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आपको याद हो तो, आमिर खान के ऐतिहासिक टीवी शो, 'सत्यमेव जयते' में इन दो शूटर दादी चंद्रो और प्रकाशी से पहली बार मुलाकात कराई गई थी । और अब उन्हीं की जिंदगी को पर्दे पर उतारा है तुषार हिरानंदानी ने अपनी फ़िल्म सांड की आंख में । तुषार हिरानंदानी इस फ़िल्म के साथ निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखने जा रहे है । तो क्या इन दो शूटर दादी की प्रेरक कहानी दर्शकों को मनोरंजित कर पाएगी ? या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाएगी । आइए समीक्षा करते है ।

Saand Ki Aankh Movie Review: बहादुरी की इमोशनल दास्तां है तापसी पन्नू और भूमि पेडनेकर की सांड की आंख

सांड की आंख, दो महिलाओं की कहानी है । ये साल है 1999 । चंद्रो तोमर (भूमि पेडनेकर) और प्रकाशी तोमर (तापसी पन्नू) देवरानी-जेठानी हैं और उत्तर प्रदेश में जोहरी गाँव में ये अपने-अपने पतियों के साथ और सख्त और रूढ़िवादी बहनोई रतन सिंह (प्रकाश झा) और उनके बच्चों के साथ एक ही छत के नीचे रहती है । हालांकि दोनों ने 60 साल की उम्र पार कर ली है लेकिन अपनी जिंदगी में कुछ सार्थक करने की इच्छा रखने वाली चंद्रो और प्रकाशी पितृसत्तात्मक समाज के दबाव के कारण कुछ कर नहीं पाई । एक दिन डॉ यशपाल (विनीत कुमार) जोहरी गांव लौटते हैं । वह अपना मेडिकल पेशा छोड़ देता है और अपनी शूटिंग रेंज शुरू करता है । चंद्रो की बेटी शेफाली (सारा अर्जुन) शूटिंग का अभ्यास करने के लिए रुचि व्यक्त करती है लेकिन रतन स्पष्ट रूप से अनुमति देने से इनकार कर देता है । फिर भी, चंद्रो शेफाली को रेंज में ले जाती है । बिना ज्यादा सोचे-समझे, चंद्रो भी शूटिंग में अपना हाथ आजमाती है और आश्चर्यजनक रूप से, वह एक बुल्सआई पर निशाना साधती है । यशपाल उसे और ट्राई करने के लिए कहता है क्योंकि वह समझ चुका है कि चंद्रो इसमें सक्षम है । इसके बाद प्रकाशी भी चंद्रो को ज्वाइन करती है और वह भी शूटिंग में खुद को साबित करती है । यशपाल उन्हें अपनी शूटिंग रेंज में अपने कौशल को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करता हैं और बाद में, उन्हें चंडीगढ़ में आयोजित शूटिंग प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए कहता है । जिन दादियों ने अपने जीवन में कभी अपने गांव से बाहर कदम नहीं रखा वह बाहर जाने के लिए तैयार हो जाती है । वह अपने-अपने पतियों को मूर्ख बनाकर प्रतियोगिता में भाग लेने जाती है और प्रतियोगिता में अपनी शूटिंग से सभी को प्रभावित करती है । प्रकाशी फ़र्स्ट और चंद्रो सेकेंड आती है । इसके बाद वह कई सारे टूर्नामेंट आसानी से जीत जाती है । इसके बाद आगे क्या होता है यह बाकी फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।

बलविंदर जनूजा की कहानी बहुत ही आशाजनक और प्रेरणादायक है । यह न केवल चंद्रो और प्रकाशी तोमर के जीवन के बारे में दर्शकों को मंत्रमुग्ध करती है, बल्कि पितृसत्तात्मक समाज और जनसंख्या नियंत्रण के बारे में जागरूकता की कमी के बारे में भी महत्वपूर्ण टिप्पणी देती है । बलविंदर जनुजा की पटकथा अधिकांश भागों के लिए मनोरम है, लेकिन फ्लैशबैक भाग की शुरुआत और पूर्व-चरमोत्कर्ष में बेहतर हो सकती थी । जगदीप सिंहू के संवाद ज्वलनशील और तीखे हैं ।

तुषार हीरानंदानी का निर्देशन नवोदित निर्देशक के रूप में अच्छा है और वह लेखन सामग्री के साथ कंट्रोल में रहते है । वह इसे यथासंभव मनोरंजक और मुख्यधारा बनाने के लिए अपनी पूरी कोशिश करते है । इसके अलावा वह दादियों के संघर्ष को पर्दे पर उकेरने में कामयाब होते है जो दर्शकों की आंखों में पानी लेकर आते है । वहीं दूसरी तरफ़, उन्हें फ़िल्म की अवधि को लेकर थोड़ा काम करना चाहिए था । अंत के 15 से 20 मिनट भावनात्मक रूप से और बेहतर हो सकते थे क्योंकि समापन से पहले का दृश्य बहुत अच्छा था ।

