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ज्यादातर वयस्कों के लिए, कॉलेज में बिताए गए साल उनकी जिंदगी के अहम सालों में से एक होते है । यूथ के लिए ये एक ऐसा समय होता है जब उनके सिर पर अनिश्चित भविष्य का डर हमेशा मंडराता रहता है लेकिन दोस्तों का साथ और उनके साथ बिताए पल इस पल को आनंद दायक बना देते है । इस हफ़्ते, ब्लॉकबस्टर फ़िल्म दंगल देने वाले नितेश तिवारी इसी कॉलेज और होस्टल लाइफ़ पर बेस्ड फ़िल्म लेकर आए हैं छिछोरे । ये फ़िल्म न केवल स्टूडेंट लाइफ़ बल्कि उनकी रीयूनियन पर भी केंद्रित है । तो क्या छिछोरे दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब हो पाएगी या यह अपने प्रयास में विफ़ल होती है ? आइए समीक्षा करते है ।

Chhichhore Movie Review: मनोरंजन के साथ अहम मैसेज देती है छिछोरे

छिछोरे, ऐसे 'लूजर्स' फ़्रेंड्स की कहानी है जो विजेता बनने की कोशिश करते हैं और उस दौरान कई महत्वपूर्ण सबक सीखते है । अनिरुद्ध पाठक उर्फ अन्नी (सुशांत सिंह राजपूत) एक मध्यम आयु वर्ग का व्यक्ति है जो अपनी पत्नी माया (श्रद्धा कपूर) को तलाक देने के बाद अपने बेटे राघव (मोहम्मद समद) के साथ मुंबई में रहता है । एंट्रेंस एग्जाम्स में जब राघव का सिलेक्शन नहीं हो पाता, तो वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाता और दोस्त की बिल्डिंग से कूदकर जान देने की कोशिश करता है । खुदकशी की कोशिश में उसके दिल-दिमाग पर गहरी चोट लगती है । अनिरुद्ध जब बेटे को हाथों से जाता हुआ देखता है, तो बेटे को बचाने के लिए अपने हॉस्टल डेज के दौर में ले जाता है । वह उसे अपने मुंबई के नेशनल कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलॉजी के इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स के इतिहास को बताता है । वह अपने हॉस्टल के दिनों से शुरू करता है । वह अपने कॉलेज में लूजर्स कहलाए जाते थे और इसी तरह से उन्हें हॉस्टल के रूप अलॉट हुए थे । हॉस्टल में माया के प्यार के साथ उसे सेक्सा( वरुण शर्मा), डेरेक (ताहिर राज भसीन), एसिड (नवीन पॉलीशेट्टी), बेवड़ा (सहर्ष शुक्ला), क्रिस क्रॉस( रोहित चौहान), मम्मी (तुषार पांडे) जैसे जिगरी दोस्तों की दोस्ती मिलती है, तो रेजी (प्रतीक बब्बर) जैसे अव्वल स्टूडेंट की राइवलरी । गहन बेहोशी में जा चुके राघव की बॉडी पिता अनिरुद्ध की यादों के साथ रिस्पॉन्ड करने लगती है । अनिरुद्ध अपने हॉस्टल के इन सभी जिगरी यारों को इकट्ठा करता है। अनिरुद्ध राघव को बताता है कि कैसे वे हॉस्टल में लूजर्स के नाम से कुख्यात उन लोगों ने खुद को लूजर्स के टैग से मुक्त करने की कोशिश की थी, मगर अनिरुद्ध के अतीत की कहानी से राघव की हालत क्रिटिकल हो जाती है । क्या अनी अपने अतीत की इस कहानी से अपने बेटे की जान बचाने में कामयाब हो पाता है, इसके लिए पूरी फ़िल्म देखनी होगी ।

नितेश तिवारी, पीयूष गुप्ता और निखिल मेहरोत्रा की कहानी मनोरंजक है और एक दम रखती है । ट्रेलर और प्रोमो से कहीं ज्यादा है यह फ़िल्म । नितेश तिवारी, पीयूष गुप्ता और निखिल मेहरोत्रा की पटकथा कहानी को उसकी संभावित क्षमता तक तो नहीं पहुंचते हैं लेकिन वे अपनी पूरी कोशिश करते हैं और कहानी को सरल बना देते हैं । वे जनता को आकर्षित करने के लिए फ़िल्म में पर्याप्त मात्रा में हास्य भी जोड़ते हैं । लेकिन इमोशनल हिस्सों में यह बनावटी भी लगता है । पात्रों के संदर्भ में थोड़ी और गहराई, उनकी पृष्ठभूमि आदि की आवश्यकता थी । नितेश तिवारी, पीयूष गुप्ता और निखिल मेहरोत्रा के संवाद सरल लेकिन मज़ेदार और अच्छे हैं । हालाँकि, यहां यह इच्छा अधूरी रह जाती है कि लेखकों को वन लाइनर्स और स्लोगन थोड़े दमदार लिखने चाहिए थे ।

