फ़िल्म :- 120 बहादुर
कलाकार :- फरहान अख्तर, राशि खन्ना
निर्देशक :- रजनीश 'राज़ी' घई
रेटिंग :- 3/5

बिना स्पॉइलर के 120 बहादुर का प्लॉट :-
120 बहादुर बहादुरी और शौर्य की कहानी है। कहानी वर्ष 1962 की है। अक्टूबर में चीनी सेना लद्दाख की ओर बढ़ना शुरू करती है। मेजर शैतान सिंह भाटी (फरहान अख़्तर) कुमाऊँ रेजिमेंट की 13वीं बटालियन की कमान संभालते हैं, जिनकी टुकड़ी चुशूल सेक्टर के रेज़ांग ला में तैनात है। चुशूल में एक एयरस्ट्रिप है, जिसे कब्ज़े में लेने के लिए चीनी सैनिक बेताब हैं। मेजर शैतान सिंह को एहसास है कि अगर चीन चुशूल पर कब्ज़ा कर लेता है, तो इससे उन्हें पूरे लद्दाख और जम्मू-कश्मीर के बड़े हिस्से पर बढ़त मिल सकती है। 17 नवंबर को मेजर शैतान सिंह रेज़ांग ला की ओर बढ़ती 3000 से अधिक चीनी सैनिकों की टुकड़ी को देख लेते हैं। वे इसकी जानकारी हेडक्वार्टर्स को देते हैं। उनका वरिष्ठ उन्हें आदेश देता है कि भारतीय पक्ष संख्या में कम है, इसलिए जल्द से जल्द रेज़ांग ला छोड़ देना चाहिए। लेकिन मेजर शैतान सिंह भाटी यह आदेश मानने से इनकार कर देते हैं। वे अपने कमांडिंग ऑफिसर से कहते हैं कि वे और उनके 120 बहादुर जवान अपनी जगह नहीं छोड़ेंगे और आख़िरी सांस तक दुश्मन से लड़ेंगे। इसके बाद क्या होता है, यह फ़िल्म की बाकी कहानी में सामने आता है।
120 बहादुर मूवी रिव्यू :-
120 बहादुर सच्ची घटनाओं पर आधारित है। निर्देशक राजीव जी गोस्वामी एक ऐसी कहानी सामने लाते हैं, जिसके बारे में बहुत से लोग नहीं जानते और यही बात फिल्म के पक्ष में जाती है। राजीव जी गोस्वामी की स्क्रीनप्ले युद्ध के दृश्यों में प्रभावी है, लेकिन अन्य हिस्सों में कमज़ोर नज़र आती है। सुमित अरोरा के डायलॉग बातचीत के अंदाज़ में हैं और कुछ जगह तालियाँ खिंचवाते हैं।
रज़नीश ‘रेज़ी’ घई का निर्देशन सराहनीय है। उनका प्रयास साफ दिखता है । जहां आजकल फिल्में स्टूडियो में ग्रीन स्क्रीन पर शूट होती हैं, वहीं उन्होंने इस फिल्म को असल लोकेशन्स और बेहद कठिन परिस्थितियों में शूट किया है। ऑथेंटिसिटी के लिहाज़ से फिल्म बेहतरीन है। युद्ध के दृश्य खूबसूरती से पेश किए गए हैं और सबसे बढ़कर, फिल्म मेजर शैतान सिंह भाटी और उनके नेतृत्व में लड़ने वाले 120 बहादुर जवानों को एक शानदार श्रद्धांजलि देती है।
वहीं कमियों की बात करें तो, फिल्म का फर्स्ट हाफ काफी साधारण है। मेजर शैतान सिंह के बैकस्टोरी वाले हिस्से, टुकड़ी के बीच की हल्की-फुल्की नोकझोंक, और बिल्ड-अप के कई दृश्य-सब मिलकर बॉर्डर (1997), केसरी (2019), शेरशाह (2021) जैसी फिल्मों की याद दिलाते हैं। लेकिन इन सभी फिल्मों का म्यूज़िक यादगार था, लेकिन 120 बहादुर इस विभाग में पिछड़ जाती है। एक नए भर्ती हुए जवान की सबप्लॉट दिलचस्प थी, जिसे और गहराई से दिखाया जा सकता था। इसे और ड्रामेटिक बनाया जा सकता था, लेकिन फिल्म इसे जल्दीबाज़ी में निपटा देती है।
