/00:00 00:00

Listen to the Amazon Alexa summary of the article here

कुछ हॉरर फ़िल्मों को छोड़कर बाकी की फ़िल्मों ने दर्शकों को काफ़ी हद तक निराश किया है । डरावनी शैली की फ़िल्मों में पीरियड हॉरर फ़िल्में भी है । विक्रम भट्ट ने कुछ डरावनी फ़िल्में बनाई जैसे- 1920 [2008] और हॉंटेड 3D [2011] । और इस हफ़्ते आनंद गांधी और सोहम शाह लेकर आए हैं एक डरावनी फ़िल्म तुम्बाड । यह एक पीरियड हॉरर फ़िल्म है जो स्वतंत्रता से पहले के दौर पर बेस्ड है । तो क्या तुम्बाड दर्शकों को डराने में कामयाब हो पाएगी, या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाएगी । आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : तुम्बाड

तुम्बाड एक ऐसे आदमी की कहानी है, जो ढेरों स्वर्ण मुद्राएं पाना चाहता है । जब ब्रह्मांड बनाया गया था, तब उसमें समृद्धि की देवी,जो असीमित भोजन और सोने की प्रतीक हैं, 16 करोड़ देवताओं और देवियों को जन्म दिया गया । देवी को अपना पहला बच्चा-हस्तर ज्यादा पसंद होता है । लेकिन हस्तर पूरा भोजन और सोना अपने अधिकार में लेना चाहता था । हस्तर ने सोना तो पा लिया लेकिन जब वह भोजन पर अपना अधिकार जमाने गया तो अन्य देवी-देवताओं ने उस पर हमला बोल दिया । इससे पहले कि वह पूरी तरह से नष्ट हो जाता, समृद्धि की देवी ने उसे अपने गर्भ में रखकर बचा लिया लेकिन एक शर्त पर - कि उसकी कोई पूजा नहीं करेगा और उसे भूला दिया जाएगा । कई सदियों बाद, महाराष्ट्र के तुम्बाड गांव में वहां के निवासियों ने हस्तर के सम्मान में एक मंदिर बनवा दिया और इसके बाद यह गांव शापित हो गया । यह एक ऐसा गांव बन गया जहां बार-बार बारिश होने लगी । कहानी की शुरूआत होती है 1918 से । यहां किशोर विनायक अपने छोटे भाई सदा और अपनी मां के साथ रहता है । उसकी मां उस गांव, जहां हस्तर का मंदिर होता है, की सरकार की रखैल होती है । विनायक और सदा नाजायज बच्चे होते है । सरकार हस्तर से उस खजाने को पाने की कोशिश करता है लेकिन उसकी कोशिश बेकार चली जाती है और उसे सिर्फ़ एक स्वर्ण मुद्रा मिलती है । सरकार मर जाता है । सदा एक पे्ड़ से गिरकर मर जाता है । इसके बाद विनायक की मां उस स्वर्ण मुद्रा को लेकर विनायक के साथ तुम्बाड गांव को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ देती है । लेकिन 15 साल बाद साल 1933 में विनायक (सोहम शाह) पूरे खजाने की तलाश में तुम्बाड लौटता है । यहां भाग्य उसका साथ देता है और उसे एक ऐसा तरीका पता चल जाता है जिससे वह पूरा खजाना पा सकता है । लेकिन इस बीच उसे सिर्फ़ कुछ ही स्वर्ण मुद्राएं मिलती है । विनायक इन स्वर्ण मुद्राओं को स्थानीय साहूकार को बेच देता है लेकिन साहूकार को बात काफ़ी खटकती है कि आखिर वह यह सिक्के कहां से लाता है और वह भी इन स्वर्ण मुद्राओं को पाने की जुगाड़ में लग जाता है जिससे वह अपने अफीम के व्यवसाय के लिए लाइसेंस प्राप्त कर सके । इसके बाद की कहानी पूरी फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलती है ।

मितेश शाह, आदेश प्रसाद, राही अनिल बर्वे और आनंद गांधी की कहानी अद्वितीय और अपरंपरागत है । इस तरह की कहानी और सेटिंग, तुम्बाड एक गेम चेंजर फ़िल्म में तब्दील हो सकती थी । लेकिन मितेश शाह, आदेश प्रसाद, राही अनिल बर्वे और आनंद गांधी की पटकथा ऐसा नहीं होने देती है । लेकिन कुछ घटनाओं को सूक्ष्म तरीके से चित्रित किया गया है, उनसे बचा जा सकता था । मितेश शाह, आदेश प्रसाद, राही अनिल बर्वे और आनंद गांधी के संवाद सरल और उतने यादगार नहीं हैं ।

