक वृत्तचित्र की तरह फिल्म का निर्देशन करते हैं । इसके अलावा फिल्म का रन टाइम 130 मिनट है । यह थोड़ा लंबा है और आदर्श रूप से, फिल्म को दो घंटे से कम का होना चाहिए था । कुछ सीन्स समझ के परे लगते हैं और हमें बार-बार वन अधिकारियों और अन्य लोगों द्वारा बाघिन की तलाश करने के दृश्य देखने को मिलते हैं । ये सीन दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लेने वाले हैं । इसके अलावा फ़िल्म का अंत निराशाजनक और चौंकाने वाला है । कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं और यह दर्शकों को भ्रमित करता है कि वास्तव में क्या हुआ था । अंत में, विद्या विंसेंट का किरदार उतना प्रभावशाली नहीं है ।

शेरनी की शुरूआत नीरस तरीके से शुरू होती है । ओपनिंग क्रेडिट ब्लैक स्क्रीन पर दिखाए जाते हैं वो भी बिना म्यूजिक के साथ । यहीं से पता चल जाता है कि यह फ़िल्म चुनिंदा दर्शकों के लिए है । शुरूआत हिस्से बांधे रखने वाले हैं । दर्शकों को विद्या विन्सेंट, उसकी नौकरी, बाघिन की खोज आदि से परिचित कराने के साथ शुरुआत के हिस्से आकर्षक हैं । हंसी का एलिमेंट भी अच्छा काम करता है । शुरूआती एक घंटे में दो सीन बहुत ही शानदार हैं । सेकेंड हाफ़ में लगता है कि कुछ धमाकेदार होगा, लेकिन अफ़सोस ऐसा कुछ नहीं होता है । मेकर्स क्लाइमेक्स को अच्छे हैंडल नहीं कर पाते और फ़िल्म की समप्ति अनुचित और दयनीय नोट पर समाप्त होती है ।

उम्मीद के मुताबिक विद्या बालन अपने किरदार में पूरी तरह से ढल जाती हैं और एक और सराहनीय प्रदर्शन करती हैं । वह अपने किरदार को इतना बखूबी निभाती हैं कि कोई भी उनके पिछले अभिनय को याद नहीं कर पाता । लेकिन उनका किरदार अच्छी तरह से पेश नहीं किया गया । विद्या का किरदार ऐसा है कि वह अन्याय के खिलाफ़ आवाज नहीं उठाती और मूक दर्शक बनकर सिर्फ़ देखती हैं । हालांकि उम्मीद होती है कि वह आगे कुछ करेंगी लेकिन मेकर्स उनके किरदार को अच्छी तरह से पेश नहीं कर पाते और इस तरह से वह अपनी चमक खो देता है । शरत सक्सेना को शुरुआती क्रेडिट में विद्या के तुरंत बाद क्रेडिट दिया जाता है और ऐसा इसलिए कि उनका एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । वह एक जुनूनी शिकारी के रूप में बहुत अच्छे लगते हैं जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है । विजय राज हंसाते नहीं हैं लेकिन फिर भी, वह बहुत प्रभावशाली हैं । नीरज काबी (नांगिया) की स्क्रीन पर उपस्थिति शानदार है । अफसोस की बात है कि उनके किरदार की भ्रमित करने वाली हरकतें भी असंबद्ध लगती हैं। मुकुल चड्ढा सभ्य हैं जबकि बृजेंद्र कला भरोसेमंद हैं । अनूप त्रिवेदी (प्यारे लाल) मजाकिया और एक बेहतरीन खोज है । सत्यकाम आनंद एक बड़ी छाप छोड़ते हैं जबकि अमर सिंह परिहार अच्छा करते हैं । गोपाल दत्त (सैप्रसाद) बर्बाद हो जाते है । इला अरुण (पवन की मां) ठीक है; उनका ट्रैक वास्तव में फिल्म की लंबाई बढ़ाता है । सुमा मुकुंदन (विद्या की मां) और निधि दीवान (रेशमा; हसन की पत्नी) को ज्यादा स्कोप नहीं मिलता है । संपा मंडल (एक उत्साही ग्रामीण ज्योति के रूप में) बहुत अच्छी है।

बंदिश प्रॉजेक्ट का संगीत खराब है । फिल्म में एकमात्र गाना है 'बंदर बांट'। यह बैकग्राउंड में चलता है और फ़िल्म की कहानी में अच्छी तरह से फिट बैठता है । बेनेडिक्ट टेलर और नरेन चंदावरकर का बैकग्राउंड स्कोर न्यूनतम और प्रभावशाली है । राकेश हरिदास की सिनेमेटोग्राफ़ी शानदार है और जंगल के दृश्यों को विशेष रूप से बहुत अच्छी तरह से कैप्चर किया गया है । देविका दवे का प्रोडक्शन डिजाइन उत्कृष्ट है । स्क्रिप्ट की मांग के अनुरूप मानोशी नाथ, रुशी शर्मा और भाग्यश्री राजुरकर की वेशभूषा नॉन-ग्लैमरस है । फ्यूचरवर्क्स और द सर्कस का वीएफएक्स बाघ के दृश्यों में बहुत अच्छा है । लेकिन भालू के सीक्वंस में यह अवास्तविक है । दीपिका कालरा की एडिटिंग ठीक नहीं है । फिल्म छोटी होनी चाहिए थी ।

कुल मिलाकर, शेरनी एक दिलचस्प कहानी और विद्या बालन के शानदार अभिनय से सजी फ़िल्म है । लेकिन धीमी गति और डॉक्यूमेंट्री स्टाइल का नरेशन, फ़िल्म की लंबाई और हैरान करने वाले क्लाइमेक्स फ़िल्म के प्रभाव को खराब कर देते हैं ।