परफॉरमेंस :-
करीब साढ़े चार साल बाद अभिनेता के तौर पर स्क्रीन पर लौटे फरहान अख्तर ने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है। उन्होंने अपने किरदार को संयमित अंदाज़ में निभाया है और जहां ज़रूरत पड़ी, वहां उनका एंग्री मोड भी उतना ही प्रभावी साबित होता है। राशी खन्ना (सुगन) स्पेशल अपियरेंस में खूबसूरत और प्रभावशाली लगी हैं। अजिंक्य रमेश देओ (ब्रिगेडियर) और इजाज़ खान (कमांडिंग ऑफिसर) ने भी अपनी भूमिकाएं मजबूती से निभाई हैं। आर्मीमैन के किरदारों में, डेब्यू कर रहे स्पर्श वालिया (रेडियो ऑपरेटर रामचंदर यादव) को सबसे अधिक स्क्रीन टाइम मिला है और उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया है। इसके बाद विवान भाटेना (जमादार सूरजा राम) का काम प्रभावशाली है, जबकि आशुतोष शुक्ला (धरमपाल) और बृजेश करनवाला (जैराम काका) भी अच्छा प्रभाव छोड़ते हैं। अन्य कलाकारों में धनवीर सिंह (जमादार हरिराम सिंह), दिग्विजय प्रताप (जमादार साब), साहिब वर्मा (नन्हा), देवेन्द्र अहिरवार (बैंगन), अंकित सिवाच (रामलाल) और अतुल सिंह (निहाल सिंह) भी अपने किरदारों में पूरी तरह फिट बैठे हैं। विलेन साइड पर मारकस मोक (जनरल गाओ) ठीक-ठाक हैं, जबकि सेंग सू मिंग (मेजर मेमेती) थोड़े ओवर-द-टॉप लगते हैं लेकिन उनके किरदार की प्रकृति देखते हुए यह भी काम कर जाता है।
120 बहादुर: संगीत और तकनीकी पक्ष
फिल्म के गानों ‘याद आते हैं’, ‘मैं हूँ वो धरती माँ’ और ‘नैना रे लोभी’ में वह असर नहीं है जो दर्शकों को जोड़ सके या भावनात्मक रूप से प्रभावित कर सके। सतीश रघुनाथन का बैकग्राउंड स्कोर जरूर दमदार और हीरोइक है। टेट्सुओ नागाटा की सिनेमैटोग्राफी शानदार है लद्दाख को इस तरह फिल्माने का मौका शायद ही पहले मिला हो। मारेक स्विटेक का एक्शन फिल्म की टोन के बिल्कुल अनुरूप है और आजकल की फिल्मों की तरह अनावश्यक रूप से हिंसक या विचलित करने वाला नहीं है। थिया टेकछंदानी के कॉस्ट्यूम्स और शैलजा शर्मा की प्रोडक्शन डिजाइन बेहद ऑथेंटिक लगती है। VFX का काम—Nolabel, Frame X और Fortune Leaf संतोषजनक है।
क्यों देंखे 120 बहादुर ?
कुल मिलाकर, 120 बहादुर रेज़ांग ला के शहीदों को एक ईमानदार और दिल छू लेने वाली श्रद्धांजलि के रूप में सामने आती है। फिल्म में युद्ध के दृश्यों की बारीक और प्रभावशाली डिटेलिंग है, वहीं फरहान अख़्तर का दमदार अभिनय इसे और मजबूत बनाता है। लेकिन इसका फर्स्ट हाफ साधारण लगता है, कई सीक्वेंस पहले भी देखे हुए लगते हैं और संगीत भी खास असर नहीं छोड़ता जिस वजह से फिल्म उतनी यादगार नहीं बन पाती, जितनी बन सकती थी। बॉक्स ऑफिस पर इसकी सफलता काफी हद तक दर्शकों के सकारात्मक वर्ड ऑफ माउथ और देशभक्ति वाली भावना पर निर्भर करेगी।
