राही अनिल बर्वे का निर्देशन थोड़ा कमजोर है और वह कहानी के साथ न्याय कर पाने में असफ़ल होते है । उनके निर्देशन मेंजो सबसे बड़ी समस्या है वह है कि कुछ जगहों पर चीजें अच्छी तरह से स्पष्ट नहीं की गई है । उदाहरण के लिए, हस्तर को याद रखने वाले पहले व्यक्ति कौन थे और उस व्यक्ति को उनके बारे में कैसे पता चला, खासकर जब उन्होंने कहीं भी इसका शास्त्रों में उल्लेख नहीं किया ? फ़िल्म का क्लाइमेक्स आपका ध्यान आकर्षित करता है लेकिन एक बार फ़िर, एक सवाल खड़ा होता है, आखिर ऐसा मोड़ क्यों आया ।

तुम्बाड के शुरूआती मिनट किसी भी कीमत पर मिस नहीं किए जाने चाहिए । गांव और हस्तर की पूरी किंवदंती यहां समझाई गई है और इस पल को मिस करना सबसे ज्यादा नुकसानदायक होगा । यह फ़िल्म तीन चैप्टर में बंटी हुई है । फ़िल्म का पहला हिस्सा, जिसमें विनायक का बचपन शामिल है, काफ़ी परेशान करने वाला और अनावश्यक रूप से खून-खराबे से भरा हुआ है । यह जरा भी बांधे नहीं रखता है । दूसरा चैप्टर थोड़ा बेहतर है, हालांकि इसमें बहुत कुछ अधूरा सा रह जाता है । इंटरमिशन प्वाइंट अच्छी तरह से शूट किया गया है और यहां से सेकेंड हाफ़ से यह फ़िल्म बेहतर होने लगती है । सेकेंड हाफ़ के शुरू होने के तुरंत बाद गर्भ का सीन एक अमिट छाप छोड़ता है । फ़िल्म का तीसरा चैप्टर काफ़ी बेहतरीन है, खासकर फ़ाइनल सीन में । लेकिन जिस तरह से निर्माता कुछ सवालों के जवाब अधूरे छोड़ देते हैं, यह बात दर्शकों को काफ़ी निराश करती है ।

सोहम शाह शानदार परफ़ोरमेंस देते है । उनके डेड एक्सप्रेशन, डायलॉग डिलिवरी और आंखे एक जादू सा चलाती है और इस रोल के लिए बहुत अच्छी तरह से काम करती हैं । अनीता डेट (विनायक की पत्नी) काफी अच्छी है और कुछ दृश्यों में एक छाप छोड़ती है । रोंजिनी चक्रवर्ती (विनायक की रखैल) एक अच्छा प्रदर्शन देती है, खासकर उस दृश्य में जहां वह विनायक के बेटे से मिलती है । मोहम्मद समद (विनायक का बेटा) काफी अच्छा है और सेकेंड हाफ़ में छा जाता है । ज्योति माल्शे (विनायक की दादी) ठीक है और उनका मेक अप यकीनन कई सारे दर्शकों को डरा कर रख देगा ।

अजय-अतुल का म्यूजिक कुछ कमाल नहीं दिखा पाता । केवल एक गाना, जो कि शीर्षक गीत है, फ़िल्म के कई मोड़ पर प्ले किया जाता है । जेस्पर किड का पृष्ठभूमि स्कोर हालांकि शानदार है और ये एक अंतरराष्ट्रीय अनुभव देता है । पंकज कुमार की छायांकन शानदार है और साल के सर्वश्रेष्ठ में से एक है । महाराष्ट्र के स्थानीय इलाकों को खूबसूरती के साथ कैप्चर किया है । फिल्मगेट फिल्म्स एबी का वीएफएक्स काफी अच्छा है और शिकायत करने का कोई कारण नहीं देता है । नितिन जिहानी चौधरी और राकेश यादव का उत्पादन डिजाइन विशेष रूप से गर्भ के दृश्यों में प्रशंसनीय है । सेरीना मेंडोंका टेक्सिरा और श्रीकांत देसाई का मेकअप और डर्टी हैंड्स व स्टूडियो हैश के प्रोस्थेटिक्स देखने लायक हैं । परवेज शेख के एक्शन अच्छे हैं जबकि सान्युकता काजा का संपादन स्मूद है ।

कुल मिलाकर, तुम्बाड एक यूनिक कॉंसेप्ट पर बनी फ़िल्म है लेकिन इसकी असंबद्ध कहानी, पूरा मजा खराब करती है । दर्शकों को लुभाना इस फ़िल्म के लिए चुनौतीपूर्ण होगा और इसलिए यह बॉक्सऑफ़िस पर भी कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाएगी ।