फ़िल्म समीक्षा : मुक्काबाज

Jan 11, 2018 - 11:33 hrs IST
Rating 2.5

पिछले कुछ सालों से, हम खेलों पर आधारित कई फ़िल्में देख चुके हैं [चक दे इंडिया, भाग मिल्खा भग, मैरी कॉम, एम एस धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी, दंगल, सुल्तान, साला खड़ूंस] और इनमें से ज्यादातर फ़िल्मों ने बॉक्सऑफ़िस पर काफ़ी अच्छा प्रदर्शन किया और इन्हें दर्शकों द्दारा खूब पसंद भी किया गया । इन फ़िल्मों ने खेल के अलावा कई मुद्दों को भी उठाया । लेकिन किसी भी फिल्म ने इस बारे में बात नहीं की है कि एक स्थाई सरकारी नौकरी पाने के लिए लोग अक्सर खेल का सहारा लेते हैं । अनुराग कश्यप की हाल ही में रिलीज हुई मुक्काबाज, इसी पहलू को दर्शाती है और इसी के साथ कई मुद्दों को भी दर्शाती है जो वर्तमान में लोग फ़ेस कर रहे है । तो क्या यह फ़िल्म जबरदस्त प्रभाव छोड़ने में कामयाब होगी या नाकाम हो जाएगी, आईए समीक्षा करते है ।

मुक्काबाज एक निचली जाति के युवा की कहानी है जो असंख्य बाधाओं का सामना करता है जब उसे एक उच्च जाति की लड़की से प्यार हो जाता है । श्रवण (विनीत कुमार सिंह) बरेली में एक निम्न जाति का मुक्केबाज हैं जो सुनैना मिश्रा (जोया हुसैन) से प्यार कर बैठता है । सुनैना, जो स्थानीय गुंडे भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) की बहन हैं, जो इस जोड़ी को न केवल जाति की असमानताओं के कारण अस्वीकार करता है बल्कि एक बार श्रवण ने उसे एक बार मुक्का जड़ दिया था, इसलिए भी । भगवान दास मुक्केबाजी महासंघ में एक शक्तिशाली अधिकार रखता है और यह सुनिश्चित करता है कि श्रवण मुक्केबाजी में जिला चैम्पियनशिप में कभी भी नहीं चुना जाए । यहां असफ़ल होने बाद, श्रवण बनारस का रुख करता है और संजय कुमार (रवि किशन) के तहत ट्रेनिंग लेता है । वह जीतने के लिए लालयित रहता है ताकि उसे रेलवे में जॉब मिल जाए और शादी के लिए सुनैना का हाथ मांग सके । हालांकि यह स्पष्ट है कि यह सब इतना आसान नहीं है, भगवान दास, श्रवण द्दारा किए गए खुद के अपमान को कभी भूलता नहीं है । अब इसके बाद क्या होता है, यह सब आगे की फ़िल्म देखने के बद पता चलता है ।

मुक्काबाज में जिस पहली चीज पर ध्यान जाता है वो है कि, यह फ़िल्म विशिष्ट अनुराग कश्यप फिल्म की तरह बिल्कुल नहीं दिखती है । यह वास्तव में आज तक की उनकी सबसे कमर्शियल फिल्म है । वहीं, यह फिल्म समाज के कई मुद्दों पर भी चर्चा करती है जिससे समाज पीड़ित है । ग्रामीण क्षेत्रों के समाज में बुरी तरह से फ़ैला जातिगत वर्गीकरण अच्छी तरह से प्रस्तुत किया जाता है । वहीं इसके उलट, यह फ़िल्म तकरीबन 150 मिनट लंबी है । फ़िल्मांकन कई जगहों पर बिखरा हुआ सा लगता है और कई सीन एक फ़्लो में नजर नहीं आते हैं । यह सच है कि कई जगहों पर गाने हर कुछ मिनट में बजना शुरू हो जाते है, जो वांछित प्रभाव नहीं बनाते हैं ।

अनुदीप सिंह की कहानी को विशेष रूप से नायक-खलनायक ट्रैक के इर्द-गिर्द घूमाया जाता है । हालांकि अनुराग कश्यप, विनीत कुमार सिंह, मुक्ति सिंह श्रीनेट, के डी सत्यम, रंजन चंदेल और प्रसून मिश्रा की पटकथा यह सुनिश्चित करती है कि किसी को भी अतीत में आई इस तरह की एक्शन और स्पोर्ट्स फिल्मों से पहले जैसा कोई आभास नहीं मिलता है । उनके डायलॉग मज़ेदार और ज्वलनशील हैं, जिससे सही प्रभाव पड़ता है ।

