स्वच्छता के मामले में हमारा देश काफ़ी पीछे है । शौचालयों की कमी भारत के प्रत्येक कोने में देखी जा सकती है । लोगों को हल्के होने के लिए खुले में जाते देखना बड़े दुख की बात है । लेकिन महिलाओं के लिए यह, वाजिब कारणों से और भी ज्यादा मुश्किलभरा है । और शर्मनाक बात तो ये है कि छोटे शहर और गांवों की महिलाओं पर बलात्कार और यौन हमले उसी समय होते हैं जब वे निवृत होने के लिए खुले में जाती है । टॉयलेट- एक प्रेम कथा, इसी पहलू पर प्रकाश डालती है और इसी के इर्द-गिर्द एक प्रेम कहानी भी बुनती है । तो क्या यह सोशल ड्रामा आवश्यक प्रभाव बनाने में कामयाब हो पाता है या यह कामयाब नहीं हो पाता है, आइए समीक्षा करते हैं ।

टॉयलेट-एक प्रेम कथा, एक ऐसे व्यक्ति की प्रेम कहानी है, जो अपनी पत्नी की खातिर अपने घर में एक शौचालय स्थापित करने के लिए सिस्टम और अपने परिवार से लड़ता है । केशव (अक्षय कुमार) अपने पिता (सुधीर पांडे) के साथ उत्तर भारत के मांडगाव गांव में साथ में रहता है । वह जया (भूमि पेडनेकर) के प्यार में पड़ जाता है और वह भी केशव से प्यार करने लगती है । दोनों की शादी हो जाती है । जया को नहीं पता होता कि केशव के घर में टॉयलेट नहीं है । शादी के बाद के पहले दिन, वह आस-पड़ौस की महिलाओं की 'लोटा पार्टी' का हिस्सा बनती है, जो सूर्योदय से पहले खुले में शौच के लिए जाती है । जया गुस्से में आ जाती है और घर में एक शौचालय बनवाने के लिए मांग करती है । लेकिन केशव के पिता इसके सख्त खिलाफ़ होते है । और वह यह तर्क रखते हैं कि वह घर में किसी को भी शौच करने की अनुमति नहीं देंगे, क्योंकि यह उनकी संस्कृति के खिलाफ है । केशव को टॉयलेट बनवाने के लिए कैसी-कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और सिस्टम के खिलाफ़ कैसे लड़ता है, यह सब बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

टॉयलेट-एक प्रेम कथा का पहला सीन, जिसमें फिल्माए जाने के दौरान महिलाओं के बंधन को दिखाया गया है, फिल्म के मूड को सेट करता है । अक्षय कुमार की एंट्री अचानक होती है और यह सीन शेष फिल्म के लिए कोई उद्देश्य नहीं देता है । पीछा करने वाला सीन थोड़ा आपत्तिजनक है, लेकिन छोटे शहर के तत्व को ध्यान में रखते हुए, यह काम करता है । जया-केशव की शादी अचानक होती है, लेकिन फिल्म मोड़ तब लेती है जब जया को पता चलता है कि उसके विवाहित घर में कोई शौचालय / टॉयलेट नहीं है । इंटरवल बहुत ही अहम जगह होता है जो फिल्म को दूसरे स्तर पर ले जाता है । सेकेंड हाफ़ अपने आप में खास है । वो सीन, जब जया ने महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए खड़ा नहीं होने को शर्मनाक बताया और केशव का उसके टॉयलेट को नष्ट करने पर भड़क जाना, बहुत यादगार है । वहीं दूसरी ओर, फ़िल्म काफ़ी लंबी हो जाती है और इसे कम से कम 20 मिनट तक कम होना चाहिए था । कुछ सीन वाकई असंभव से लग रहे थे । सबसे ज्यादा हद तो तब होती है जब, 'लोटा पार्टी' महिलाओं ने अचानक अपने पति के खिलाफ विद्रोह कर दिया ।

