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मसाला कॉमेडी फ़िल्मों को आज भी एक बड़ा दर्शक वर्ग काफ़ी पसंद करता है । लेकिन, हैरानी की बात ये है कि वर्तमान में बहुत कम निर्देशक ऐसे हैं जो इस तरह की फिल्मों के साथ न्याय कर पाते हैं । अनीस बज़्मी उन लोगों में से एक हैं जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों से दर्शकों को इस शैली की फ़िल्मों से खूब मनोरंजक किया है । और अब एक बार फ़िर अनीस बज्मी ऐसी ही एक मसाला-कॉमेडी फ़िल्म लेकर आए हैं-पागलपंती, जो इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई है । तो क्या मल्टीस्टारर फ़िल्म पागलपंती अपनी मैडनैस से दर्शकों का दिल जीतने में सक्षम हो पाती है या यह अपने प्रयास में विफ़ल होती है । आईए समीक्षा करते है ।

Pagalpanti Movie Review: ब्रैनलैस कॉमेडी से भरी ये फ़िल्म निराश कर जाती है

पागलपंती, ऐसे तीन बदकिस्मत आदमियों की कहानी है जिन्होंने अंडरवर्ल्ड में कहर बरपाया है । राज किशोर (जॉन अब्राहम) ज्योतिषीय रूप से बहुत अशुभ है । वह जहां भी जाता है, बदकिस्मती उसके साथ आती है । वह भारत में सार्वजनिक मर्केंटाइल बैंक ज्वाइन करता है और जॉब के पहले दिन उसे पता चलता है कि नीरज मोदी (इनामुलहक) बैंक के 32,000 करोड़ रुपये चोरी करके देश से फ़रार हो गया है । इस कारण राज अपने जॉब से हाथ धो बैठता है । उसके बाद वह लंदन जाता है जहां वह दो भाइयों, जंकी (अरशद वारसी) और चंदू (पुलकित सम्राट) से दोस्ती करता है । वह आतिशबाजी की दुकान में पैसा लगाने के लिए दोनों भाईयों को मना लेता है । लेकिन यहां भी राज की बदकिस्मती अगे आ जाती है और उनकी दुकान में आग लग जाती है । राज इसके बाद संजना (इलियाना डीक्रूज़) को रिझाता है । इसके बाद वह उसे धोखा दे देता है और उसके मामा (बृजेन्द्र काला) जिसके पास बहुत सारा पैसा है, वह जंकी और चंदू के साथ एक डिलीवरी कंपनी शुरू करता है । यहां भी राज, चंदू और जंकी धोखा कर भाग जाते है । इसके बाद वे राजा साहब (सौरभ शुक्ला) के महल के निवास स्थान पर पहुँच जाते हैं । यहां उनकी बेटी जानवी (कृति खरबंदा) का जन्मदिन मनाया जा रहा है और महंगी कार उसका उपहार है । दुर्भाग्य से, जब कार को ट्रैक से उतारा जाता है, तो वह कार क्षतिग्रस्त हो चुकी होती है । उस कार की कीमत 7 करोड़ रु है और कार की कीमत वसूलने के लिए राजा साहब का बहनोई वाईफाई भाई (अनिल कपूर) उन तीनों को एक नौकरी देता है जहां प्रति मेंबर 10-10 लाख रु मिलेंगे । राज, जंकी और चंदू ख़ुशी-ख़ुशी नौकरी करते हैं, इस बात का एहसास नहीं है कि उनका काम उनके लिए घातक साबित हो सकता है । राजा साहब के भोजन में जहर न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए जंक और चंदू को भोजन का स्वाद लेने का काम दिया जाता है । राज को राजा साहब की कार में बैठने के लिए कहा जाता है ताकि अगर कोई हमला करने की कोशिश करे तो राज पहला शिकार बने । बाद में तीनों को पता चलता है कि राजा साहेब की दुश्मनी टुल्ली (ज़ाकिर हुसैन) और बुल्ली (अशोक समर्थ) नाम के भाइयों से है और इसलिए उनकी इतनी सुरक्षा की जाती है । इसके बाद फ़िल्म क्या मोड़ लेती है ये पूरी फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

अनीस बज़्मी, राजीव कौल और प्रफुल्ल पारेख की कहानी पागलपन से भरी है और काफी क्लिच भी है । फिर भी, यह एक अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी यदि स्क्रिप्ट अच्छी होती । अनीस बज्मी, राजीव कौल और प्रफुल्ल पारेख की पटकथा दुखद रूप से निराशाजनक है । पहली छमाही में लेखन सादा आलसी है, यह दोहराव वाला है । सेकेंड हाफ़ में यह फ़िल्म कई सारी फ़िल्मों की भेलपूरी बन जाती है । अनीस बज़्मी के डायलॉग काफी मज़ेदार हैं लेकिन एक कड़ी स्क्रिप्ट के अभाव में, ये वन-लाइनर्स वांछित प्रभाव नहीं डालते हैं ।

अनीस बज्मी का निर्देशन कमजोर है । उन्होंने इससे पहले काफ़ी अच्छा काम किया है लेकिन ये फ़िल्म उसके आस-पास भी नहीं भटकती है । फ़िल्म की पटकथा उतनी मजेदार नहीं है लेकिन फ़िर भी यह थोड़ी-बहुत मनोरंजक हो सकती थी अगर वह शैली के अनुरूप होती । लेकिन दुख की बात है कि उन्होंने फिल्म में कई सारे बेतुकी बातें जोड़ी है । एक महत्वपूर्ण दृश्य में, किरदार अचानक देशभक्तिपूर्ण हो जाते हैं और इन्हें पेश करना शर्मनाक है ।

