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यह वो समय है जब छोटे शहरों से जुड़ी कहानी को दिखाया जा रहा है और 'असल भारत' की ये कहानी निश्चितरूप से काम भी कर रही है । इस साल शुभ मंगल सावधान और बरेली की बर्फ़ी जैसी फ़िल्मों ने काफ़ी अच्छा प्रदर्शन किया और इनकी सफ़लता के एक कारणों में से एक था, इसका जड़ों से जुड़ा होना या यथार्थता ।  शादी में जरूर आना एक ऐसी ही यथार्थता को दिखाती फ़िल्म है जो एक प्रेम कहानी के साथ-साथ नाटकीय, टकरावकारी कहानी है । तो क्या यह फ़िल्म मनोरंजन करने में कामयाब होगी, या दर्शकों को लुभाने में विफल रहती  है ? आइए समीक्षा करते हैं ।

शादी में जरूर आना एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपनी शादी के दौरान काफ़ी अपमान झेलता है । सत्येंद्र मिश्रा उर्फ सत्तु (राजकुमार राव) लखनऊ बेस्ड है और एक्साइज विभाग में जॉब करता है । उसका परिवार उसकी शादी आरती शुक्ला (कृति खरबंदा) के साथ तय करने का फैसला करती है । आरती थोड़ा उलझन में है क्योंकि उसका मानना है कि शादी उसकी महत्वाकांक्षाओं के रास्ते में आ सकती है । लेकिन वह सत्तु के साथ बहुत अच्छी तरह से मिलती है और सत्तू उससे प्यार कर बैठता है । शादी के दिन, आरती की बहन आभा (नयनी दीक्षित) को सुनने में आता है कि सत्तू की मां आरती को काम करने की अनुमति नहीं देगी । वहीं दूसरी तरफ़, पीसीएससी का परिक्षा परिणाम सामने आता है और आरती वो सफलतापूर्वक पास कर लेती है । आभा आरती को सलाह देती है कि उसे शादी से भाग जाना चाहिए और अपनी प्रोफ़ेशनल लाइफ़ चुननी चाहिए । नहीं तो उसके ससुराल वाले उसकी लाइफ़ बर्बाद कर देंगे जैसे आभा के ससुराल वालों ने उसके साथ किया था । इसके बाद आरती भाग जाती है । इसके बाद सत्तू टूट जाता है । और फ़िर पांच साल बाद,  आरती लखनऊ में एक उप रजिस्ट्रार बन जाती है । अचानक एक दिन उस पर 3 करोड़ रुपये की रिश्वतखोरी का आरोप लग जाता है । और जो अधिकारी इस मामले की जांच करता है वह कोई और नहीं बल्कि सत्तू होता है, जो अब डिप्टी मैजिस्ट्रेट बन गया है ! वह आरती से बदला लेने का फ़ैसला करता है जो उसने पांच साल पहले उसे और उसके परिवार को अपमानित करने का कारण बनी थी । इसके बाद क्या होता है, यह बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

शादी में जरूर आना के फ़र्स्ट हाफ़ में कुछ समस्याएं हैं लेकिन आप इसे पास कर देते हो क्योंकि आगे बढ़ने के साथ इसमें वास्तव में कुछ अच्छे पल है । जिस तरह से सत्तू और आरती एक-दूसरे के प्यार में पड़ते हैं, वह प्यारा है । पूरा दहेज वाला भाग अच्छी तरह से सोचा गया है । नाटकिय सीन जब आरती भाग जाती है, खींचा हुआ सा लगता है लेकिन यह देखना अच्छा लगता है । सेकेंड हाफ़ की शुरूआत अच्छी तरह से होती है लेकिन जल्द ही यह धराशायी हो जाता है । दर्शक ये समझने में नाकाम होते हैं कि आखिर मेकर्स सत्तू कैसे पेश करना चाहते हैं ? क्या सभी अपराधों के लिए दर्शकों को उसके साथ सहानुभूति रखनी चाहिए ?