गरिमा वाहल और सिद्धार्थ सिंह की कहानी एक ऐसी सामाजिक समस्या, जिससे देश पीड़ित है, के साथ एक प्रेम कहानी को संतुलित करने की कोशिश करती है । गरिमा और सिद्धार्थ की पटकथा धीमी गति से चलती है । जिस तरीके से केशव जया के लिए टॉयलेट बनवाने के लिए पागलों की हद तक चला जाता है, वह काफ़ी मनोरंजक है । लेकिन चटपटी कहानी की भी आवश्यकता थी । इसके अलावा, सेकेंड हाफ़ में फ़िल्म उपदेशात्मक हो जाती है और एक प्रो-गवर्मेंट (सरकार समर्थक) फ़िल्म बन जाती है, जिसे टाला जा सकता था । फिर भी, सात बांधे रखने वाले सीन प्रशंसा के हकदार हैं । गारिमा और सिद्धार्थ के संवाद तेज और मजाकिया हैं । शहरी दर्शकों को 'संडास', 'शौच' आदि जैसे दोहराए जाने वाले शब्दों पर शर्मिंदगी महसूस हो सकती है, लेकिन इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं था । लेकिन इनके बिना ये फ़िल्म अपना प्रभाव नहीं बना पाती ।

श्री नारायण सिंह का निर्देशन एक हद तक भुगतना पड़ता है । कई जगहों पर फिल्म बहुत तेज है - जैसे, जया-केशव का विवाह पल भर में हो जाता है और दर्शक समझ भी नहीं पाते । लेकिन सेकेंड हाफ़ में,यह बहुत खींच सी जाती है । इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि, कुछ सीन को चतुराई से सुदृढ़ किया है । उनमें से एक सीन है, जो वाकई प्रभावित करता है, जब ब्राह्मण पिता को क्लाइमेक्स से पहले नहाने के लिए मजबूर किया जाता है ।

अक्षय कुमार एक रहस्योद्घाटन है । पिछले कुछ वर्षो से, वह अच्छी तरह से लिखे गए रोल को निभा रहे हैं, लेकिन टॉयलेट-एक प्रेम कथा में, वह ऊंचाई छू जाते है । जिस तरह से उन्होंने उल्लिखित अभिभूत करने वाले सीन में प्रतिक्रिया दी है, वह दर्शकों को हैरान करने वाली है । भमि पेडनेकर बहुत बेहतरीन परफ़ोरमेंस देती हैं । वह बेहद आश्वस्त और समझने वाली प्रतीत होती है । दिव्येन्दु शर्मा (नारू) फ़िल्म में कॉमिक फ़ील लाते है और अक्षय कुमार के भाई के रूप में अद्भुत लगते हैं । एक सख्त पिता के रूप में सुधीर पांडे जंचते है । अनुपम खेर (जया के अंकल) भी हंसी लाते हैं, लेकिन उनका हिस्सा कोई हास्यपात्र नहीं है । वह फ़िल्म में अहम भूमिका निभाते है । शुभा खोते (केशव की दादी) विशेष रूप से क्लाइमेक्स से पहले, जंचती है । राजेश शर्मा (डी एम माथुर), मुकेश भट्ट (पत्रकार रस्तोगी), सरपंच के किरदार और महिला पत्रकार के अपने छोटे भाग में काफ़ी अच्छे लगते है । सना खान व्यर्थ चली जाती है ।

फ़िल्म का संगीत यादगार नहीं है । 'हंस मत पगली' एक हद ध्यान में चढ़ने वाला है । 'गोरी तू लठ्ठ मार' अच्छे से शूट किया गया है । 'बखेड़ा' और 'सुबह की ट्रेन' ठीक-ठाक है बस । सुरिंदर सोढी का पृष्ठभूमि स्कोर कई जगह पर उत्साहजनक है ।

उदय प्रकाश सिंह का प्रोडक्शन उम्दा है । अंशुमान महले का छायांकन ठीक है, लेकिन हवाई शॉट्स में, यह प्रशंसनीय है । श्री नारायण सिंह का संपादन औसत है ।

कुल मिलाकर, टॉयलेट-एक प्रेम कथा, कुछ कमियों के बावजूद, मनोरंजन के साथ दमदार सोशल मैसेज देती है और समाज में कई पुरानी प्रथाओं पर सवाल भी करती है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म, क्योंकि इसके सामने कोई और फ़िल्म नहीं है, अगले हफ़्ते छुट्टियां हैं और कुछ राज्यों में इसे टैक्स छूट दी गई है, इन सबकी वजह से यह दर्शकों को जुटाने में कामयाब होगी ।