नितेश तिवारी का निर्देशन ज्यादातर हिस्सों के लिए उपयुक्त है । वह वर्तमान दिन और फ्लैशबैक दृश्यों के साथ आगे और पीछे जाने के तरीके के लिए प्रशंसा के पात्र हैं । इसके अलावा, क्लाइमेक्स में, तीन दृश्य समानांतर चल रहे हैं - एक शतरंज टूर्नामेंट दूसरा रिले और तीसरा बास्केटबॉल मैच । वे इन तीनों को बखूबी मिक्स करते है । लेकिन इसके विपरित वह किरदारों की जिंदगी के डिटेल देने से चूक जाते है जो फ़िल्म के प्रभाव को कम करता है । उदाहरण के लिए, दर्शकों को यह ठीक से पता नहीं चल पाता है कि आखिर अन्नी और माया के बीच क्या हुआ जिसकी वजह से उन्हें तलाक लेना पड़ा और माया ने राघव की कस्टडी क्यों नहीं ली । सेक्सा और मम्मी के अलावा किसी भी स्टूडेंट के माता-पिता को दिखाया नहीं गया । नतीजतन, ये पता नहीं चल पाता कि किस तरह की फ़ैमिली से वे लोग आते है । इतना ही नहीं, वर्तमान समय में भी, एक हद तक मम्मी और सेक्सा को छोड़कर, अन्य पात्रों के जीवन के बारे में कुछ भी खुलकर पता नहीं चलता है । फ़िल्म में ऐसे कई सीन हैं जो कई सारे सवाल अधूरे छोड़ जाते है ।

छिछोरे की शुरूआत काफ़ि उच्च स्तर पर होती है, जो हॉस्टल में होने वाली शरारत के साथ-साथ H3 और H4 के बीच की दुश्मनी को दर्शाती है । इसके बाद फिल्म राघव पर केंद्रित होती है जो अपने परिणाम को लेकर परेशान हो जाता है । फिल्म यहां थोड़ी बिखर जाती है लेकिन यहां आया सुसाइड सीक्वंस फ़िर से फ़िल्म मेम दिलचस्पी जगा देता है । जल्द ही फ़्लैशबेक सीक्वंस शुरू होता है और फ़िल्म में दिलचस्पी बढ़ जाती है । यहां से, दर्शकों को थोड़ी शिकायते हैं निर्देशक नितेश तिवारी से क्योंकि उन्होंने शुरूआती एक घंटा, किरदारों का परिचय, कॉलेज सेटिंग और स्टूडेंट्स के लिए GC क्या मायने रखती है, में खर्च कर देते है । सेकेंड हाफ़ में कॉलेज पोर्शन काफ़ी मनोरंजन पैदा करता है और हास्य लेकर आता है । प्रतिद्वंद्वी टीमों को मनोवैज्ञानिक रूप से डीमोटीवेट करने का एनी का विचार दिलचस्प है और यह देखने लायक है । क्लाइमेक्स एक दिलचस्प विचार पर बेस्ड है जिसमें एक साथ तीन कहानियां चलती है लेकिन यह थोड़ा लंबा हो जाता है । बास्केटबॉल के दृश्य विशेष रूप से और आगे बढ़ते हैं। जीसी का अंतिम परिणाम दर्शकों को कुछ स्वीकार्य नहीं होने के साथ विभाजित कर सकता है । हालाँकि, यह फिल्म के संदेश के साथ मेल खाता है ।

