साल 2012 में आई फ़िल्म विक्की डोनर ने साबित कर दिया था कि टैबू/वर्जित या असहज विषय पर फ़िल्म बनाना फ़ायदे का सौदा हो सकता है जिसे खूब सराहा जाता है । इस फ़िल्म की सफ़लता से प्रेरित होकर आई कुछ फ़िल्में,जैसे- पिकू (कब्ज को दर्शाती) और हाल ही में रिलीज हुई फिल्म टॉयलेट-प्रेम कथा(खुले शौचालय) और अब शुभ मंगल सावधान (मर्दाना कमजोरी) ने भी इसी तरह के मुद्दों को दर्शाया और जिन्हें खूब सराहा भी गया । पोस्टर बॉयज भी ऐसी ही एक फ़िल्म है जो नसबंदी जैसे मुद्दे को दर्शाती है । क्या यह फ़िल्म अपनी पूर्ववर्ती फ़िल्मों की तरह एक बड़ी मनोरंजक फ़िल्म बनने में कामयाब होगी या यह मनोरंजन करने में नाकाम हो जाएगी, आइए समीक्षा करते है ।

पोस्टर बॉयज तीन लोगों की कहानी है जिसकी जिंदगी तब बदलती है जब उनका कोई कसूर भी नहीं होता है । विनय शर्मा (बॉबी देओल) एक विनम्र स्वभाव के स्कूल शिक्षक हैं, अर्जुन सिंह (श्रेयस तलपड़े) एक उच्च उत्साही स्कूल शिक्षक हैं, जबकि जगावर चौधरी (सनी देओल) ,जो कि एक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी है, काफ़ी आक्रमक स्वभाव के है लेकिन सही मायनों में । वह जंगेठी गांव में रहते हैं और एक दिन, वो देखते हैं की उनकी तस्वीरें नसबंदी से जुड़े एक पोस्टर पर छप जाती है । यहीं से तीनों की जिंदगी में तरह-तरह की परेशानियां खड़ी हो जाती हैं । गांव के लोग उनकी मर्दानगी पर सवाल उठाने लगते हैं । वह सभी को समझाने की कोशिश करते हैं कि उनकी तस्वीरों का गलत इस्तेमाल किया गया है लेकिन उनकी बात कोई नहीं मानता । इसके बाद वह सरकार से उन्हें जो भी परेशानी हुई है उसका बदला लेने का फ़ैसला करते है । इसके बाद आगे क्या होता है, क्या उन्हें न्याय मिलता है, यह सब फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

पोस्टर बॉयज की शुरूआत कुछ खास नहीं होती है । शुरूआती हिस्सा बहुत खींचा जाता है, परिवार के सदस्यों और परिचितों द्दारा तीनों का मजाक बनाया जाता है, लेकिन इसका कारण नहीं बताया जाता कि ऐसा क्यों किया जा रहा है । टीवी स्टाइल का फ़्लैशबेक कुछ खास नहीं है । फ़िल्म में जान तब आती है जब तीनों एक पुल पर एक दूसरे से मिलते है । और यहीं से, फ़िल्म अंत तक सही मायने में मनोरंजक बनती है और फ़िर कोई भी नीरस क्षण देखने को नहीं मिलता है । कुछ सीन वाकई बेहतरीन हैं जैसे;- जगावर का अर्जुन और विनय को लड़ने से रोकना, तीनों का लोकल हेल्थ ऑफ़िस जाना, इंटरवल पॉइंट, जगावर का रिया (तृप्ति दीमिर) को आधीरात को कॉल करना, जगावार और विनय का डॉक्टर (अश्वनी खलसेकर) को बेवकूफ बनाना इत्यादि । फ़िल्म का क्लाइमेक्स सीन काफ़ी दिलचस्प है और मेकर्स का फ़िल्म की कहानी में एक सामाजिक संदेश को इतनी अच्छी तरह से जोड़ना वाकई प्रशंसनीय है ।