जैसा कि फ़िल्म का टाइटल है पागलपंती, इसलिए इस फ़िल्म से माइंडलैस कॉमेडी की उम्मीद ही की जाती है । और इसका संकेत पहला सीन ही दे देता है क्योंकि शुरूआती सीन पागलपंतीसे भरे हुए है । फ़िल्म में इस्तेमाल किए जोक्स जरा भी मजेदार नहीं है । इसके विपरीत कुछ सीन ऐसे हैं जो वाकई हंसी लेकर आते है जैसे- जंक और चंदू को भोजन का स्वाद लेने के लिए मजबूर किया जाना और राज इस बात का पता लगा रहा है कि क्यों वह राजा साहब की कार चला रहा था और खुद राजा साहब नहीं । नीरज मोदी की एंट्री धमाकेदार है । इंटरमिशन प्वाइंट को देख लगता है कि सेकेंड हाफ़ में कुछ तो अच्छा होगा । लेकिन सेकेंड हाफ़ में ठीक इसके विपरीत होता है । यहां से मेकर्स और लेखक ने फ़िल्म को एक हॉरर टच दिया है जो फ़िल्म के लिए उल्टा साबित हो जाता है । ऐसा लगता है मानो मेकर्स हॉरर-कॉमेडी फ़िल्म गोलमाल अगेन और स्त्री की सफ़लता को भुनाने की कोशिश कर रहे हो । इसके अलावा फ़िल्म का फ़ाइनल सीन भी अनीस बज्मी की साल 2007 में आई फ़िल्म वेलकम की याद दिलाता है । इसके बाद, मेकर्स सीधे-सीधे अंदाज अपना अपना [1994] का एक डायलॉग उठाते हैं जिससे पूरी फ़िल्म धराशाही हो जाती है ।

जॉन अब्राहम ठीक है लेकिन कुछ कमी सी लगती है । एक बदलाव के लिए वह कॉमेडी फ़िल्मों में हाथ आजमा रहे है, लेकिन इसके लिए उन्हें ऐसी फिल्म चुननी चाहिए जो उन्हें उत्कृष्ट बनाने का मौका दे । अरशद वारसी हमेशा की तरह काफी मनोरंजक लगते हैं । पुलकित सम्राट अपनी पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन वो प्रदर्शन देने में नाकाम होते हैं जो उनके किरदार की मांग थी । अनिल कपूर के हिस्से में कुछ मजेदार सीन आते हैं लेकिन कमजोर लेखन उन्हें भी निराश करता है । सौरभ शुक्ला काफी शानदार हैं । बृजेंद्र काला भी शानदार है । अभिनेत्रियों की बात करें तो, कृति खरबंदा को एक दिलचस्प किरदार मिलाता है निभाने के लिए जिसके साथ वह न्याय करती है । इलियाना डीक्रूज सख्ती से ठीक है । उर्वशी रौतेला की एंट्री काफ़ी लेट होती है और वह फ़िल्म में बमुश्किल ही नजर आती है । सहायक कलाकारों के बारे में बात करे तो, इनामुलहक बहुत अच्छा है और उनकी भूमिका उनपर जंचती है । जमील खान (पंडितजी) की महत्वपूर्ण भूमिका है और भरोसेमंद है । मुकेश तिवारी, जाकिर हुसैन और अशोक समर्थ शीर्ष पर हैं । जितेन मुखी (मेहुल चौकसी), नरेश शर्मा (राजा साहब का बटुआ) और राजा साहब का ड्राइवर (कंचन पगारे) ठीक हैं ।

फ़िल्म का संगीत ठीक है । 'तुम पर हम हैं अटके' अचानक आ जाता है लेकिन यह पैर थिरकाने वाला है । 'वल्ला वल्ला' अच्छे से पिक्चराइज किया गया है लेकिन गाना अच्छा नहीं है । 'बीमार दिल' के बाद फ़िल्म और बुरी हो जाती है । 'ठुमका' जबरदस्ती का जोड़ा गया लगता है । टाइटल ट्रेक बैकग्राउंड में ज्यादा प्ले किया जाता है । साजिद-वाजिद का बैकग्राउंड स्कोर बेहतर है । नीरज मोदी थीम अच्छा काम करती है ।

सुनील पटेल की सिनेमैटोग्राफी उपयुक्त है । दुर्गाप्रसाद महापात्रा का प्रोडक्शन डिजाइन आकर्षक है । प्रद्युम्न कुमार स्वैन का एक्शन इतना यादगार नहीं है । अनुष्का तुगनीत, सनम रतनसी, क्षितिज कंकरिया शमनाज पारख, राहिल राजा और हिमांशी निझावन की वेशभूषा बहुत ही ग्लैमरस और सेक्सी है, विशेष रूप से लड़कियों द्वारा पहनी गई । N Y VFXWaala और फ़ाइनल पोस्ट का VFX, भद्दाम है, विशेष रूप से शेर के सीन से संबंधित है । प्रशांत सिंह राठौर का संपादन कुछ खास नहीं है ।

कुल मिलाकर, पागलपंती कमजोर लेखन और जोक्स के दोहराव के कारण उम्मीद के मुताबिक हंसी लाने में विफ़ल होती है । यह फ़िल्म सिर्फ़ उन लोगों के लिए है जो ब्रेनलैस मनोरंजन पसंद करते है ।