साल 2012 में, विक्की डोनर हिंदी सिनेमा की मील का पत्थर फिल्म बनकर उभरी । यह फ़िल्म स्पर्म डोनेशन पर बेस्ड थी लेकिन इसे बहुत ही समझदारी के साथ हैंडल किया गया । वर्जित विषय पर बेस्ड होने के बावजूद, इसे हर किसी ने स्वीकारा और एक पारिवारिक मनोरंजन फ़िल्म के रूप में इसका स्वागत किया गया । अब पूरे पांच साल बाद, शुभ मंगल सावधान, जो की मर्दाना कमजोरी को दर्शाती है, के मेकर्स ने विक्की डोनर के जादू को फ़िर से चलाने या इससे ज्यादा करने का प्रयास किया । तो क्या, यह फ़िल्म मनोरंजन करने में कामयाब होगी या यह कमजोर साबित होगी, आइए समीक्षा करते हैं ।

शुभ मंग़ल सावधान फ़िल्म की कहानी, दो प्रेमियों आयुष्मान खुराना और भूमि पेडनेकर की कहानी है जो एक दूसरे से शादी रचाने जाते हैं लेकिन उनके सामने अपेक्षित परेशानी आड़े आ जाती है । मुदित (आयुष्मन खुराना) और सुगंधा (भूमि पेडनेकर) एक-दूसरे से प्यार करते हैं लेकिन एक दूसरे से कह नहीं पाते । जब ऐसा हो जाता है तो हालात और भी भयानक हो जाते है । फिर भी, वे प्यार में पड़ जाते हैं और शादी करने का निर्णय लेते हैं । दोनों के परिवार भी इस शादी के लिए राजी हो जाते है । एक रात, जब मुदित सुगंधा के साथ अकेला होता है, तो दोनों प्यार करने का सोचते हैं । लेकिन दुर्भाग्य से, चिंता के कारण मुदित प्रदर्शन करने में असमर्थ रहता है । हैरान-परेशान मुदित किसी से भी इस मुद्दे पर बात करने से इंकार कर देता है । । दुर्भाग्य से, इस 'ट्रेजडी' की खबर फ़ैल जाती है और सुगांधा के माता-पिता इसका पता लगाते है । उन्हें लगता है कि मुदित बंजर है और वह शादी को रद्द करने पर विचार करने लगते है । मुदित और सुगंधा कैसे इस पागलपन को संभालते हैं, यह तो बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

शुभ मंगल सावधान की दो सबसे बड़ी ताकत है, एक तो इसके डायलॉग और दूसरी इसकी लंबाई । महज 105 मिनट लंबी फ़िल्म में बहुत कुछ देखने लायक है । किरदारों का परिचय तेजी से किया जाता है और यह सब एक मनोरंजक तरीके से किया जाता है । निंसंदेह, फिल्म गति तब पकड़ती है जब प्रेमी जोड़ा सेक्स करने का फ़ैसला करता है लेकिन नाकाम हो जाता है । फ़िल्म का महत्वपूर्ण सीन बहुत ही बारिकी से हैंडल किया गया है । वास्तव में पूरी फिल्म संवेदनशील ढंग से क्रियान्वित की गई है । फ़िल्म के दृश्यों में हास्य का तड़का लगाया गया है लेकिन उनमें जरा भी फ़ूहड़पना नहीं आता है । असल में मेकर्स इस तरह के एक वर्जित विषय को इतनी खूबसूरती से पेश करने के लिए तारीफ़ के हकदार हैं । दुर्भाग्य से सेकेंड हाफ़ में फ़िल्म फ़िसल जाती है । टकराव फ़िल्म की कहानी में जबरदस्ती डाले गए हैं । यह समझ पाना बहुत मुश्किल होता है कि आखिर चल क्या रहा है । मुदित की पुरानी प्रेमिका नेहा का गाना, कहानी को पेचिदा बनाता है । उसका क्या औचित्य था ? और यदि मुदित उसके साथ परफ़ोर्म करने में सफ़ल होता तो सुगंधा के साथ क्यों नहीं ? एक तनाव भरा सीक्वंस क्लाइमेक्स में जोड़ा जाता है जो केवल आंशिक रूप से काम करता है, फिर इसे फिल्म में सिर्फ एक हाई पर फिल्म खत्म करने के लिए जोड़ा गया था ।

