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देश के ज्वलंत मुद्दों में से एक है जातिवाद । जातिवाद के खिलाफ़ प्रासंगिक कानूनों और प्रावधानों के बावजूद भी देश में जातिवाद विद्यमान है । और कई मर्तबा ये संगीन अपराधों में बदल जाता है । और राजनीतिक वर्ग इन संघर्षों का लाभ उठाता है और यह इसमें आग में घी का काम करता है । बॉलीवुड में ऐसी बहुत कम फ़िल्में बनी है जो जातिवाद के मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमती हो । लेकिन अनुभव सिन्हा ने अपनी पिछली फ़िल्म मुल्क से प्रेरित होकर इस चुनौती को स्वीकार किया और बनाई फ़िल्म आर्टिकल 15, जो इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है । जातीवाद जैसे ज्वलंत मुद्दे को दर्शाती आयुष्मान खुराना अभिनीत आर्टिकल 15 दर्शकों को जगा पाती है या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाती है ? आइए समीक्षा करते है ।Article 15 Movie Review: 'अब फ़र्क लाएंगे' को सही साबित करती है आयुष्मान खुराना की फ़िल्म आर्टिकल 15, एक न्यायसंगत और ईमानदार पुलिसकर्मी की कहानी है जो जातिवाद से संबंधित अपराध को सुलझाने की कोशिश करता है । अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) दिल्ली के एक IPS अधिकारी हैं, जिन्हें सजा के तौर पर उत्तर प्रदेश के लालगाँव नामक गाँव में स्थानांतरित किया जाता है । जैसे ही वह ड्यूटी ज्वाइन करता है, उसे गांव में दलित समुदाय की तीन लापता लड़कियों से जुड़े एक केस के बारे में पता चलता है । पुलिस ने इस मामले की जांच नहीं की, यह कहते हुए कि मामला गंभीर नहीं है और समुदाय अक्सर झूठी शिकायतें दर्ज कराता है । हालांकि अगले दिन, लापता लड़कियों में से दो - शालू और ममता की लाश एक पेड़ पर लटकी हुई मिलती है । लेकिन उनमें से तीसरी लड़की पूजा अभी तक लापता है । समुदाय की लड़कियों में से एक, गौरा (सयानी गुप्ता) अयान को बताती है कि ये तीनों लड़कियां लोकल ठेकेदार अंशु के अधीन काम करती थीं जो उन्हें 25 रु प्रतिदिन देते थे । तीनों लड़कियों ने अपन मेहनताने में सिर्फ़ 3 रु इजाफ़ा करने के लिए अंशू से कहा जिसे अंशू ने ठुकरा दि्या था । और इसलिए लड़कियों ने विरोध किया और उसके बाद काम छोड़ दिया । गौरा ने आरोप लगाया कि अंशु ने लड़कियों को सबक सिखाने के लिए उनको मारा हो सकता है । अयान मामले की जांच करने का फैसला करता है क्योंकि उसे कहीं न कहीं लगता है कि गौरा वास्तव में सही कह रही है । लेकिन अयान के अधीन काम करने वाला अधिकारी ब्रह्मदत्त सिंह (मनोज पाहवा), चुपके से अपराध की कथा को बदलने की कोशिश करता है । वह एक समाचार पत्र में एक कहानी लिखता है कि दोनों लड़कियाँ एक ही-सेक्स संबंध में थीं और इसीलिए उनके पिता ने उन्हें मार डाला । वह डॉ मालती राम (रोन्जिनी चक्रवर्ती) को पोस्टमार्टम रिपोर्ट को बदलने के लिए भी मजबूर करता है, हालांकि यह स्पष्ट है कि शालू और ममता का बार-बार सामूहिक बलात्कार किया गया और फिर उसे पेड़ पर लटका दिया गया । इन सभी चुनौतियों के बीच, अयान मामले को सुलझाने और पूजा को खोजने का प्रयास करता है । एक दलित भूमिगत नेता निशांत (मोहम्मद जीशान अय्यूब) पुलिस अधिकारी जाटव (कुमुद मिश्रा) और अयान के पीए मयंक (आशीष वर्मा) पर हमला करता है और उनकी जीप में आग लगा देता है। आगे क्या होता है यह बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

अनुभव सिन्हा और गौरव सोलंकी की कहानी बहुत ही दमदार है और इसे बताया जाना चाहिए । यह कहीं न कहीं बदायूं बलात्कार कांड और उना झड़प की घटनाओं जैसी घटनाओं से प्रेरित है । विभिन्न किरदारों, उनकी दुविधाओं, और निश्चित रूप से उनकी जाति को अच्छी तरह से प्लेस किया और इस्तेमाल किया गया है । हालाँकि, एक पल ये भी लगता है कि फ़िल्म में इतने किरदार नहीं होने चाहिए कि समझना मुश्किल हो । इसके अलावा विभिन्न किरदार मुख्य प्लॉट में इतना योगदान भी नहीं देते है । अनुभव सिन्हा और गौरव सोलंकी की पटकथा आकर्षक है और शुरू से अंत तक दर्शकों को बांधे रखती है । हर मिनट में बहुत कुछ होता है और लेखक दर्शकों को बांधे रखने की पूरी कोशिश करते हैं । हालांकि कुछ दृश्यों को अधिक मनोरंजक तरीके से लिखा जाना चाहिए था । अनुभव सिन्हा और गौरव सोलंकी के संवाद फिल्म के स्तंभों में से एक हैं । वे कई दृश्यों को वो एक अलग लेवल पर ले जाते हैं । विभिन्न जातियों के नामों का निर्भीक रूप से उल्लेख किया गया है और शुक्र है कि CBFC ने इन संदर्भों को काटा नहीं है । यह सुखद आश्चर्य है कि यहां तक कि F-word को भी बरकरार रखा गया है । एक सीन में, कुछ किरदार राजनीतिक दलों के प्रतीकों के बारे में भी चर्चा करते हैं और यह समझना आसान है कि वे किस तरफ़ इशारा कर रहे हैं ।

कई हिस्सों में अनुभव सिन्हा का निर्देशन उम्दा है । यह काफ़ी संवेदनशील मुद्दा है, इसलिए कई फ़िल्ममेकर्स इसे उठाने में डरते है । लेकिन अनुभव सिन्हा न केवल ऐसे मुद्दे पर फ़िल्म बनाते हैं बल्कि इसे इतने बेहतरीन तरीके से पेश करते है जिससे कोई भी समुदाय इसे नाराज न गो और न ही किसी की संवेदनाएं आहत हो । अनुभव की पिछली फ़िल्म मुल्क से लोग आसानी से जुड़ गए थे लेकिन आर्टिकल 15 से हर कोई जुड़ नहीं पाएगा । कई सीन मेम यह फ़िल्म डॉक्यूमेंट्री की तरह लगती है । हालांकि कुछ पल बहुत यादगार हैं और लंबे समय तक किसी के दिमाग में रह जाते हैं । जिन दृश्यों में सीवर क्लीनर बिना किसी सुरक्षा उपकरण के नाले में प्रवेश करते हैं वे दर्शकों को परेशान करते हैं । एक और संक्षिप्त लेकिन शक्तिशाली शॉट है कि कैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने आगामी रैली के बैनर को उसी दीवार पर लगाया, जहां लापता पूजा के पोस्टर चिपकाए गए थे । यह दर्शकों को आसानी से बताने का काफी दिलचस्प तरीका है कि किस तरह से समाज की प्राथमिकताएं जगह लेती है ।

आर्टिकल 15 का शुरूआती सीन काफ़ी हैरान कर देने वाला है वही फ़िल्म के प्रति रूचि न के बराबर है । शुरूआती 10-15 मिनट किरदारों की सेटिंग और पहचान कराने में निकल जाते है । जब मृत शरीर मिलते हैं वहां से फ़िल्म उठना शुरू होती है । जटिलताएं बहुत अच्छी तरह से प्लेस की गई हैं और इसी वजह से दिलचस्पी बढ़ती रहती है कि अयान कैसे इन इन चुनौतियों से गुजरता है अय्र न्याय दिलाने में सफ़ल होता है । वो सीन देखने लायक है जब अयान अपने साथी कर्मचारियों से उनकी जात पूछता है और फ़िल्म सीक्वंस आगे बढ़ता है । इंटरमिशन प्वाइंट पर फ़िल्म का सबसे अच्छा सीन आता है और निश्चितरूप से थिएटर में इस सीन का स्वागत तालियों से किया जाएगा । यह सीन दर्शकों को सेकेंड हाफ़ के लिए उत्साहित करता है । हालांकि सेकेंड हाफ़ में फ़िल्म थोड़ी पेचीदी हो जाती है । निशांत और महंत जी के सबप्लॉट दिलचस्प और यहां तक कि यथार्थवादी हैं, लेकिन मुख्य कथानक के साथ अच्छी तरह से मेल नहीं खते है । वहीं फ़िल्म की अच्छी बात ये है कि, फ़िल्म में होने वाले ट्विस्ट एकदम अप्रत्याशित है । निहाल सिंह और उसकी बहन के दृश्य रोंगटे खड़े कर देते है । साथ ही सीबीआई का अयान से पूछताछ सीन आकर्षक है । फ़िल्म का क्लाइमेक्स काफ़ी दिलचस्प है और प्रभावशाली है । फिल्म एक शानदार नोट पर समाप्त होती है ।

