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किसी ने कहा है कि, ''इच्छाशक्ति मांसपेशियों की तरह है: जितना अधिक आप इसे प्रशिक्षित करेंगे, यह उतनी ही मजबूत होती जाती है ।''हां, शायद यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल, खासकर तब, जब पूरी दुनिया आपको छोड़ देने या कोशिश न करने के लिए कहे । लेकिन कुछ ऐसे इंसान भी है जो इन सब बातों को दरकिनार करते हुए अपनी मजबूत इच्छाशक्ति के बल पर असंभव को भी संभव कर दिखाते है । और ऐसा ही एक इंसान है हॉकी खिलाड़ी संदीप सिंह, जिसको एक दुर्घटना ने अपाहिज बना दिया था, लेकिन बुलंद हौंसलों के चलते वे फ़िर से अपने पैरों पर खड़े हुए और देश के लिए खेले । और इन्हीं की कहानी पर बेस्ड है इस हफ़्ते रिलीज हुई फ़िल्म सूरमा, जो संदीप सिंह की प्रेरणादायक बायोपिक फ़िल्म है । तो क्या निर्देशक शाद अली इतनी प्रेरणादायक कहानी के साथ रोमांचकारी कहानी कहने में कामयाब होंगे या वह अपने इस प्रयास में विफ़ल हो जाएंगे ? आइए समीक्षा करते हैं ।

फ़िल्म समीक्षा : सूरमा

सूरमा, संदीप सिंह की अविश्वसनीय कहानी है, हॉकी की दुनिया में उनकी शुरुआत, उनका एक्सीडेंट और उनकी वापसी, जिसने हर किसी को चौंका दिया । संदीप सिंह (दिलजीत दोसांझ ) शाहाबाद,पंजाब के गांव में अपने बड़े भाई विक्रमजीत सिंह (अंगद बेदी), पिता (सतीश कौशिक) और माता के साथ रहते हैं । बचपन में वह हॉकी कोच कोच करतर सिंह (डेनिश हुसैन) के अंडर में हॉकी की ट्रेनिंग लेते है । लेकिन करतार के सख्त रवैये से संदीप हॉकी में प्रशिक्षण छोड़ने को मजबूर हो जाता है । लेकिन फ़िर जब वो जवान होता है तो उसका फ़िर से हॉकी के लिए प्रेम जाग जाता है क्योंकि वह महिला हॉकी खिलाड़ी हरप्रीत (तापसी पन्नू) से प्यार करने लगता है । हरप्रीत काफ़ी अच्छी हॉकी खिलाड़ी है और इसलिए वह हरप्रीत को रिझाने के लिए फ़िर से हॉकी खेलने का फ़ैसला करता है । इस बीच, संदीप के भाई बिक्रमजीत सिंह (अंगद बेदी) ने कभी हॉकी नहीं छोड़ी और उनमें राष्ट्रीय टीम में खेलने की क्षमता है । लेकिन वह सलेक्ट नहीं हो पाता है । वह निराश होकर घर लौटता है लेकिन इस बात को जानकर बेहद खुश हो जाता है कि, संदीप आसानी से ड्रैगफ्लिक,जो हॉकी का बेहद मुश्किल कौशल है, कर सकता है । इसके बाद बिक्रमजीत संदीप को पटियाला लेकर जाता है ताकि उसे कोच हैरी (विजय राज़) उसे प्रशिक्षित कर सके । बिना समय गंवाए संदीप नेशनल टीम में शामिल हो जाता है । इसी के साथ संदीप को एयरलाइन कंपनी में जॉब भी मिल जाता है । हरप्रीत भी उससे शादी करने केलिए तैयार हो जाती है । लेकिन ये सब एक झटके में चकनाचूर हो जाता है जब संदीप ट्रेन में सफ़र कर रहा होता है और पुलिस गलती से उसकी पीठ पर गोली चला देती है जिसकी वजह से वह कोमा में चला जाता है और जब होश आता है तो उसका नीचे का पैरों वाला हिस्सा लकवाग्रस्त हो जाता है । यह कहने की जरूरत नहीं है कि, इस दुर्घटना के बाद वह फ़िर से हॉकी खेलने लायक नहीं होता है । इसके बाद क्या होता है, यह पूरी फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

