साल 1935 में पहली महिलाप्राधान फ़िल्म आई थी हंटरवाली जिसने फियरलेस नाडिया को एक्शन स्टार के तौर पर उभारा । पिछले कुछ वर्षों में,बॉलीवुड में  मदर इंडिया, बैंडिट क्वीन, कहानी, क्वीन, मर्दनी जैसी कई महिला प्रधान फ़िल्में आईं । इस हफ़्ते भी बॉक्सऑफ़िस पर रिलीज हुई एक और महिला प्रधान फ़िल्म अकीरा जिसमें सोनाक्षी सिन्हा ने मुख्य भूमिका निभाई है । क्या ये फ़िल्म बॉक्सऑफ़िस पर सफ़ल साबित होगी या धराशायी हो जाएगी, आइए समीक्षा करते हैं ।

 

फ़ॉक्स स्टार स्टूडियो की फ़िल्म अकीरा जो कि सुपरहिट तमिल फ़िल्म मौना गुरु का हिंदी रीमेक है, एक दिलेर महिला, उसकी दिलेरी और क्रूर- भ्रष्ट पुलिस के एक महकमे, जो अपने अस्तित्त्व को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, से लड़ाई की कहानी है । फ़िल्म की शुरूआत इंस्पेक्टर राबिया (कोंकणा सेन शर्मा) द्दारा अकीरा शर्मा  (सोनाक्षी सिन्हा ), के जबानी परिचय से होती है ।  फ़िल्म की कहानी की शुरूआत जोधपुर (राजस्थान) में 14 साल पहले अकीरा के बचपन से होती है । जब अकीरा स्कूल से लौट रही होती है तब वह एक एसिड हमले को अपनी आंखों से देख लेती है । इस अप्रिय घटना के कारण अकीरा के गूंगे-बहरे पिता (अतुल कुलकर्णी) अकीरा को मार्शल आर्ट सीखाने के लिए भेज देते हैं > एसिड अटैक की गवाह बनीं अकीरा पर जब आरोपी एसिड अटैक करता है तो वह गलती से उन हमलावरों में से किसी एक पर वो तेजाव फ़ेंक देती है जिसके चलते अकीरा को बाल सुधार गृह की जेल हो जाती है । पर जैसे ही वह बड़ी होती है पिता की मौत के बाद अकीरा अपनी मां (स्मिता जयकर) के साथ मुंबई में अपने भाई के घर आ जाती है और कालेज में दाखिला ले लेती है । मुंबई आकर अकीरा की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है । और फ़िर उसे एहसास होता कि उसे उस अपराध  की सजा मिली जो उसने किया ही नहीं । इसके बाद सिलसिला शुरू होता है अकीरा के हमलों का, हत्याओं का, शारिरीक और मानसिक यातनाओं का सिलसिला, और ये सब कुछ होता है ड्रग सूंघाने वाले एसीपी राने (अनुराग कश्यप) और उनके विश्वासपात्र पुलिसवालों के इशारे पर । निर्दोष अकीरा पर अत्याचार हद पार कर जाती है कि उसे आधिकारिक तौर पर पागल करार कर दिया जाता है और उसे एक पागलखाने में दूर फ़ेंक दिया जत है । ऐसा क्या कारण था कि एसीपी राणे अकीरा की जान के पीछे हाथ धोके पड़ गया, क्या अकीरा पागलखाने से बाहर का रास्ता खोजने के लिए और अपनी बेगुनाही साबित कर पाती है, यह सब फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

आज भले ही बॉलीवुड में महिलाओं के ऊपर बनी फ़िल्मों का खुले दिल से स्वागत किया जा रहा है, पर इस शैली में एक उत्कृष्ट फ़िल्म बनाने के लिए एक उत्कृष्ट कहानी के साथ-साथ  सबको पसंद आने वाली पटकथा की भी जरूरत पड़ती है । अकीरा के केस में, एक दमदार संदेश देने और दिलचस्प कॉंसेप्ट के बावजूद फ़िल्म का कमजोर स्क्रीनप्ले (सांताकुमार, ए.आर. ए आर मुरुगदॉस ) फ़िल्म को शिथिल बनाता है । फ़िल्म की स्क्रिप्ट पूरी तरह से असंबद्ध है, जो पूरी फ़िल्म में एक विलेन की तरह हावी रही । फ़िल्म में सीमित एक्शन सीन, कोई रोमांस नहीं और न ही कोई म्यूजिक की वजह फ़िल्म में मनोंरजक एलीमेंट कुछ भी नहीं था । यह फ़िल्म दर्शकों के लिए मनोरंजन के क्षेत्र में पूरी तरह से असफ़ल साबित होती है । फिल्म के संवाद (करण सिंह राठौड़) बेहद औसत रहे हैं ।

हालांकि निर्देशक ए आर मुरुगदॉस का दक्षिण फ़िल्म इंडस्ट्री में एक से बढ़कर एक हिट फ़िल्में देने के लिए खूब नाम है । अकीरा उनकी तीसरी हिंदी फ़िल्म है (पहली गजनी और दूसरी हॉलिडे: अ सोल्जर नेवर ऑफ ड्यूटी ) । जहां ए आर मुरुगदॉस की दो फ़िल्में ब्लॉकबस्टर साबित हुई इसलिए अकीरा को लेकर एक निर्देशक के रूप में ए आर मुरुगदॉस से उम्मीदें ज्यादा रखी गईं । फ़िल्म का फ़र्स्ट हाफ़ तेजी और यथार्थपूर्ण तरीके से आगे बढ़ाने के बावजूद ए आर मुरुगदॉस इसे सेकेंड हाफ़ तक नहीं खींच पाते, वजह कमजोर पटकथा । अकीरा का सेकेंड हाफ़ वाकई बहुत ज्यादा धीमा और फ़ीका हो जाता है और वहीं फ़िल्म निराश करती है ।  जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है इसकी (अनजाने) नैतिकता खोती जाती है और फ़िल्म गंभीर और डार्क रूप ले लेती है, जैसा कि आमतौर पर अनुराग कश्यप की फ़िल्मों में देखा जा सकता है ।  फ़िल्म की टैगलाइन जिसने चिल्ला-चिल्लाकर कहा ' किसी को बख्शा नहीं जाएगा' ने काफ़ी हद तक निराश किया क्योंकि हर किसी ने इस टैगलाइन के चलते फ़िल्म से एक्शन सीन की भरमार और एड्रेनालाईन रश की उम्मीद लगा ली । फ़िल्म इन दोनों के लिए ही निराश करती है, फ़िल्म के अंत में दर्शक इसको लेकर ठगा सा महसूस करते हैं । फ़िल्म में ऐसे कई अस्पष्टीकृत और अवांछित दृश्य हैं जो सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर हमला करते हैं । फ़िल्म का क्लाइमेक्स पूरी तरह फ़ुस्स हो जाता है यानी बुरी तरह निराश करता है , एक अच्छी संकल्पना के खराब क्रियान्वयन का अच्छा उदाहरण है ये फ़िल्म । कुछ एक फ़िल्म के सीन जैसे की एक पागल मरीज बिनाकिसी गलती के वेन चलाता है, पुलिस की देरी से जांच-पड़ताल, बेहद चालू जान पड़ती है ।

अभिनय की बात करें तो, ये पूरी फ़िल्म सोनाक्षी सिन्हा और अनुराग कश्यप के कंधों पर विराजमान रही । सोनाक्षी अब तक की अपनी पिछली फ़िल्मों की तुलना में इस फ़िल्म में रहस्योद्घाटन के रूप सामने आईं हैं यानि इस फ़िल्म में उन्होंने अब तक का सबसे शानदार अभिनय किया है वहीं दूसरा पहलू यह है कि, इस फ़िल्म में उनके एक्शन सीन बहुत ही सीमित है । लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अकीरा ने सोनाक्षी को अपने शानदार अभिनय और एक्शन सीन को दर्शाने का अवसर दिया है , लेकिन ऊटपटांग पटकथा ने फ़िल्म को मात दे दी । जैसा कि फ़िल्म के प्रोमो में दिखाया गया था कि सोनाक्षी सिन्हा फ़िल्म में खतरनाक स्टंट सीन कर रही हैं जिसे देखकर लगा था कि इसमें सोनाक्षी के स्टंट सीन की भरमार होगी लेकिन यहां बहुत निराशा होती है क्योंकि फ़िल्म में सोनाक्षी के बहुत कम स्टंट सीन हैं । वहीं दूसरी तरफ़, अनुराग कश्यप ने इस फ़िल्म में खतरनाक प्रदर्शन किया है । हालांकि एक अभिनेता के रूप में अनुराग की यह पहली फ़िल्म नहीं है, एक अभिनेता के रूप में उन सभी फिल्मों में जिनमें अब तक उन्होंने अभिनय किया है, अकीरा में एक निर्लज्ज पुलिस वाले की भूमिका में वह अपने तेज को साबित करते हैं । फ़िल्म में उनके परिचय दृश्यों को मिस मत कीजिए जहां वह अपने अधीनस्थों को परफ़ेक्ट टाइमिंग के बारें में सीखाते हैं । कोंकणा सेन शर्मा, जो एक बेहतरीन निर्देशक के रूप में भी जानी जाती हैं, को पूरी फ़िल्म के दौरान  भारी गर्भवती दिखाया गया है । सीमित स्क्रीन टाइम के बावजूद कोंकणा दर्शकों को निराश नहीं करती हैं  । फ़िल्म के बाकी के कलाकार फ़िल्म को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं  ।

फिल्म में संगीत के लिए कोई गुंजाइश (विशाल-शेखर) नहीं है । हालांकि इसका बैकग्राउंड स्कोर (जॉन स्टीवर्ट इड्यूरी) इसकी कहानी में मदद करता है । फिल्म का छायांकन (आर डी राजशेखर, आईएससी) अच्छा है । फिल्म का संपादन (ए स्रीकर प्रसाद) बिल्कुल औसत है ।

कुल मिलाकर, अकीरा एक दिलचस्प अवधारणा है जो इसके कमजोर पटकथा और मनोरंजन कमी के कारण मात खा जाती है । बॉक्सऑफ़िस पर ये फ़िल्म कमाल नहीं दिखा पाएगी और इसे नकार दिया जाएगा जिससे इसके निवेशकों को भारी घाटा होगा ।

टैग: Akira