या उससे नफ़रत करनी चाहिए, जिस तरह से वह आरती को पीड़ित करता है उसके लिए ? पूरा रिश्वतखोरी जांच सीन नाटकीय नोट पर समाप्त होता है और आप उम्मीद करतें हैं कि फिल्म वहां खत्म हो जाएगी । लेकिन इसके बाद फ़िल्म 20-25 मिनट और खींच जाती है । यह भाग फ़िर से अनावश्यकरूप से लंबा कर दिया जाता है और हद से ज्यादा उम्मीद के मुताबिक हो जाता है ।

कमल पांडे की कहानी दिलचस्प है लेकिन यह बहुत देर में आई है । शायद यह जानबूझकर नहीं किया गया है, लेकिन इसका फ़र्स्ट हाफ़, फ़िल्म बद्रीनाथ की दुल्हनिया के पहले घंटे जैसा लगता है जबकि अंत के 20 मिनट बरेली की बर्फ़ी, जिसमें राजकुमार राव ने ही अभिनय किया था, के समान ही मिलते-जुलते लगते हैं । कमल पांडे की पटकथा कुछ जगहों पर ठीक है लेकिन कुल मिलाकर यह काफी निराशाजनक है । कमल पांडे के संवाद सरल और सभ्य हैं ।

रत्ना सिन्हा का निर्देशन वांछित प्रभाव नहीं छोड़ता है । यह फ़िल्म कई जगहों पर अविश्वसनीय और मूर्खतापूर्ण लगती है । कई सीन एक साथ चलते हैं और इस तथ्य के बावजूद यह स्पष्ट होता है कि मेकर्स शुरुआत में उस सीन में क्या दिखाना चाहते थे ।

राजकुमार राव हमेशा से ही शानदार परफ़ोरमेंस देते हैं । लवर ब्यॉय सत्तू के रूप में वह प्यारे लगते हैं और निर्दयी कलेक्टर के रूप में वह काफ़ी जंचते हैं और वह अपने दोनों अवतारों को शानदार ढंग से निभाते है । कृति खरबंदा ने अपनी पिछली फ़िल्मों की तुलना में इसमें कहीं ज्यादा अच्छा काम किया है । हालांकि सेकेंड हाफ़ में उनका किरदार असहनीय हो जाता है, और एक मोड़ के बाद यह बहुत अधिक हो जाता है । गोविंद नामदेव (आरती के पिता) अच्छे हैं । विपिन शर्मा (सत्तू के मामा) एक छाप छोड़ जाते हैं । मनोज पहवा (आरती के चाचा जोगी) सहायक कलाकारों में से सबसे अच्छे लगते है । इसके बाद आती हैं नयनी दीक्षित और पूर्व अंतराल भाग पर हावी हो जाती है । के के रैना (सत्तू के पिता जुगल किशोर मिश्रा) ने अपने हिस्से को अच्छी तरह निभाया है  । नवनी परिहार (आरती की मां) और अभिनेता आरती के भाई, सत्तू की मां, शरद, आरती के जूनियर और प्रमोद की भूमिका निभाने वाले अपनी-अपनी भूमिका में बहुत जंचते हैं ।

गाने निराश करते हैं । 'जोगी' और 'मैं हूं साथ तेरे' भूलाए जाने योग्य है । 'तु बनजा गली बनारस की' बहुत सारे गानों में सबसे अच्छा गीत है । 'पल्लो लटके' अंत के क्रेडिट देने के लिए बजाया जाता है । प्रसाद सश्ते का पृष्ठभूमि स्कोर नाटकीय है और प्रभाव को बढ़ाने की कोशिश करता है ।

सुरेश बीसवेनी का छायांकन संतोषजनक है । बल्लु सलूजा का संपादन फ़िल्म का सबसे बड़े दुश्मन में से एक है । प्रदीप सिंह और अरुप अधिकारी का आर्ट निर्देशन भी कुछ महान नहीं है ।

कुल मिलाकर, यह फ़िल्म दिलचस्प आइडिए पर टिकी है लेकिन इसकी कार्यवाही बहुत निस्तेज है । प्रचार की कमी की वजह से यह फ़िल्म बॉक्सऑफ़िस काफ़ी संघर्ष करेगी ।