शाद अली की कहानी काफ़ी प्रोमिसिंग और प्रेरणादायक है । लेकिन सुयश त्रिवेदी, शाद अली और शिव अनंत की पटकथा इसके साथ न्याय करने में विफल हो जाती है । यह फ़र्स्ट हाफ़ में थोड़ी धीमी होती है लेकिन इसी के साथ इस दौरान कई सारे सीन काफ़ी अच्छी तरह से लिखे गए हैं । लेकिन सेकेंड हाफ़ में यह बहुत तेज भागती है और कोई भी प्रभाव नहीं छोड़ती है । सुयश त्रिवेदी, शाद अली और शिव अनंत के संवाद विनोदी, तेज और हास्यास्पद हैं, खासकर विजय राज़ द्वारा बोले गए डायलॉग ।

शाद अली का निर्देशन असंगत है, जहां फ़र्स्ट हाफ़ कमोबेश अच्छी तरह से निष्पादित किया गया है लेकिन सेकेंड हाफ़ निराश करता है । इंटरवल के बाद, वह कहानी कहने में भागते है । और इस मोड़ पर वह रोमांटिक ट्रेक के साथ न्याय कर पाने में नाकाम हो जाते है, जो कि फ़र्स्ट हाफ़ में काफ़ी प्यारा लगता है । इसके अलावा हॉकी एक खेल है लेकिन यह उतना लोकप्रिय नहीं है जितना की क्रिकेट । इसलिए इस बात का ध्यान रखा जाना अतिआवश्यक था कि आम जनता उन हॉकी के सीन को समझे जो दिखाए जा रहे है । लेकिन ऐसा नहीं होता है । कुछ सीन तो बिल्कुल अच्छी तरह से एक्सप्लेन नहीं किए गए । उदाहरण के तौर पर, चैयरमेन साब (कुलभूषण खरबंदा) को वापस क्यों बुलाया जाता है, यह ठीक से समझाया नहीं जाता है । सूरमा जैसी फ़िल्म को एक पंच के साथ खत्म होना चाहिए था । लेकिन भारत-पाकिस्तान के बीच का फ़ाइनल मैच एकदम फ़ीका है ।

सूरमा थोड़ी सी कमजोर फ़िल्म है और यह ठीक शुरूआत से ही समझ आने लगता है । लेकिन फ़िर भी दर्शक निराश नहीं होते क्योंकि फ़िल्म के फ़र्स्ट हाफ़ में कुछ प्यारे और नाटकीय सीन है जो फ़िल्म के लिए आपकी रूचि को बनाए रखते हैं । फ़िल्म के सबसे दिलचस्प सीन में से एक वो सीन जब बिक्रमजीत को महसूस होता है कि संदीप एक बहुत अच्छा ड्रैगफ्लिकर है और बाद में वह हैरान रह जाते हैं कि उसके पास इतना दुर्लभ कौशल है । विजय राज अपने फ़नी वन लाइनर्स के साथ हंसी लेकर आते है । फ़िल्म का इंटरवल हैरान कर देने वाले मोड़ पर होता है । लेकिन अफ़सोस, सेकेंड हाफ़ से फ़िल्म गिरती चली जाती है । संदीप का वापस अपने पैरों पर खड़े होने और वापस मैदान पर लौटने की प्रक्रिया, फ़िल्म के सबसे हाई-प्वाइंट होने चाहिए थे । लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि, निर्देशक शाद अली इस पूरी प्रक्रिया को एक गीत के अंदर दिखा देते है जिससे इसका प्रभाव पूरी तरह से कम हो जाता है । और इसकी वजह ये है कि, आज भी लोगों के जहन में चक दे इंडिया [2007] की याद ताजा है जिसने हॉकी पर आधारित फ़िल्म के लिए एक बैंचमार्क सेट कर दिया है । सूरमा ऐसी आईकॉनिक फ़िल्म के करीब भी नहीं है ।

