अब तक, हर कोई जानता है कि बॉलीवुड में सबसे महत्वपूर्ण दिन शुक्रवार है, यह सप्ताह का वो दिन होता है जो कई सपनों को बनाता है या तोड़ता है । इस हफ़्ते बॉक्सऑफ़िस पर रिलीज हुई सैयामी खेर के साथ अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर की डेब्यू फ़िल्म मिर्जिया । क्या मिर्जिया हर्ष के लिए सूर्योदय साबित होगी और इस नवोदित यानी नए कलाकार को सुपरस्टारडम हासिल होगा या ये बॉक्सऑफ़िस पर पिट जाएगी, आइए समीक्षा करते हैं ।

राकेश ओमप्रकाश मेहरा की मिर्जिया अनिवार्य रूप से समकालीन समय के दौरान की प्रेम कहानी है । फ़िल्म की शुरूआत होती है मुनीश (हर्षवर्धन कपूर) और सुचित्रा उर्फ सुची (सैयामी खेर) के बचपन के परिचय से । ये दोनों न केवल स्कूल साथ-साथ जाते हैं बल्कि स्कूल में एक ही बेंच पर बैठते भी हैं और हमेशा एक-दूसरे की जरूरत पड़ने पर मदद भी करते हैं । एक दिन जब स्कूल टीचर मुनीश से उसके होमवर्क के बारें में पूछता है, तो सुची उसे अपनी कॉपी उधारनुमा दे देती है । और जब टीचर सुची से उसके होमवर्क के बारें में पूछता है तो वह कहती है कि उसने होमवर्क नहीं किया । टीचर इस बात से नाराज हो जाता है और उसे एक डंडे से मारता है । ये सब मुनीश नहीं देख पाता, मुनीश सुची के पिता, जो पुलिस ऑफ़िसर होते हैं, की बंदूक छीनकर उस स्कूल टीचर को दिन में ही मार देता है और वो टीचर दिन के उजाले में ही मर चुका होता है । इसके बाद, मुनीश को बाल सुधार गृह भेजने की सजा होने के बावजूद सुची की बाध्यकारी विचार मुनीश को वहां से भगाते हैं । इसी बीच, सुची और उसके पिता जोधपुर हमेशा के लिए छोड़ देते हैं और एक नई जगह शिफ़्ट हो जाते हैं । कुछ सालों बाद, बड़ी सुची विदेश से लौटती है जिसे उसका मंगेतर प्रिंस करण (राज चौधरी) रिसीव करने आता

है । संयोग से, मुनीश (जो अब आदिल मिर्जा के रूप में एक बदला हुआ जीवन जीता है ) प्रिंस के अस्तबल में काम करता है और सुची को घुड़सवारी सिखाना शुरू करता है । मुनीश सुची को पहचान लेता है लेकिन वह तब तक सुची को ये सच्चाई नहीं बताता जब तक की सुची उसे पहचान नहीं लेती की वह कौन है । दोनों एक बार फ़िर प्यार में पड़ जाते हैं, लेकिन उनके बचपन की तुलना में चीजें अब बहुत अलग हैं । क्या मुनीश सुची के सामने अपने प्यार का इजहार कर पाता है, क्या सुची प्रिंस करन के साथ अपनी शादी को आगे बढ़ाती है और क्या सुची और मुनीश अपने प्यार के लिए दुनिया से लड़ने का साहस जुटा पाते हैं, ये सब फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

जब मिर्जिया के प्रोमो रिलीज किए गए, तो इसने दर्शकों को दो अलग-अलग युगों में एक प्रेम कहानी के एक अद्भुत दृश्य का अनुभव दिया । अफसोस की बात है, यह फ़िल्म, उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती है जो कि राकेश मेहरा की फिल्मों से रहती है । इस फिल्म की पटकथा (गुलजार) विचित्र, भ्रामक और बेहद धीमी गति से चलने वाली है । बहुत दुख की बात है कि गुलजार जैसी सिनेमाई क्षमता और प्रभाव वाली फ़िल्मी दुनिया का इतना प्रतिभाशाली व्यक्ति एक पारंपरिक प्रीमियम कथा के साथ इतना गलत कैसे हो सकता है ।

मिर्जिया, कुल मिलाकर, तीन कहानियों पर सवार है । पहली, मुनीश और सुची के बीच की वर्तमान समय की प्रेम कहानी, दूसरी, मिर्जा-साहिबान ( दृष्टिगत रूप से द गेम ऑफ थ्रोन्स 'खालिसी' से खासी प्रभावित है ) की पौराणिक कहानी और तीसरी, लोक नर्तकों का एक झुंड जो हमेशा नशे में धुत्त-मदमस्त रहता है और बेतरतीब तरीके से उत्तेजक नृत्य करने लगते हैं । ये सब कुछ मिलाकर एक ऐसा परिदृश्य बनाया है जो दर्शको को हजम नहीं हो सकता ।

गुलजार के अलावा, मिर्ज़िया के निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा (जिसने रंग दे बसंती

और भाग मिल्खा भाग जैसी कमाल की फ़िल्में बनाई) समान रूप से दोषी ठहराया जा रहे हैं । स्थिति की विडंबना यह है कि, भले ही राकेश ओमप्रकाश मेहरा आज के दर्शकों की पसंद और नब्ज को जानते हैं, लेकिन वो मिर्जिया को लेकर मात खा जाते हैं, जिसे दो नए चेहरे और करियर का लॉंच पैड होना था । मिर्जिया में राकेश ओमप्रकाश मेहरा का निर्देशन न केवल मामूली है बल्कि पूरी तरह से दिशाहीन है । फ़िल्म के कमजोर कथानक के अलावा, फ़िल्म में कई कमियां और कई अस्पष्टीकृत घटनाएं और स्थिती हैं । यह सब दर्शकों को फ़िल्म की सम्पाति तक कन्फ्यूज़्ड और परेशान कर देती है । जहां फ़िल्म का फ़र्स्ट हाफ़ फ़िल्म के मुख्य किरदारों के रोमांटिक एंगल को दिखाने में निकल जाता है वहीं फ़िल्म का सेकेंड हाफ़ बिना कारण और रोक के अनवरत खींचा चला जाता है । राकेश ओमप्रकाश मेहरा यकायक कई महत्वपूर्ण दृश्यों को खत्म कर देते है, और हमें सुनने को मिलती है बस दलेर मेंहदी की ऊंची तान । ये ही नहीं, फ़िल्म में कई ऐसे सीन है जिनका कोई मतलब नहीं था और वो महज आपके धैर्य की परिक्षा लेते हैं, जैसे- ओमपुरी की आवाज़ जो फ़िल्म में लगातार 'होता है, होता है, इश्क मैं अक्सर ऐसा होता है' कहते हुए सुनाई देती है, एक तरह से इशारा करती है कि मेकर्स को कहीं न कहीं पता था कि वे जो दिखा रहे हैं सिर्फ तर्कहीन है । ये सब दर्शकों को ये हैरान करने पर मजबूर करता है कि आखिर राकेश ओमप्रकाश के दिमाग में चल क्या रहा था और मिर्जिया के माध्यम से क्या संदेश देने की कोशिश कर रहे थे । मिर्जिया की कहानी का प्लॉट (अमीर महिला-गरीब लड़का-अनुमोदन माता पिता) बॉलीवुड में पहले भी अनगिनत बार आजमाया गया है , मिर्जिया में कोई भी नयापन नहीं दिखता है । फिल्म, समग्रता में पूरी तरह से बेजान लगती है और मुँह के बल गिरती है ।

अभिनय की बात करें तो ये फ़िल्म पूरी तरह से फ़िल्म के मुख्य किरदारों हर्षवर्धन कपूर और सैयामी खेर के कंधों पर विराजमान है । हर्षवर्धन कपूर एक नवोदित हीरो के रूप में बहुत जंचते हैं और आसानी से कैमरे का सामना करते हैं । वह अपने अधपके किरदार

के साथ न्याय करने की कोशिश करते हैं और स्क्रीन पर काफ़ी आत्मविश्वासी दिखते हैं । चूंकि सैयामी खेर ने पहले कुछ मॉडलिंग असाइन्मेंट किए हैं इसलिए वह नवोदित के रूप में कैमरे के सामने बहुत सहज लगीं । सैयामी की बॉडी लैंगग्वज और बेइंतहा खूबसूरती से फ़िल्म में उनकी उपस्थिती बहुत प्यारी लगती है । वह बहुत होनहार भी दिखती हैं और बॉलीवुड में ऐसी अभिनेत्री को ध्यान में रखा जाना चाहिए । पूर्ण निष्पक्षता में, दोनों नए कलाकार, कलाकारों के रूप में अपार क्षमता दिखाते हैं । एक राजस्थानी राजकुमार के रूप में राज चौधरी जंचते हैं । बीते जमाने के अभिनेता ओम पुरी, जो फ़िल्म की शुरूआत सीन में ही नजर आते हैं, फ़िल्म के आगे बढ़ने के साथ धीरे-धीरे गायब हो जाते हैं । फ़िल्म में उनकी उपस्थिती केवल उनकी आवाज दर्ज कराती है । फ़िल्म के बाकी के कलाकार फ़िल्म को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं ।

फिल्म का संगीत (शंकर-एहसान-लॉय) फ़िल्म में जबरदस्ती घुसाया हुआ लगता है और प्रभावशाली भी नहीं है । सब कुछ के बीच में, फ़िल्म के सभी गानों में से कुछ गाने जो अच्छे हैं वो हैं - "तीन गवाह" और फ़िल्म का टाइटल सॉंग (जो बार-बार बजता है और धीरे-धीरे परेशान करने लगता है) । इसके अलावा फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर औसत है, जो फ़िल्म के गानों द्दारा (कई बार) ओवरलैप हो गया ।

फिल्म का संपादन (पी एस भारती) औसत है । फिल्म का (पावेल डायलस ) छायांकन उत्कृष्ट है । ये उनका करिश्मा ही है जिसके चलते ये फ़िल्म दर्शकों के लिए एक विजुअल डिलाइट है । उन्होंने मिर्ज़ा और शाहिबन की पौराणिक कहानी को बहुत ही मोहक तरीके से बांधा है । इतनी खूबसूरती से फ़िल्म को पेश करने के लिए पावेल डायलस की खूब सरहाना की जाने की जरूरत है । हालंकि फ़िल्म का वीएफ़एक्स भड़कीला दिखता है जो कि और अच्छा किया जा सकता था, एक्शन सीन (ऑस्ट्रेलियाई एक्शन निर्देशक डैनी बाल्डविन) प्रभावशाली हैं ।

कुल मिलाकर, मिर्ज़िया, आश्चर्यजनक दृश्यों और मुख्य कलाकारों द्दारा किए गए अच्छे प्रदर्शन से इतराती है । फ़िर भी फ़िल्म का व्यवसायिक दृष्टिकोण न होने से मजा किरकिरा हो जाता है । बॉक्सऑफ़िस पर ये फ़िल्म संघर्ष करेगी और ये मल्टीप्लेक्स जाने वाले खास तबके को ही प्रभावित कर पाएगी ।

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