अनुराग कश्यप का निर्देशन उनका बेहतरीन नहीं है क्योंकि वह ऑरगेनिक फ़्लो को बनाए रखने में कई जगहों पर असफल रहते है । इसके अलावा वह गौमांस संबंधी गैर कानूनी ढंग से प्राणदंड के बारें में बड़ी ही बहादुरी के साथ बोलते है । लेकिन वह इसे बहुत ही बारीकी से पेश करते है और जरा भी 'गाय' शब्द का इस्तेमाल नहीं करते है । इसलिए, जो लोग इन चौंकाने वाली घटनाओं से परिचित नहीं हैं, वे ठीक से समझ नहीं पाएंगे कि क्या हो रहा है । लेकिन सकारात्मक पक्ष पर, कुछ दृश्य को बहुत ही चतुराई से संभाला जाता है जैसे- जहां संजय कुमार और भगवान दास पहली बार मिलते हैं, श्रवण ने अपने रेलवे बॉस को धमकी देता है और बिल्कुल आखिरी दृश्य इत्यादि ।

विनीत कुमार ने गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, अगली इत्यादी फ़िल्मों में बेहतरीन परफ़ोरमेंस दिया था । लेकिन इस फ़िल्म में विनीत मुख्य भूमिका में नजर आए है और पूरी तरह से छा जाते है । वह काफ़ी डेशिंग लगते है और उन्होंने अपनी बॉडी पर खूब काम किया है और भावपूर्ण सीन में खूब जंचते है । उनके सबसे यादगार दृश्यों में से एक है जब वह अपने पिता पर क्रोधित होते है । ध्यान दें कि वह व्यंग्य होने के साथ कैसे शुरू होता है और फिर अचानक उसकी आंखों में आँसू आ जाते है । जोया हुसैन बिल्कुल नहीं बोलती हैं और केवल साइन भाषा के माध्यम से वार्तालाप करती हैं । वह इसे बखूबी करती है । जिमी शेरगिल विलेन की भूमिका में काफी जंचते है । उनकी आंखें बहुत सारी बातें करती हैं और यह बहुत बड़ी उपलब्धि है । रवि किशन (संजय कुमार) देर से प्रवेश करते हैं लेकिन मनोहर ढंग अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । श्री धर दुबे (गोपाल तिवारी) अपनी उपस्थिति महसूस कराते है । राजेश तैलंग (श्रवण के पिता विजय) अच्छे लगते हैं । अन्य कलाकार जो एक प्रभाव छोड़ते हैं वे हैं- सुनैना के माता-पिता, श्रवण की बहन, पुलिस और कनिष्ठ कोच का किरदार निभाने वाले कलाकार । नवाजुद्दीन सिद्दीकी एक गीत में ठीक-ठाक लगते है ।

फ़िल्म में बहुत सारे गाने हैं और सबसे ज्यादा भूलाए जाने योग्य हैं । इसके अलावा उन्हें ऐसे तरीके से रखा गया है कि कोई उन्हें याद नहीं कर पाएगा । 'पेंट्रा' बहुत अच्छा लगता है लेकिन इसे पृष्ठभूमि में चलाया जाता है और इस ट्रैक के दौरान संवाद ओवरलैप होते है । 'मुश्किल है अपना' गाना सभी में सबसे अच्छा है और थीम सॉंग के रूप में सामने आता है । 'हाथापाई' दिलचस्प है जबकि 'छिपकली' और 'साढ़े तीन बजे' कुछ प्रभाव छोड़ते है । प्रशांत पिल्लई का पृष्ठभूमि स्कोर बेहतर और नाटकीय है और प्रभाव को बढ़ाता है ।

शाज़िया ज़ाहिद इकबाल का प्रोडक्शन डिजाइन प्रामाणिक है । सीन की मांगों के अनुसार राजीव रवि, शंकर रमन, जय एल पटेल और जयेश नायर की सिनेमेटोग्राफी क्रिस्पी और साफ भी है । आरती बजाज और अंकित बिद्याधर का संपादन, और मज़बूत और सहज हो सकता था । विक्रम दहिया और सुनील रॉड्रिग्स के एक्शन फिल्म का एक मुख्य आकर्षण है ।

कुल मिलाकर, मुक्काबाज अनुराग कश्यप की अभी तक की सबसे मजबूत फ़िल्म है । और इसका श्रेय जाता है बेहतरीन परफ़ोरमेंस, डायलॉग्स, एक्शन और काफ़ी अच्छे से फ़िल्माए गए सीन को । लेकिन फ़िल्म की लंबी लंबाई, असंबद्ध निर्देशन, और चर्चा में कमी, फ़िल्म का मज़ा खराब करने वाले बनते है और यह सब टिकट विंडो पर अच्छे कलेक्शन की उम्मीद को निश्चितरूप से प्रभावित करेंगे ।

Recent Articles