आर एस प्रसन्ना की कहानी, अपरंपरागत है, लेकिन परंपराओं को ध्यान में रखते हुए काफ़ी अच्छी तरह से लिखी गई है । हितेश कावल्या की पटकथा अत्यधिक प्रभावी है, लेकिन सेकेंड हाफ़ के बीच तक ही । इसके बाद, यह लड़खड़ा जाती है । हितेश कावल्या के संवाद बहुत अच्छे हैं और निश्चित रूप से इस साल के सबसे अच्छे में से एक है ।

आर एस प्रसन्ना का डायरेक्शन साफ है लेकिन बाद में थोड़ा गड़बड़ हो जाता है । लेकिन, कुल मिलाकर उन्होंने अच्छा काम किया है, खासकर ऐसे विषय को संभालते हुए । कुछ सीन तो असाधारण रूप से डायरेक्ट किए गए हैं, जैसे-सुगंधा मुदित को संभोग के लिए फुसलाने के लिए पार्क लेकर जाना (ध्यान दीजिए, कैसे ये सीन मज़ेदार होने के कारण आगे बढ़ने से बदलता है), सुगंधा के पिता और अंकल का अचानक महसूस करना कि कैसे वे इतने समान है, डॉक्टर का सीन, मुदीत का फिर से हरिद्वार हवेली में प्रवेश करना, लेकिन बेहतर तरीके से, इत्यादि ।

बरेली की बर्फ़ी के बाद, आयुष्मान खुराना एक और शानदार परफ़ोरमेंस देते हैं । हालांकि बरेली की बर्फ़ी में उनका शानदार परफ़ोरमेंस राजकुमार राव द्दारा ढक गया था । लेकिन यहां उन्हें अपने अभिनय कौशल को दिखाने का पूरा मौका मिला । यदि उनके अभिनय करने के अंदाज को देखो, तो आप महसूस करेंगे कि वह सबसे अच्छे कलाकारों में से एक है ! भूमि पेडनेकर भी शीर्ष रूप में हैं और एक बेहतरीन प्रदर्शन प्रदान करती हैं जो कि उनकी पिछली दो फिल्में (दम लागा के हईशा और टॉयलेट- एक प्रेम कथा) से भी बहुत बढ़िया है । उनकी दुविधा और जिस तरह से वह टकराव के दृश्यों में परफ़ोर्म करती है, वह उल्लेखनीय है । सीमा पहवा (विमला, सुगांधा की मां) अपने पहले सीक्वंस में जान डाल देती हैं (यह फ़िल्म का मजेदार थिएटर सीन है)। भूमि के साथ उनका अलीबाबा के बारें में बातचीत करना, खूब तारीफ़ें बटोरता है । सुगंधा और मुदित के पिता का किरदार निभाने वाले कलाकार भी दिल जीत ले जाते है और वे फ़िल्म के पागलपन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । बृजेन्द्र कला (सुगंधा का चाचा) के लिए भी ऐसा ही कुछ है । गोपाल दत्त (डॉक्टर) एक विशेष उपस्थिति में अपनी छाप छोड़ जाते हैं । अंशुल चौहान (गिन्नी) अच्छी है । सुप्रिया शुक्ला (मुदित की मां) थोड़ी ज्यादा लगती है ।

फ़िल्म का म्यूजिक ठीक-ठाक है । 'लड्डू' गीत याद रखने योग्य है जबकि 'रॉकेट सैंया दिलकश है । 'कान्हा' अच्छे से शूट किया गया है । रचिता अरोड़ा का पृष्ठभूमि स्कोर मनोरंजक है ।

लक्ष्मी केलूसकर और संदीप मेहर का प्रोडक्शन डिजाइन प्रामाणिक है । अनुज राकेश धवन का छायांकन सरल और साफ है । निनाद खानोलकर का संपादन क्रिस्पी है ।

कुल मिलाकर, शुभ मंगल सावधान की हल्की फ़ुल्की कहानी है जिसे इसके वर्जित विषय के बावजूद पूरे परिवार के साथ देखा जा सकता है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म वर्ड ऑफ़ माउथ से बढ़ने और एक आश्चर्य के रूप में सामने आने की क्षमता रखती है । इसे जरूर देखिए ।