सांड की आंख की शुरूआत काफ़ी दिलचस्प होती है क्योंकि चंद्रो और प्रकाशी की एंट्री चेहरे पर एक स्माइल लेकर आती है । फ़्लैशबैक पोर्शन कुछ जगह अच्छा काम करते है । असल में शुरूआती फ़र्स्ट हाफ़ हालांकि बांधे रखने वाला है लेकिन दमदार नहीं है । इस दौरान कोई भी ड्रामा या तनाव नहीं होता है क्योंकि दादियां आसानी से अभ्यास कर सकती हैं और यहां तक कि बिना किसी संदेह के चंडीगढ़ भी जा सकती हैं । फ़र्स्ट हाफ़ का सबसे अच्छा हिस्सा चंडीगढ़ प्रतियोगिता के दौरान आता है ये देखने लायक है कि कैसे दोनों महिलाएं अपने निंदकों को चुप कराती है । इंटरवल के बाद भी तनाव एक निश्चित बिंदु तक नहीं आता है । लेकिन फ़िर भी सेकेंड हाफ़ कुछ हद तक बेहतर है । यहां कुछ सीन बहुत ही दिल को छू लेने वाले है । दादी और रतन सिंह के बीच आमना-समान काफ़ी रोमांचक है । एक जगह आलकर लगता है कि अब फ़िल्म खत्म होगी लेकिन इसके 20 मिनट बाद तक फ़िल्म चलती है क्योंकि अब फ़िल्म का ट्रेक शेफाली और सीमा, जो शूटर बनने का प्रयास करती है, पर फ़ोकस करता है । फ़िल्म का अंत काफ़ी इमोशनल नोट पर होता है ।

निंसंदेह, सांड की आंख तापसी पन्नू और भूमि पेडनेकर की फ़िल्म है । यह ध्यान देने योग्य बात है कि दोनों वास्तव में लुक के मामले में ही बूढ़ी नहीं दिखती हैं बल्कि दोनों की परफ़ोरमेंस भी उनका बूढ़ापन झलकता है । तापसी जिस सहजता से अपनी भूमिका निभाती है वह देखने लायक है । हालांकि वह फ़िल्म के आखिरी हिस्से में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देती है । भूमि भी अपना बेहतरीन प्रदर्शन देने में कामयाब होती है और उनकी बॉडी लेंगुएज तो शानदार है । इसके अलावा उनका अंग्रेजी बोलने का प्रयास थिएटर में हंसी लेकर आता है । हालांकि कुछ सीन में वह तापसी द्दारा छुप जाती है । विनीत कुमार प्यारे लगते हैं और उन्हें उनके किरदार में पसंद किया जाएगा । उनकी डायलॉग डिलीवरी से लेकर एक्सप्रेशन तक वह सभी में बाजी मार ले जाते है । प्रकाश झा काफ़ी विश्वसनीय लगते हैं और शुरूआत से लेकर अंत तक अपने नेगेटिव किरदार से दिल जीतते है । शाद रंधावा फिल्म के दूसरे भाग में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं । निखत खान महारानी के रूप में प्यारी लगती है क्योंकि फिल्म के कुछ सबसे महत्वपूर्ण दृश्यों में वह अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है । सारा अर्जुन की एक अच्छी स्क्रीन उपस्थिति है और वह इसमें अच्छा करती हैं । योगेंद्र सिंह (युवा रतन सिंह) उपयुक्त हैं । एस के बत्रा (आई जी जयदेव), पवन चोपड़ा (जय सिंह तोमर), कुलदीप सरीन (भंवर सिंह तोमर), प्रीता बक्शी (सीमा) और हिमांशु शर्मा (सचिन) ने भी अपना सर्वश्रेष्ठ किया है ।

विशाल मिश्रा का संगीत परिस्थितिजन्य है और अच्छी तरह से काम करता है । 'उड़ता तीतर' तीतर’ रोमांचक है । 'वुमनिया' अंत में प्ले होता है और इसे देखना अच्छा लगता है क्योंकि इसमें असल जिंदगी की चंद्रो और प्रकाशी तोमर नजर आती है । आशा भोंसले द्वारा गाया गया गाना 'आस्मा' को बहुत टचिंग है । 'बेबी गोल्ड' और 'झुन झुनना' में आकर्षक धुन है और इसे उचित रूप से शूट किया गया है । अद्वैत नेमलेकर के बैकग्राउंड स्कोर में कमर्शियल फील है ।

सुधाकर रेड्डी यकांति की सिनेमैटोग्राफी शानदार है, खासकर शूटिंग के दृश्यों में । कैमरा जिस तरह से घूमता है ड्रामा और जुड़ता जाता है । एक सीन वो भी देखनेलायक है जिसमें कई महत्वपूर्ण सीन को मोटरसाइकिल के रियर व्यू मिरर में कैप्चर किया गया है । रवि श्रीवास्तव का प्रोडक्शन डिजाइन प्रामाणिक है । तोमर बहनों के गांव में शूट किए गए सीन फ़िल्म को रियल बनाते है । रोहित चतुर्वेदी की वेशभूषा सटीक है । सुनील रोड्रिग्स के एक्शन फिल्म के साथ अच्छी तरह से मेल खाते है । राजीव के रस्तोगी का VFX समृद्ध है । देवेंद्र मुर्देश्वर का संपादन साफ-सुथरा है, लेकिन सेकेंड हाफ में यह और थोड़ा टाइट हो सकता था ।

कुल मिलाकर, सांड की आंख तापसी पन्नू और भूमि पेडनेकर की शानदार परफ़ोरमेंस और प्रेरक कहानी से सजी फ़िल्म है । बॉक्सऑफ़िस पर इस फ़िल्म को अन्य दो फ़िल्मों हाउसफ़ुल 4 और मेड इन चाइना से टक्कर लेने के लिए लोगों द्दारा की गई तारीफ़ की आवश्यकता होगी ।