दिलजीत दोसांझ काफ़ी हद तक फ़िल्म को बचाते हैं । वह जब अपनी प्रेमिका के साथ रोमांस करते हैं तो बहुत प्यारे लगते हैं और पूरे भारत का दिल जीत लेते हैं । लेकिन जब वह एक दुर्घटना का शिकार होते हैं तो दिल दहल सा जाता है । वह उस समय देखने लायक होते हैं जब उनका अपने भाई के साथ अपने घर के बाहर झगड़ा होता है । तापसी पन्नू ने काफ़ी दिलचस्प किरदार निभाया है लेकिन दुख की बात है कि एक समय बाद उनका रोल उतना दमदार नहीं लगता है । परफ़ोरमेंस की बात करें तो, वह अपने रोल में काफ़ी जंची हैं । अगंद बेदी ने सहायक भूमिका निभाई है लेकिन वह अपने किरदार में जंचते हैं । विजय राज पूरी फ़िल्म में छाए रहते हैं । उनके कुछ डायलॉग तो हंसा-हंसा के पेट फ़ाड़ देने वाले लगते हैं, खासकर सिंगल स्क्रीन में । सतीश कौशिक (गुरुचरन) ईमानदारी से अपनी भूमिका निभाते हैं । कुलभूषण खरबंदा और अवतार सिंह (महावीर भुल्लर) काफी प्यारे लगते हैं । डेनिश हुसैन बहुत जंचते है । जिमी मोजेज (लोबो जोसेफ) थोड़े से ओवर लगते हैं । असली बिक्रमजीत सिंह फिल्म में खलनायक पाकिस्तानी खिलाड़ी तनवीर आलम के रूप में दिखाई देते है और वह इस रोल में जंचते है । अन्य लोग अपना-अपना किरदार काफ़ी गंभीरता से निभाते हैं ।

शंकर-एहसान-लॉय का संगीत भूलाने योग्य है । 'सूरमा एंथम' एक एंथम की तरह लगता है लेकिन इसका इस्तेमाल सही तरह से नहीं हुआ । 'इश्क दी बाजिया' काफ़ी प्यारा गीत है लेकिन कई सीन में प्ले किया जाता है । 'फ़्लिकर सिंह' और 'परदेसियां" सख्ती से ओके हैं जबकि 'गुड मेन दी' गाना काफ़ी अच्छे से शॉट और कॉरियोग्रफ़ किया गया है । शंकर-एहसान-लॉय और टब्बी का पृष्ठभूमि स्कोर नाटकीय है । चिरंतन दास का छायांकन थोड़ा निराशाजनक है । कुछ दृश्य बेहतर शॉट हो सकते थे । शर्मिस्त राय का प्रोडक्शन डिजाइन प्रामाणिक है और यही बात एका लखानी की कॉस्ट्यूम डिजाइन पर भी लागू होती है । फारूक हुंडेकर का संपादन मुख्य रूप से सेकेंड हाफ़ में और बेहतर हो सकता था ।

कुल मिलाकर, सूरमा आशाजनक कहानी से भरी फ़िल्म है लेकिन कमजोर निष्पादन इस फ़िल्म को प्रभावपूर्ण नहीं बनाता है । काफ़ी कम प्रचार के कारण यह फ़िल्म बॉक्सऑफ़िस पर संघर्ष कर सकती है । अन्य जगहों की तुलना में ये फ़िल्म उत्तर भारत में अच्छा प्रदर्शन करनी चाहिए ।