/00:00 00:00

Listen to the Amazon Alexa summary of the article here

वो फ़िल्में दर्शकों के बीच खासी लोकप्रिय होती हैं जो असल जिंदगी की घटना पर बेस्ड होती है, बर्शते उन्हें अच्छे से बनाया गया हो । और इसका जीता-जागता उदाहरण है हालिया रिलीज हुई फ़िल्म आर्टिकल 15, जो बंदायू रेप केस पर बेस्ड थी । इस फ़िल्म को हर किसी के द्दारा सराहा गया । और अन निखिल आडवाणी ऐसी ही एक सत्य घटना पर बेस्ड फ़िल्म लेकर आए हैं-बाटला हाउस जो इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है । बाटला हाउस के माध्यम से फ़िल्ममेकर ने एनकाउंटर के पीछे के रहस्य से पर्दा उठाने का प्रयास किया है । तो क्या बाटला हाउस दर्शकों को रोमांचित करने में कामयाब होगी, या यह अपने प्रयास में विफ़ल होती है ? आइए समीक्षा करते है ।

Batla House Movie Review: पावरफ़ुल है जॉन अब्राहम की एक्टिंग और फ़िल्म दोनों

बाटला हाउस एक ऐसे ईमानदार पुलिस अफ़सर की कहानी जो एक कठिन स्थिती में पकड़ा जाता है । साल 2008 का समय है । इंडियन मुजाहिदीन ने देश भर में कई विस्फोट किए हैं । और अब इसके इसका नवीनतम हमला 13 सितंबर को राजधानी दिल्ली में होने वाला है । एसीपी संजय कुमार (जॉन अब्राहम) और उनकी पत्नी नंदिता (मृणाल ठाकुर) की शादी में परेशानी चल रही है । 19 सितंबर को, उनकी टीम ने उन्हें सूचित किया कि इस विस्फोट के लिए जिम्मेदार आतंकवादी शहर के ओखला इलाके के एल -18, बाटला हाउस के एक फ्लैट में छिपे हैं । इससे पहले कि संजय साइट पर पहुंच पाता, उसके जूनियर अधिकारी के के (रवि किशन) ने अपनी टीम को उक्त मकान पर कब्जा करने वालों को इंगेज रखने का आदेश दिया । इस बीच संजय पहुंच जाता है और वह बाकी पुलिस टीम के साथ मिलकर शूटरों को खत्म कर देता है । उनमें से एक, तुफैल (आलोक पांडे) को गिरफ्तार कर लिया जाता है । पुलिस के जाने से पहले ही, निवासियों ने पुलिस के खिलाफ नारे लगाने शुरू कर दिए । जल्द ही, मीडिया और राजनीतिक नेताओं ने पुलिस पर एक फर्जी मुठभेड़ का आरोप लगाया । वहीं दूसरी ओर के के का अस्पताल में निधन हो गया । इस बीच संजय के लिए यह साबित करना मुश्किल हो जाता है वो एनकाउंटर सही था और बाटला हाउस के निवासी वास्तव में इंडियन मुजाहिदीन का हिस्सा थे । वह पुलिस विभाग को यह भी बताता है कि बाटला हाउस के फ्लैट में दो और लोग थे जो बच गए, जिनमें से एक दिलशाद अहमद (साहिदुर रहमान) है । वह उत्तर प्रदेश के निजामपुर भाग गया । संजय के वरिष्ठ जयवीर (मनीष चौधरी) दिलशाद को गिरफ्तार करने के लिए संजय को निमज़ापुर का मुखिया नहीं बनाने की बात कहते हैं । फिर भी, संजय अपनी टीम के साथ दिलशाद को धर-दबोचने निकलता है । निजामपुर में, वह शत्रुतापूर्ण निवासियों और एक राजनीतिक दल के एक नेता से मिलता है जो उसे वापस जाने केलिए कहता है । लेकिन संजय किसी की नहीं मानता और दिलशाद को वापस दिल्ली ले जाने का प्रयास करता है । जहां एक ओर आम लोग उसके एनकाउंटर को फ़र्जी बता रहे हैं वहीं उसके सीनियर्स उसके गैर-जिम्मेदाराना रवैये से नाराज है । इसके बाद आगे क्या होता है, यह बाकी की फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।

