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बॉलीवुड में आजकल बायोपिक का काफ़ी चलन है, और इन्हें दर्शकों द्दारा खूब सराहा भी जाता है । लेकिन अक्सर, कई बायोपिक आलोचना का शिकार भी होती हैं क्योंकि कई बार ये बायोपिक फ़िल्म गलत शख्सियत का महिमामंडन करती हुई नजर आती है । लेकिन इस मामले में निर्देशक राज कुमार हिरानी की हालिया रिलीज फ़िल्म संजू नहीं है, क्योंकि इस फ़िल्म में उन्होंने अभिनेता संजय दत्त की जिंदगी के कई उतार-चढ़ावों को दिखाया है न कि उनके आपराधिक दौर का महिमामंडन किया है । फ़िल्म में संजय दत्त का किरदार, रणबीर कपूर ने इतनी शिद्द्त से निभाया है कि लग ही नहीं रहा कि ये संजय दत्त नहीं रणबीर कपूर हैं । तो क्या संजू अपने उत्साह को बरकार रखने में कामयाब होती है और हिरानी की सफ़लता में एक और पंख जोड़ती है, या फ़िल्म के रूप में यह निराश करती हैं, आईए समीक्षा करते हैं ।

फ़िल्म समीक्षा : संजू

संजू, एक विवादित अभिनेता संजय दत्त और उनके जीवन के कुछ नाटकीय और महत्वपूर्ण एपिसोड के ऊपर बनी बायोपिक फ़िल्म है । संजय दत्त (रणबीर कपूर), प्रसिद्ध अभिनेता सुनील दत्त (परेश रावल) और दिग्गज अभिनेत्री नर्गिस (मनीषा कोइराला) के बेटे हैं। वह अपने पिता द्वारा बनाई गई फिल्म रॉकी से बॉलीवुड में लॉंन्च होने वाले हैं । अपने पिता से अपसेट होकर वह पहली बार अपने दोस्त जुबिन मिस्त्री (जिम सरभ) के माध्यम से ड्रग्स लेने की कोशिश करते हैं । और तभी इस मोड़ पर उन्हें पता चलता है कि उनकी मां नर्गिस कैंसर से पीड़ित है और जिंदा रहने के लिए उनके पास बस कुछ ही दिन हैं । इसलिए नर्गिस को इलाज के लिए न्यू यॉर्क ले जाया जाता है । संजू अपनी ड्रग्स लेने की आदत को छोड़ने में अक्षम है फ़िर भले ही उनकी मां जिंदगी और मौत के बीच क्यों न झूल रही हो । न्यूयॉर्क में रहते हुए, संजू की कमलेश कपासी (विकी कौशल) से दोस्ती होती है और दोनों के बीच एक अद्भुत बॉंड बन जाता है । लेकिन, अफसोस, संजू की नशे की लत के कारण, उसकी प्रेमिका रुबी (सोनम कपूर) के साथ उनका रिश्ता बिगड़ जाता है और एक निराशाजनक नोट पर समाप्त हो जाता है । रॉक की रिलीज से सिर्फ तीन दिन पहले नर्गिस की मौत हो जाती है । और फ़िर संजू अपनी नशे की आदत से छुटकारा पाने के लिए अमेरिका जाने के लिए सहमत हो जाता है । जब वह अपनी इस आदत से छुटकारा पाता है तो उसके लिए एक और बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है । संजू को अवैध हथियारों को रखने के लिए जुर्म में गिरफ्तार कर लिया जाता है । उन पर 1993 में मुंबई में हुए सीरियल बम विस्फोट करने में आतंकवादियों की सहायता करने का भी आरोप लगाया जाता है । संजय दत्त अपने ऊपर लगे इस आरोप से कैसे लड़ते है, यह बाकी की फ़िल्म में पता चलता है ।

राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी की कहानी दिलचस्प है लेकिन कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि उन्होंने इसे सेफ़ तरीके से प्ले करने की कोशिश की है । लेकिन उन्होंने हर चीज को बेलेंस करते हुए इस बात का ध्यान रखा है कि वह दत्त की बुरी इमेज का महिमामंडन नहीं करें और न ही उनके बुरे पक्ष को हाईलाइट करें । साथ ही यह प्रभावित करता है कि कैसे राजकुमार और अभिजात ने अपनी फ़िल्म को संजय के फ़िल्मी करियर पर फ़ोकस नहीं किया बल्कि उनकी पर्सनल लाइफ़ और जिंदगी में हुई उथल-पुथल पर केंद्रित किया है । राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी की पटकथा दमदार है और कुछ कमी के बावजूद, इसे, फिल्मों को लिखने के तरीके के बारे में एक गाइड के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है । फ़िल्म में इतनी सारी घटनाएं होने के साथ, लेखक ने इस बात का पूरा ख्याल रखा है कि, कोई भी घटना किसी से ओवरलैप न हो जाए । हर चीज काफ़ी सफ़ाई से बारिकी से गूंथी गई है । उदाहरण के लिए, वो सीन जब दत्त भारत वापस लौट रहा होता है, रूबी के बारे में नर्गिस की टिप्पणी । यह रूबी से संबंधित अगले सीन के लिए व्यवस्थित और अच्छी तरह से लिंक किया जाता है । राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी के डायलॉग हमेशा मनोरंजक, तेज और दमदार होते हैं। भीतरी इलाकों और सिंगल स्क्रीन में सेक्स से जुड़े कुछ डायलॉग हंसा-हंसा कर लोटपोट कर देंगे । हालांकि कहीं-कहीं दर्शकों का एक खंड ऐसे चुटकलों व डार्क ह्यूमर को रद्द करेगा ।

राजकुमार हिरानी का निर्देशन उम्मीद के मुताबिक काफ़ी ज्यादा प्रभावित करता है । इस तरह की फ़िल्म को बनाना कोई आसान काम नहीं है लेकिन उन्होंने इसे काफ़ी अच्छी तरह व सरल तरीके से निष्पादित और प्रस्तुत किया है । उनका जादू कई सीन में दिखाई देता है और दर्शकों को मुस्कुराते हुए और नम आंखों में छोड़ता है । हालांकि, फ़िल्म का क्लाइमेक्स सीन और भी बेहतर और और ज्यादा दमदार हो सकता था ।

संजू की सबसे बड़ी ताकत यह है कि, यह फिल्म कहीं भी फ़िसलती नहीं है । पटकथा दिलचस्प है और आपको बांधे रखती है, भले ही आप, जो भी दिखाया जा रहा है, उससे सहमत न हो । और इस फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है यह है कि ये 160 मिनट लंबी है । आगे-पीछे की कहानी अच्छा काम करती है और दर्शकों को बांधे रखती है । फ़िल्म का फ़र्स्ट हाफ़ बेहतरीन है ये कई इमोशनल, फ़नी और ड्रामेटिक सीन से भरा हुआ है । फ़िल्म का इंटरवल चौंकाने वाली घटना पर होता है । सेकेंड हाफ़ में मेडनैस बरकरार रहती है लेकिन फ़िल्म की कहानी यहां थोड़ी कमजोर सी हो जाती है । ये फ़िल्म फ़र्स्ट हाफ़ में सर्वश्रेष्ठ लगती है लेकिन अफ़सोस, सेकेंड हाफ़ में ऐसा कुछ नहीं होता है । इस फिल्म को एक पंच या रॉकिंग नोट पर समाप्त होना चाहिए था, जैसा कि राजकुमार हिरानी की पिछली फिल्मों में हुआ था । हालांकि, फिल्म कुल मिलाकर एक मजबूत भावनात्मक प्रभाव छोड़ती है, जो बहुत अच्छी तरह से काम करती है ।

रणबीर कपूर पूरी तरह से फ़िल्म में छाए रहते हैं और जबरदस्त परफ़ोरमेंस देते हैं । कहीं भी उनका प्रदर्शन नकल करने वाला सा प्रतीत नहीं होता है और वह यह सुनिश्चित करने में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देते हैं कि वह संजय दत्त की तरह दिखें और उनकी तरह व्हवहार करें । इमोशनल सीन में रणबीर देखने लायक हैं, खासकर तब, जब उनकी मां का देहांत होता है और वह अपने पिता को संभालते हैं । इतना ही नहीं उस सीन को देख दर्शकों की आंखें भर आती हैं जब वह अपने पिता के लिए स्पीच को पढ़ नहीं पाते हैं और बाद में अनिवार्य हो जाता है । संज़ू निश्चित रूप से रणबीर की सबसे सफ़ल तर्कसंगत प्रदर्शन वाली फ़िल्म है और इसके लिए वह ढेर सारी सराहना, प्रशंसा और पुरस्कार के हकदार हैं । परेश रावल भी काफ़ी प्रभावित करते हैं और पूरे परफ़ेक्शन के साथ सुनील दत्त का महत्वपूर्ण रोल अदा करते हैं । संजू एक पिता-बेटे की कहानी है और वह रणबीर के साथ काफ़ी अच्छा तारतम्य बनाते हैं और कुछ सीन तो हद से ज्यादा बेहतरीन लगते हैं । विकी कौशल फ़िल्म में एक सरप्राइज पैकेज की तरह हैं । उनकी एंट्री से लेकर, कई जगहों पर वह छा जाते हैं और फ़िल्म में हास्य का तड़का लगाते हैं । इसके अलावा वह इमोशनल सीन में भी काफ़ी छा जाते हैं खासकर उस सीन में जब वह रुबी से मिलते हैं या वह सुनील दत्त को बताते हैं कि उन्हें संजय दत्त की मदद करने की जरूरत है । सेकेंड हाफ़ में उन्हें देखना और भी ज्यादा जरूरी है जब वो हॉस्पिटल में संजय दत्त से मिलते हैं और क्लाइमेक्स से ठीक पहले, जब वो रेडियो सुनते हैं । मनीषा कोईराला सपोर्टिंग रोल में है लेकिन वह फ़िल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और वो अपने अभिनय का जादू चलाने में कामयाब होती हैं । अनुष्का शर्मा (विनी डायस के रूप में) एक शानदार प्रदर्शन देती हैं । हालांकि उनका स्क्रीन टाइम काफ़ी कम हैं । जिम सरभ अपनी भूमिका के साथ न्याय करते हैं और एक प्रभाव छोड़ते हैं । सोनम कपूर (रुबी के रूप में) कैमियो में जंचती है । बोमन ईरानी (होमी के रूप में) फ़िल्म में हास्य परोसते हैं । सयाजी शिंदे (बांडू दादा के रूप में) हर तरीके से एक गैंगस्टर के रुप में दिखते हैं । दीया मिर्जा (मान्यता दत्त के रूप में) ओवरपार्वड लगती हैं । अदिति सिया (प्रिया दत्त के रूप में) प्रिया की तरह दिखती हैं लेकिन फिल्म में उनके लिए ज्यादा कुछ करने के लिए नहीं है। करिश्मा तन्ना (पिंकी के रूप में) काफी सिजलिंग है और सिर्फ एक दृश्य के लिए होने के बावजूद एक अमिट छाप छोड़ती हैं । महेश मांजरेकर (खुद), पियुष मिश्रा (डी त्रिपाठी), अश्विन मुशरान (सुरक्षा अधिकारी), भारत दाभोलकर (वकील) और अंजन श्रीवास्तव (मंत्री) अपने-अपने रूप में जंचते हैं ।

फ़िल्म के गाने इतने अच्छे नहीं है लेकिन फ़िल्म के लिए अच्छा काम करते हैं । ‘कर हर मैदान फ़तह’ सभी गानों में बेहतरीन हैं । ‘मैं बढ़िया तू भी बढ़िया’ बहुत ही अच्छी तरह से दर्शाया गया है । ‘रुबी रुबी’ (ए आर रहमान द्दारा ) को बैकग्राउंड में प्ले किया जाता है । संजय वंद्रेकर और अतुल रानिंगा का पृष्ठभूमि स्कोर बहुत बेहतर और उत्साहजनक है । एस रविविर्मन का छायांकन शानदार है और कुछ स्थानीय जगहों को खूबसूरती से कैप्चर किया गया है। असल में, वह पहले शॉट से ही प्रभावित कर जाता है, और वो है- बांद्रा के एक पक्षी का आई व्यू। शशांक तेरे का प्रोडक्शन डिजाइन आकर्षक और समृद्ध है। लखानी के परिधान प्रामाणिक हैं। विक्रम गायकवाड़ के मेक-अप डिज़ाइन, क्लोवर वूटन के प्रोस्थेटिक्स और एनएफ वीएफएक्सवाला द्वारा वीएफएक्स का रणबीर को हर उम्र में संजय दत्त की तरह दिखाने के लिए सर्वोच्च प्रशंसा के पात्र है । राजकुमार हिरानी का संपादन क्रिस्पी है।

कुल मिलाकर, संजू भावनाओं, हास्य और ड्रामा के पर्याप्त मिश्रण के साथ एक मनोरंजक फ़िल्म है । यह फ़िल्म, दमदार, आकर्षक और इमोशनल है । राजकुमार हिरानी और रणबीर कपूर का कॉम्बिनेशन इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खासियत है । बॉक्सऑफ़िस पर 'ठेठ राजकुमार हिरानी परिवारिक मनोरंजक फ़िल्म' होने के बावजूद, संजू काफ़ी सफ़लता अर्जित करेगी और जबरदस्त हिट साबित होगी ! इसे बिल्कुल भी मिस मत कीजिए !