एक शरीफ़ परिवार, जिसकी पीढ़ियों ने कभी कोई अपराध न किया हो, में कोई आपराधिक दिमाग वाले बच्चे का आ जाना, एक दिलचस्प आइडिया है जिस पर एक अच्छी फ़िल्म बन सकती है । आखिरकार, हमारी परवरिश हमारे व्यक्तित्व को आकार देने में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं, लेकिन कभी-कभी, किसी एक पर यह अलग ही प्रभाव डाल देती है । हंसल मेहता, जो उपन्यास के विषयों पर प्रयास करने के लिए जाने जाते हैं, ने ये चुनौती ली और सिमरन बनाई । यह एक सच्ची घटना से प्रेरित है जो जिज्ञासा का स्तर भी बढ़ाती है । तो क्या हंसल मेहता की यह फ़िल्म इस अपंरापरागत विषय के साथ न्याय करने में कामयाब होती है या यह एक बुरा प्रयास साबित होगी, आइए समीक्षा करते है ।

सिमरन एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसकी जिंदगी में बदतर चीजें हो जाने के कारण वह अपराध का सहारा लेती है । प्रफुल्ल पटेल (कंगना रानौत) तलाकशुदा महिला है और संयुक्त राज्य अमेरिका में अटलांटा में रहती है । अपने माता-पिता (हितेन कुमार, किशोरी शहाणे) के उलहानों से परेशान होकर अपने खुद के घर में जाने का फ़ैसला करती है । यहां तक की वह अपने घर के लिए लोन भी अप्रूव करवा लेती है । एक दिन उसे अपने चचेरे भाई अंबर के साथ लास वेगास जाने का मौका मिलता है और वहां जाकर उसका जीवन बदल जाता है । कैसिनो में शुरूआती जीत के बाद, वह ढेर सारा पैसा जुएं में हार जाती है जिसमें उसकी बचत भी शामिल होती है । फ़िर भी वह इस खेल को खेलना जारी रखती है । इसके लिए वह कर्ज देने वालों से $32,000 की रकम भी उधार लेती है लेकिन वह उसे भी हार जाती है । कर्जदेने वाले काफ़ी खतरनाक होते हैं और उसे धमकी देते हैं कि यदि उसने ब्याज सहित उनकी रकम नहीं लौटाई तो उसे खतरनाक परिणाम भुगतने पड़ेंगे । अब उसके पास कोई विकल्प नहीं बचता है और प्रफ़ुल बैंक की लूटपाट करना शुरू कर देती है । इन सब की वजह से उसकी जिंदगी में क्या-क्या परेशानियां आती हैं, यह सब बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

अपूर्व असरानी द्वारा लिखी गई कहानी, जिसे एक सच्ची घटना से प्रेरित बताया गया है, वह कमजोर धुरी पर टिकी हुई है । अपूर्व असरानी की पटकथा बहुत दोषपूर्ण और असंगत है । अहम किरदार के साथ किसी भी प्रकार का कोई संबंधित फ़ैक्टर नहीं है और यही फ़िल्म की कमजोर कड़ी है । अपूर्व असरानी के संवाद ( अतिरिक्त संवाद कंगना रानौर द्वारा लिखे गए ) हालांकि ठीक हैं लेकिन यादगार कुछ भी नहीं हैं ।

सिमरन की शुरूआत काफ़ी अच्छी तरह से होती है । शुरू के 10-15 मिनट किरदारों के परिचय कराने और लास वेगास के सीन में चले जाते है और ये देखना अच्छा लगता है । लेकिन जैसे ही सिमरन आदतन जुआरी बन जाती है, तो फ़िल्म फ़िसलने लगती है और फ़िर दोबारा रफ़्तार नहीं पकड़ती है । उनके एक्शन सीन तर्करहित हैं और एक बिंदु के बाद परेशान करने लगते हैं कि आखिर ये फिल्म में चल क्या रहा है । प्रफुल्ल के लिए कोई भी सहानुभूति महसूस नहीं करता है । यदि निर्माताओं का यह दिखाने का इरादा हो तो वह जरा भी बदमाश नहीं लगती हैं । इसके अलावा, फ़िल्म में बहुत ज्यादा अंग्रेजी और गुजराती है जो फिल्म के व्यावसायिक तत्व को कम करती है । फिल्म में बहुत अधिक सिनेमाई स्वतंत्रताएं हैं, जो दर्शकों को हल्के में लेती हैं । यहां तक की कई सीन मे तो आवाज भी ठीक से सुनाई नहीं देती है और इसलिए कुछ अंग्रेजी संवाद भी सुनने योग्य नहीं हैं । सिगमन कंगना रानौत के लिए शो रील के रूप में सामने आती है - ध्यान दें कि वह कैसे हर दृश्य में समाईं हुईं हैं ।

हंसल मेहता का निर्देशन निराशाजनक है और यह उनकी पिछली फिल्मों जैसे शाहिद, सिटीलाइट और अलीगढ़ के भी आस-पास नहीं है । हालांकि कुछ सीन उनके द्दारा काफ़ी अच्छी तरह से फ़िल्माए गए है । ये सीन जरूर देखिए, जहां प्रफ़ुल के पिता टीवी पर समाचार देखते हैं और सिमरन के पिता की आलोचना करते हैं, वह यह नहीं जानते हैं कि वह खुद का ही अपमान कर रहे हैं । यह सब सीन बहुत ही मजेदार हैं ।

कंगना रानौत ने अच्छा काम किया है लेकिन उनकी परफ़ोरमेंस काफ़ी असंगत है और खुद में खोई हुई सी लगती है । ध्यान दें कि कई दृश्यों में उनका गुजराती उच्चारण गायब हो जाता है-तो इस तरह की कमियां हम उनके जैसी पावरहाउस परफ़ोरमर से अपेक्षित नहीं करते हैं । सोहम शाह (समीर) का प्रदर्शन मजेदार नहीं है क्योंकि उनका किरदार अच्छी तरह से नहीं दिखाया जाता है । फ़िल्म के बीच में तो वह बिल्कुल ही गायब हो जाते है । हितेन कुमार बहुत लाउड और नाटकीय हैं । उन्हें अपने प्रदर्शन को नियंत्रित करना चाहिए था । किशोरी शहाणे काफी बेहतर है । ईशा तिवारी (सलमा) अपनी छोटी भूमिका में जंची हैं । अम्बर, माइक, बारटेंडर, कर्जदेने वाले और उनके गुर्गे, सभी अपने-अपने किरदार में ठीक -ठाक हैं ।

सचिन-जिगर का संगीत समग्र रूप से भूलाए जाने योग्य है । केवल इसका टाइटल गीत ही अच्छा है । 'लगदी है थाई', 'पिजरा तोड़ के', 'मीत' और 'मजा नी लाइफ़' यादगार नहीं हैं ।

अनुज राकेश धवन का छायांकन संतोषजनक है । तिया तेजपाल का प्रोडक्शन डिजाइन कुछ खास नहीं है । अंतरा लाहिरी का संपादन कुछ खास नहीं है, लेकिन ऐसी पटकथा और निर्देशन के साथ, वह कुछ भी नहीं कर सकती थी ।

कुल मिलाकर, सिमरन एक ऐसी फिल्म है जिसे आसानी से बिनी किसी पछतावे के छोड़ा जा सकता है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म काफ़ी औसत रहेगी । यदि आप कंगना रानौत के प्रशंसक हैं, तो ही इस फ़िल्म को देखें ।