अभिनय की बात करें तो सभी का परफ़ोरमेंस बेहतरीन है । यह देखना वाकई शानदार है कि न केवल फ़िल्म के लीड एक्टर और एक्ट्रेस बल्कि अन्य कलाकारों को भी चमकने का अच्छा मौका मिलता है । सुशांत सिंह राजपूत अपने किरदार को बहुत ही सहजता के साथ निभाते हैं और अपने किरदार में खूब जंचते है । वह इस फ़िल्म में अपने किरदार में एकदम समा जाते है । ओल्डर वर्जन में सुशांत काफ़ी प्रभाव छोड़ते हैं और अपनी आवाज के साथ जो बदलाव करते है वह तारीफ़ के काबिल है । श्रद्धा कपूर भी अपने रोल के साथ पूरा न्याय करती है । हालांकि एक समय बाद उनके किरदार के पास करने के लिए ज्यादा कुछ होता नहीं है । रोमांटिक ट्रेक बहुत कमजोर है और यहां तक स्क्रीन पर ज्यादा समय भी नहीं मिलता इस ट्रेक को । श्रद्धा अन्य कलाकारों की तुलना में इतनी बूढ़ी दिखाई नहीं देती है । वरुण शर्मा काफी मनोरंजक हैं और दर्शकों को पसंद आएंगे । वह अर्जुन पटियाला और खानदानी शफ़ाखाना जैसी फ़िल्मों में हालांकि सुस्त नजर आए । लेकिन छिछोरे में वह फ़ुल फ़ॉर्म में नजर आते है । वह बूढ़े सेक्सा के एंट्री सीन से सरप्राइज करते है । ताहिर राज भसीन काफ़ी डेशिंग लगते हैं और शानदार प्रदर्शन देते है । उनका गुस्सा और सुख खुलकर सामने आता है । नवीन पॉलीशेट्टी की स्क्रीन उपस्थिति काफ़ी अच्छी है । तुषार पांडे अपने निभाए किरदार के लिए ठीक हैं और हास्य को आगे बढ़ाते हैं । सहर्ष कुमार शुक्ला ने बहुत देर से प्रवेश किया है लेकिन एक शानदार स्क्रीन उपस्थिति है । समापन में विशेष रूप से, उनके पास करने के लिए एक प्रमुख हिस्सा है । मोहम्मद समद के पास अपने क्षण हैं । प्रतीक बब्बर बदमाश के रूप में अपनी छाप छोड़ते है । शिशिर शर्मा, संजय गोराडिया (मम्मी के पिता), रोहित चौहान (क्रिस क्रॉस), रंजन राज (कम वजन वाले अभिमन्यु राठौड़ उर्फ डंडा) और रसोइया की भूमिका निभाने वाले अभिनेता ठीक हैं ।

प्रीतम का संगीत फिल्म के मूड के साथ मेल खाता है लेकिन ज्यादा लंबे समय तक नहीं रहता है । 'फ़िकर नोट' सभी गानों में सबसे अच्छा है और इसमें फ़िल्म का मैसेज झलकता है । 'कंट्रोल' भी अच्छा है । 'वो दिन' और 'खेरात' अपनी छाप छोड़ने में नाकाम रहते है जबकि, 'कल की ही बात है' कुछ सेकेंड्स के लिए प्ले किया जाता है । समीर उद्दीन का बैकग्राउंड स्कोर ठीक है लेकिन प्रभाव डालता है ।

अमलेंदु चौधरी की सिनेमैटोग्राफी उपयुक्त है । अस्पताल, छात्रावास और खेल के दृश्य अच्छी तरह से कैप्चर किए गए हैं । लक्ष्मी केलुस्कर का प्रोडक्शन डिजाइन अच्छा है । मुकेश छाबड़ा की कास्टिंग प्रशंसा की पात्र है क्योंकि सभी कलाकार अपने रोल में एकदम फ़िट बैठते है । अभिमन्यु राठौड़ की कास्टिंग काफी अच्छी है । सुनील रोड्रिग्स के एक्शन ज्यादा खूनी नहीं है इसलिए यह काम करते है । रोहित चतुर्वेदी की वेशभूषा प्रामाणिक है । फ़िल्म में वास्तविकता दिखाने के लिए हॉस्टल में कपड़ों का दोहराव दिखाया गया है । प्रीतिशील सिंह का प्रोस्थेटिक्स और चरित्र डिजाइन कुल मिलाकर काफी अच्छा है । लेकिन श्रद्धा कपूर और तुषार पांडे के मामले में, यह समझ के परे है । चारु श्री रॉय का संपादन स्लिक है और कथा में वर्तमान और फ्लैशबैक भागों को अच्छी तरह से बुना गया है ।

कुल मिलाकर, छिछोरे एक मनोरंजक फ़िल्म है जिसमें कई मनोरंजक और दिल को छू लेने वाले सीन देखने को मिलेंगे । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म अपने तय दर्शकों- यूथ और फ़ैमिली द्दारा सराही जाएगी । हालांकि फ़िल्म के लिए की गई जुबानी तारीफ़ फ़िल्म को ज्यादा सपोर्ट करेगी ।