श्रेयस तलपड़े की कहानी अनोखी है और इसे एक मनोरंजक फ़िल्म बनाती है । बंटी राठौड़ और पारितोष पेंटर की पटकथा एक औसत शुरुआत के बावजूद पूरी तरह प्रभावी है । फ़िल्म में मजा कहीं भी खत्म नहीं होता है और यह एक बड़ी उपलब्धि है । बंटी राठौड़ और पारितोष पेंटर के डायलॉग मजेदार और हंसाने वाले है और फिल्म के हाईपॉइंट में से एक है । श्रेयस तलपड़े का डायरेक्शन काफ़ी अच्छा है और इसी के साथ उन्होंने निर्देशन के क्षेत्र में अपनी अच्छी शुरूआत की है । उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि इस विषय को उन्होंने सरल बनाया ताकि दर्शक इसे हल्के में न ले । इसके अलावा, जिस तरह से उन्होंने और उनकी टीम ने,देओल भाइयों की फिल्में जैसे दामिनी, सोल्जर इत्यादि का उल्लेख किया है, वह बहुत अच्छी तरीके से किया गया है ।

पोस्टर बॉयज तीनों मुख्य कलाकार के कंधो पर टिकी हुई है । सनी देओल सबसे ज्यादा जंचते हैं और अपने एक्शन और कॉमिक टाइमिंग से धमाल मचा देते है । यहां तक की इस उम्र में भी वह काफ़ी फ़िट और ऊर्जावान हैं जो वाकई काबिलेतारिफ़ है । श्रेयस तलपड़े फ़िल्म के सरप्राइज है । उनका किरदार बहुत ही दिलचस्प है और वह अच्छी तरह से मनोरंजन करने में कामयाब होते है । बॉबी देओल शुरू में थोड़े ठंडे से लगते हैं, लेकिन एक बार जब वह अपने किरदार में घुसते है तो फ़िर वह नहीं रुकते है । जो बात उनके पक्ष में जाती है वो है उनका अजीबोगरीब किरदार । एक महान वापसी, संक्षेप में! सोनाली कुलकर्णी ठीकठाक है लेकिन उनके पास करने के लिए ज्यादा कुछ स्कोप नहीं है । समीक्षा भटनागर (सूरजमुखी) अपने किरदार की आवश्यकता के मुताबिक बहुत लाउड हैं और फ़िल्म में आनंद को बढ़ाती है । तृप्ति दीमरी अच्छी है और वहीं अश्वनी खलसेकर काफ़ी मजेदार है । रवि झंकल (रिया के पिता), मुरली शर्मा (स्वास्थ्य मंत्री) और सचिन खेडेकर (मुख्यमंत्री) अपनी छोटी भूमिकाओं में जंचते है । एली अवराम अपने आइटम सॉंग में काफ़ी हॉट दिखाई देती है ।

इसके म्यूजिक की बात करें तो, 'कुढ़िया शहर दियां' बहुत ही यादगार गाना है । 'केंदी मेनु' अंत में क्रेडिट देने के दौरान बजाया जाता है । 'नूर ए खुदा' याद रखने योग्य नहीं है और 'पोस्टर बॉयज एंथिम' पैर थिरकाने वाला है । अमर मोहिले का बैकग्राउंड स्कोर एक विशाल स्पर्श रखता है ।

निगम बमज़ान का छायांकन संतोषजनक है । देवेन्द्र मुर्देश्वर का संपादन सरल है, लेकिन शुरुआती भागों में और भी मजेदार हो सकता था । सोमनाथ पार्के का प्रोडक्शन डिजाइन अच्छा नहीं है और आकर्षक नहीं करता है । विक्रम दहिया के एक्शन मेसी है ।

कुल मिलाकर, पोस्टर बॉयज आपको हंसाने का दम रखती है और बहुत ही करीने से एक सामाजिक संदेश देती है । अफ़सोस की बात है कि, प्रमोशन की कमी और अजीब समय के साथ सीमित शो, फ़िल्म के लिए बुरे साबित हो सकते है । लेकिन फ़िल्म के लिए की गई तारीफ़ इसे बदलकर रख देगी ।