रितेश शाह की कहानी अच्छी तरह से शोध की गई है और काफ़ी मनोरंजक है । इसके अलावा, यह आज के समय में बेहद प्रासंगिक है । हो सकता है कि कई लोग इस मामले से अवगत नहीं हो और इसने उस समय इतने बड़े विवाद को कैसे जन्म दिया । अत: फ़िल्म में एक नयापन भी है । रितेश शाह की पटकथा ज्यादातर हिस्सों के लिए मनोरम है लेकिन फ़र्स्ट हाफ में थोड़ी हिल सी जाती है । एक बेहतर प्रभाव के लिए फिल्म को सरल और रोमांचकारी होना चाहिए और बहुत अधिक डॉक्यूड्रामा अनुभव से रहित होना चाहिए । हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि कुछ दृश्य असाधारण पटकथा वाले हैं । रितेश शाह के डायलॉग्स शार्प और ज्वलनशील हैं । क्लाइमेक्स में वन-लाइनर्स बहुत अच्छा काम करते हैं ।

निखिल आडवाणी का निर्देशन शानदार है । उन्हें बहुत अच्छी तरह से पता है कि उन्होंने कितने संवेदनशील मुद्दे को अपने हाथ में लिया है और यहां वह जरा भी निराश नहीं करते । उन्होंने कुछ दृश्यों को बहुत ही काबिलियत से संभाला है और फ़र्स्ट हाफ में और बाद में कोर्ट रूम के दृश्यों में पूछताछ दृश्य में वह अपनी प्रतिभा से कायल कर देते है । साथ ही, दर्शकों को आश्चर्यचकित करने के लिए कि राशोमन प्रभाव यहां अच्छा काम करता है कि कौन सा संस्करण सही है । हालांकि, फ़र्स्ट हाफ में कुछ सीन इतने बेमिसाल नहीं है । कुछ दृश्य दर्शकों को भ्रमित भी कर सकते हैं । उदाहरण के लिए, यह बहुत ही चौंकाने वाला है कि संजय एक महत्वपूर्ण पूछताछ के दौरान कैमरे को बंद क्यों करता है । शुक्र है कि फ़िल्म में कमियों से कहीं ज्यादा अच्छाईयां हैं जो इन छोटी-मोटी कमियों को छुपा जाती है ।

बाटला हाउस का फ़र्स्ट हाफ़ बहुत बढ़िया है लेकिन यहां लोग ‘Wow’ फ़ैक्टर को मिस कर सकते है ।इसकी वजह ये है कि, संजय और नंदिता के बीच के संबंधों के तनाव के पीछे के कारण ठीक से नहीं बताया गया । एनकाउंटर विशेष रूप से कम दिखाए गए है और इसलिए दर्शक इस उलझन में आ जाते हैं कि पुलिस और छात्रों के बीच हुआ क्या । इसके अलावा संजय के मतिभ्रम के सीक्वंस कई मर्तबा आते है । लेकिन इसके विपरीत कुछ ऐसे सीन भी है जो बेहद शानदार है । फ़िल्म में दिलचस्पी तब बढ़ती है जब संजय ने तुफैल से पूछताछ करते हुए पवित्र कुरान से उद्धरण दिया । ये सीन इतना दमदार है कि इस पर ताली और सीटी बजना लाजिमी है इसी के साथ यह सीक्वंस यह भी साबित करता है कि कैसे निहित स्वार्थों ने हिंसक लाभ के लिए धार्मिक ग्रंथों की गलत व्याख्या की । निज़ामपुर प्रकरण थोड़ा ओवर लगता है, लेकिन काफी रोमांचकारी है । इंटरमिशन प्वाइंट एक दिलचस्प मोड़ पर आता है । इंटरवल के बाद, फ़िल्म में दिलचस्पी डबल हो जाती है क्योंकि संजय दिलशाद को पकड़ने के लिए दृढ़ हो जाता है । विक्टोरिया (नोरा फतेही) का प्रवेश फिल्म में आकर्षण जोड़ता है । लेकिन फ़िल्म के सबसे अच्छे पल लास्ट के 35-40 मिनट के लिए रिजर्व है । कोर्ट रूम ड्रामा काफी शानदार और ताली बजाने योग्य है । इसके अलावा, एक बार जब पूरा परिदृश्य स्पष्ट हो जाता है, तो फिल्म सरल हो जाती है । नतीजतन, दर्शकों को और भी अधिक दिलचस्पी होगी जब वे पूरी तस्वीर जानते हैं । फ़िल्म की समाप्ति हाई नोट पर होती है ।

बाटला हाउस बिना किसी संदेह के पूरी तरह से जॉन अब्राहम की फ़िल्म है । उन्होंने न केवल एक बहादुर, सजे-धजे पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाई है बल्कि एक ऐसे शख्स की भूमिका भी निभाई है जिसे हर जगह से प्रताड़ित किया जाता है । कोई भी उनकी सच्चाई को जानना नहीं चाहता है । जॉन ने जिस तरह से ऐसे सदमे को पर्दे पर पेश किया है वह वाकई काबिलेतारिफ़ है । इसके अलावा एक्शन सीन< मुठभेड़ के सीन में और नाटकीय सीन में वह छा जाते है । मृणाल ठाकुर को पटकथा के हिसाब से थोड़ी निराश करती हैं क्योंकि उनकी कोई बैकग्राउंड स्टोरी नहीं दिखाई गई । लेकिन फ़िर भी वह शानदार प्रदर्शन देती है । सेकेंड हाफ़ में वह महिला के तौर पर जिस तरह से अपने पति के सपोर्ट में खड़ी होती है, अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाती है । छोटे रोल में रवि किशन अपनी अमिट छाप छोड़ते है । मनीष चौधरी अपने रोल में अच्छे लगते है । राजेश शर्मा (एडवोकेट शैलेश आर्य) अपने किरदार की आवश्यकता के अनुसार काफी दुष्ट लगते हैं । नोरा फतेही फिल्म में अतिआवश्यक ग्लैमर जोड़ती है । फिल्म में उनका किरदार छोटा लेकिन महत्वपूर्ण है । आलोक पांडे और साहिदुर रहमान अपने-अपने हिस्से को अच्छे से निभाते है । प्रमोद पाठक (रक्षा वकील पी कृष्णन) ने देर से प्रवेश किया है, लेकिन एक प्रभाव छोड़ते हैं । अन्य कलाकार अपने-अपने रोल में जंचते है ।

'ओ साकी साकी' के अलावा कोई भी गाना याद रखने योग्य नहीं है । आइटम सॉंग मनोरंजक है लेकिन यह अचानक शुरू हो जाता है । रुला दिया' और 'जाको राखे' ठीक है । जॉन स्टीवर्ट एडुरी का बैकग्राउंड स्कोर सपाट है, फिर भी प्रभावपूर्ण है । 'ओ साकी साकी' में आदिल शेख की कोरियोग्राफी देखने लायक है ।

सौमिक मुखर्जी की सिनेमैटोग्राफी उच्च स्तर की है । बाटला हाउस के फ़्लैट और छोटे शहरों के चेज सीक्वंस में यह खास तौर पर शानदार है । प्रिया सुहास का प्रोडक्शन डिजाइन काफी यथार्थवादी है । अमीन खतीब के एक्शन रोमांचकारी है लेकिन खून-खराबे व परेशान करने वाले जरा भी नहीं है । महावीर ज़वेरी की एडिटिंग कई दृश्यों में शार्प है और स्टाइलिश भी है ।

कुल मिलाकर, बाटला हाउस एक दमदार फ़िल्म है जिस पर चर्चा होना लाजिमी है । प्रासांगिक कहानी, कसी हुई पटकथा, ताली बजाने योग्य पल और जॉन अब्राहम का शानदार प्रदर्शन इस फ़िल्म को इस साल की सबसे बेहतरीन फ़िल्म में से एक बनाता है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म, शानदार प्रदर्शन करेगी । इसे जरूर देखिए !