पिछले कुछ सालों से बॉलीवुड में स्वतंत्रंता से पहले के युग को दर्शाती बेस्ड फ़िल्मों का चलन बढ़ गया है । न केवल असल जिंदगी के किरदार जैसे- मणिकर्णिका- द क्वीन ऑफ़ झांसी, केसरी या सई रा नरसिम्हा रेड्डी बल्कि काल्पनिक फ़िल्में जैसे- ठग्स ऑफ़ हिंदोस्तान, तुम्बाड़ भी खूब देखने को मिल रही है । और अब इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई है सैफ़ अली खान की लाल कप्तान, जो एक बदले की कहानी है । तो क्या लाल कप्तान दर्शकों को लुभाने में कामयाब होगी या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाएगी ? आइए समीक्षा करते है ।
लाल कप्तान, दो दशकों के बदले की कहानी है । ये साल 1789 है, बक्सर की लड़ाई के 25 साल बाद हंटर (सैफ अली खान) एक नागा साधु है जो रहमत खान (मानव विज) नामक एक व्यक्ति की तलाश में है । नूर बीबी (सोनाक्षी सिन्हा) के माध्यम से, हंटर को पता चलता है कि रहमत उत्तर भारत में एक राज्य का गवर्नर है । दुष्ट रहमत अपने राज्य का सारा खजाना छीनकर अपने नौकरों को मार डालता है । जब तक हंटर रहमत की खोज में किले पर आता है तब तक रहमत वहां से गायब हो जाता है । हंटर की किले में कुछ पठानों से लड़ाई होती है जिसमें वह घायल हो जाता है तब किले में मौजूद एक विधवा उसकी देखभाल करती है । वह उसे अपने साथ चलने का अनुरोध करती है लेकिन हंटर मना कर देता है लेकिन वह महिला उसका पीछा करती है । हंटर और महिला के बाद, एक ट्रैकर (दीपक डोबरियाल) जो अपनी महक शक्ति और पालतू कुत्तों की मदद से ठिकाने का पता लगाने में माहिर है, किले तक पहुँचता है । कुछ समय में, मराठा किले पर हमला करते हैं और ट्रैकर उन्हें रहमत को खोजने में मदद करने के लिए सहमत होता है । इस बीच, कुछ दिनों बाद, हंटर उस जगह पर पहुँच जाता है जहाँ रहमत और उसकी सेना ने रात के लिए डेरा डाल दिया है । हंटर चुपचाप रहमत के तंबू में घुस गया, लेकिन उसने उसे नहीं मारा, जो 25 साल से उसका एकमात्र उद्देश्य था । रहमत की सेना हंटर को पकड़ लेता है । इसके बाद आगे क्या होता है ये आगे की फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।
दीपक वेंकटेश और नवदीप सिंह की कहानी बहुत ही घटिया है और बॉलीवुड और हॉलीवुड की कुछ फ़िल्मों का फ़ील देती है । दीपक वेंकटेश और नवदीप सिंह की पटकथा भ्रमित और अप्रभावी है । फिल्म में बहुत सारे ट्रैक हैं और हंटर के ट्रैक को छोड़कर, इनमें से कोई भी दिलचस्प नहीं है । इसके अलावा, सभी ट्रेक्स के बीच कोई समीकरण नहीं है । सुदीप शर्मा के संवाद कुछ खास नहीं हैं । वन-लाइनर्स लुभाने में विफल होते हैं ।
नवदीप सिंह का निर्देशन बेहद निराशाजनक है । उनके हाथ में बहुत कमजोर मेटेरियल था और उसे वह अपने कमजोर निष्पादन से और खराब कर देते है । फिल्म बेहद शुष्क और धीमी है और बहुत कम दृश्य आपका ध्यान आकर्षित करते हैं । लेकिन यह सिर्फ प्रभावित नहीं करता है । यहां तक कि ये देखना भी मूर्खतापूर्ण लगता है कि हंटर दो बार रहमत खान के पास से गुजरता है फ़िर भी उसे नहीं मारता है ।
लाल कप्तान, फ़्लैश बैक पोर्शन के कारण शुरूआत में पेचिदी सी लगती है । हंटर की एंट्री हीरो की तरह होती है लेकिन फ़िर फ़िल्म बिखर जाती है और ये अंत तक बनी रहती है । हालांकि बीच के कुछ मिनट फ़िल्म को बेहतर बनाते है लेकिन ये फ़िल्म को बचा नहीं पाते । फिल्म 155 मिनट में बहुत लंबी है और बहुत धीमी गति से चलती है । इसके अलावा कहानी बहुत यादृच्छिक है और कन्फ़्यूज करने वाली है । इसलिए, दर्शकों को बांधे रखने में ये विफ़ल होती है । यह समझना मुश्किल होता है कि, हंटर 25 साल से रहमत खान को खोजने के लिए बेताब है और जब वह अंत में उससे मिलता है, तो वह उसे कभी नहीं मारता है । अंत में, इसका कारण पता चला है लेकिन यह बहुत ही असंबद्ध और मूर्खतापूर्ण है ।
अभिनय की बात करें तो, सैफ़ अली खान फ़िल्म को कुछ हद तक देखने लायक बनाते है । उनका लुक काफी डेशिंग है और वह एक्शन सीन में छा जाते है । एक बुरे व्यक्ति के रूप में मानव विज भी बहुत अच्छा करते हैं । इस तरह की भूमिकाओं के लिए उनकी गंभीर आँखें बहुत अच्छी तरह काम करती हैं । दीपक डोबरियाल हल्के-फुल्के लुभावने हैं लेकिन ज्यादातर दृश्यों में उनका अभिनय हंसी नहीं बढ़ाता । जोया हुसैन अपने रोल में जंचती है । सिमोन सिंह सभ्य हैं । आमिर बशीर और ईशिका डे कामचलाऊ हैं । नीरज कबी (सादुल्ला खान) कैमियो में अच्छा प्रदर्शन देते है और चेतन हंसराज (संग्राम सिंह) और अजय पॉल (ठाकुर) भी ठीक लगते है । सोनाक्षी सिन्हा बर्बाद हो जाती है क्योंकि वह सिर्फ़ एक सीन के लिए है ।
समीरा कोप्पिकर का संगीत कुछ खास नहीं है और गानो का इस्तेमाल बहुत बुरी तरह से किया गया है । 'तांडव' सुनने में अटपटा सा लगता है । 'काल काल' और 'लहु का रंग कारा' वांछित प्रभाव नहीं डालते हैं । बेनेडिक्ट टेलर और नरेन चंदावरकर का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के मूड के अनुरूप है ।
शंकर रमन की सिनेमैटोग्राफी शानदार है और फिल्म की शूटिंग कुछ अनदेखी जगहों पर की गई है । राकेश यादव का प्रोडक्शन डिजाइन प्रामाणिक है । दर्शन येवलेकर का बालों का डिजाइन और धनंजय प्रजापति का मेकअप शानदार है, खासकर सैफ के मामले में । मैक्सिमा बसु गोलानी की वेशभूषा भी 18वीं सदी के भारत जैसी है । इल्यूजन ईथर का वीएफएक्स ठीक है लेकिन कुछ सीन में और बेहतर हो सकता था । जबीन मर्चेंट का संपादन कई दृश्यों में गज़ब का है ।
कुल मिलाकर, लाल कप्तान एक अजीब और बेकार फ़िल्म है जिसमें दर्शकों को रिझाने के लिए कुछ नहीं है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म कम चर्चा में होने और दीवाली से पहले के के पीरियड के कारण बहुत संघर्ष करेगी ।