आयुष्मान खुराना एक बार फ़िर छा जाते है । वैसे तो वह ज्यादातर अजीबोगरीब किरदारों के लिए जाने जाते हैं लेकिन पिछले साल, आई उनकी फ़िल्म अंधाधुन में उन्होंने सभी को हैरान कर दिया । हालांकि आर्टिकल 15 में वह एक कदम आगे निकल जाते है, क्योंकि यहां कॉमेडी के लिए कोई गुंजाइश नहीं है । और एक बार फ़िर वह अपनी शानदार अदायगी से झंडे गाड़ देते है । यहां तक की वह अपनी चुप्पी और आंखों के इशारों से काफ़ी कुछ बयां कर जाते है । आर्टिकल 15, में उन्होंने अपने फ़ैंस को जरा भी निराश नहीं किया है । मनोज महावा एक अमिट छाप छोड़ते है । अनुभव सिन्हा उनसे उनका बेहतरीन काम निकलवाने में सफ़ल हो जाते है । मुल्क के बाद एक बार फ़िर मनोज अपने रोल से छा जाते है । वो सीन में मनोज देखने लायक हैं जब वह जाटव पर आरोप लगाते हैं और सेकेंड हाफ़ में जाटव का सामना करते है । कुमुद मिश्रा फ़िल्म में सरप्राइज की तरह है । उनकी भूमिका बहुत अच्छी तरह से तैयार की गई है और वह अपने उम्दा प्रदर्शन के साथ, वह इसे एक हाई नोट पर ले जाते है । सेकेंड हाफ़ में उनका ताली बजाने योग्य सीन है । इसके अलावा वह फ़िल्म में हंसी लेकर भी आते है । सयानी गुप्ता कुशल है । उन्होंने यकीनन जॉली एलएलबी 2 [2017] में भी ऐसी ही भूमिका निभाई थी । लेकिन इस फ़िल्म में उन्होंने ऐसी एक्टिंग की है जो जरा भी उनकी पिछली परफ़ोर्मेंस की याद नहीं दिलाती है । उनका रोने का सीन चिलिंग है । ईशा तलवार (अदिति) सभ्य हैं और आयुष्मान के साथ उनकी केमिस्ट्री काफी फ्रेश लगती है । आकाश दाभाडे (सत्येंद्र राय) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और अच्छी तरह से कास्ट किया गया है । मोहम्मद जीशान अय्यूब एक शक्तिशाली प्रदर्शन देते है और अपने किरदार में जंचते है । उनका किरदार काफ़ी अच्छे से लिखा गया है । रोन्जिनी चक्रवर्ती काफी आत्मविश्वासी हैं । नासर (सीबीआई अधिकारी) उपयुक्त है । अंशु, अमला दासी, निहाल सिंह और महंत का किरदार निभाने वाले कलाकार अपने रोल में जंचते है ।

फिल्म में संगीत की कोई गुंजाइश नहीं है और इसे पृष्ठभूमि में भी नहीं बदला गया है । 'कहब तोह' को शुरुआती क्रेडिट्स में प्ले किया जाता है और इसके बोल काफी तीखे हैं । 'शूरू करें क्या' अंतिम क्रेडिट के दौरान प्ले किया जाता है और यह काफ़ी आकर्षक है, यह रैप ट्रैक फिल्म की थीम को देखते हुए थोड़ा अजीब लगता है । मंगेश धाकड़ का बैकग्राउंड स्कोर सुसंगत नहीं है लेकिन प्राणपोषक संगीत प्रभाव को बढ़ाता है । इवान मुलिगन की सिनेमैटोग्राफी काफी रॉ है और इस शैली की फिल्म के साथ मेल खाती है । निखिल कोवाले का प्रोडक्शन डिजाइन यथार्थवादी है । कुल मिलाकर, फिल्म का लुक काफी समृद्ध है । विशाखा कुल्लरवार की वेशभूषा जीवन से सीधे जुड़ी हुई है, विशेष रूप से हाशिए के समुदायों द्वारा पहनी गई पोशाकें । यशा रामचंदानी का संपादन उपयुक्त है ।

कुल मिलाकर, आर्टिकल 15, एक ऐसी दमदार फ़िल्म है जो देश में व्याप्त जातिवाद के मुद्दे को दर्शाती है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म, अपनी दमदार कहानी और आयुष्मान ब्रांड के चलते दर्शकों को थिएटर तक खींच लाने में सक्षम होगी ।