रिलेशनशिप की गतिशीलता में एक बड़ा बदलाव आया है लेकिन यह हमारी अधिकांश फिल्मों में दिखाई नहीं देता है । तनुजा चंद्रा, ने जीवन गाथा के इस टुकड़े के साथ अपनी फ़िल्म करीब करीब सिंगल के साथ ये चुनौती ली, उन्होंने आज की दुनिया में डेटिंग के विभिन्न पहलुओं के बारे में बात करने का प्रयास किया है । तो क्या यह फ़िल्म दर्शकों से जुड़ पाती है या उन्हें मनोरंजित करने में नाकाम होती है, आईए समीक्षा करते हैं ।
करीब करीब सिंगल, दो लोगों की कहानी है, जो एक डेटिंग एप पर मिलते हैं और देशभर में यात्रा करते हैं । जया (पार्वती थिरुवोथू) 35 साल की एक विधवा है जो अपने जीवन में खालीपन महसूस करती है । वह एक डेटिंग वेबसाइट पर अपना अकाउंट बनाती है और वहां एक 40 वर्षीय कवि योगी (इरफान खान) से मिलती है । वह बेहद बातूनी, विचित्र और जया से काफ़ी विपरीत होता है । लेकिन फ़िर भी जया उससे जुड़ाव महसूस करती है । योगी जया को अपनी पिछली तीन प्रेमिकाओं के बारें में बताता है और साथ ही बताता है कि वे तीनों अभी भी उसे बहुत मिस करती है । जया उससे कहती है कि वह सिर्फ़ डींगे हांक रहा है । योगी अपनी बात साबित करने के लिए जया को उनसे मिलाने ले जाता है जहां वह रह रही होती है । शुरूआत में जया मना करती है लेकिन फ़िर बाद में मान जाती है । यह यात्रा उनके रिश्ते को कैसे आगे ले जाती है, यह बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।
करीब करीब सिंगल, की शुरूआत काफ़ी अच्छी तरह से होती है । ओपनिंग क्रेडिट बहुत अच्छी तरह से एक्सप्लेन किए गए हैं कि कैसे अकेली जया है । जया-योगी की पहली मीटिंग काफ़ी मजेदार है । लम्पट आदमियों के साथ अपनी जिंदगी में मस्त रहने वाला योगी, जो जया को एक डेटिंग एप पर पिंग करता है, निश्चित रूप से भरपूर तारीफ़ पाने के योग्य है । फ़िल्म का असली मजा तब शुरू होता है जब उनकी यात्रा शुरू होती है और उनकी यात्रा में होने वाली कई दुर्घटनाएं फ़िल्म के मजे को बढ़ाती है । ॠषिकेश एपिसोड हल्का-फ़ुल्का और मजेदार है । अलवर एपिसोड अपना महत्व रखता है, लेकिन यहां से फ़िल्म खींच जाती है और इंटरेस्ट लेवल गिर जाता है । लेकिन ये इंटरेस्ट गंगटोक सीन में पुनर्जीवित हो जाता है ।
कामना चंद्रा की कहानी बेहद रिलेटेबल है क्योंकि यह अकेलापन, रिश्ते की आवश्यकता, डेटिंग एप्पस आदि के बारे में बताती है । इसके अलावा, दो मुख्य पात्रों को अच्छी तरह से लिखा गया है जो फिल्म को मजबूत बनाने में मदद करते है । तनुजा चंद्रा और गज़ल धलीवाल की पटकथा उत्साही और सरल है । फिल्म में बारीकियों और गूढ़ संकेतों को अच्छी तरह से सम्मिलित किया है । गज़ल धलीवाल के संवाद फिल्म के हाईपॉइंट में से एक हैं । फ़िल्म के कई वन लाइनर फ़िल्म को ऊंचाई पर ले जाते हैं ।
तनुजा चंद्रा का निर्देशन स्वच्छ है और यह फिल्म उनके द्दारा बनाई हुईं उन गहन फ़िल्मों से काफ़ी ज्यादा अलग है, जो उन्होंने पहले बनाई हैं । उन्होंने इस प्लॉट को बहुत ही परिपक्वता और संवेदनशीलता से संभाला है । यह फिल्म को एक अच्छा स्पर्श देने में मदद करता है । वहीं पर, फिल्म बहुत आला है । मुख्यधारा की अपील निश्चित तौर पर गायब है । इसके अलावा फिल्म धीमी गति से आगे बढ़ती है और अलवर एपिसोड थोड़ा निराशाजनक है ।
इरफ़ान खान ने एक बार फ़िर शानदार परफ़ोरमेंस दी है । जब ऐसे विचित्र प्रदर्शन की बात आती है तो वो छा जाते हैं । लेकिन इसी के साथ वह इस बात का भी ख्याल रखते हैं कि किसी को भी उनकी समान परफ़ोरमेंस देखने को नहीं मिले । यह कोई आसान उपलब्धि नहीं है । पार्वती थिरुवोथु एक पावरहाउस कलाकार हैं और इस फ़िल्म में पूरी तरह से छा जाती है । वह अब तक बॉलीवुड में एक अज्ञात नाम है, लेकिन इस फिल्म के बाद, वह निश्चित रूप से चर्चित हो जाएंगी । बृजेंद्र काला कैमियो में मजेदार लगते है । नेहा धूपिया (अंजलि) अच्छी हैं । पुष्ठी शक्ति (राधा) प्रभावशाली है । ईशा शरवानी (गज़ल) एक मिनट के सीन के लिए हैं और उसमें ठीक है । सिद्धार्थ मेनन (आशीष) काफी अच्छे हैं, खासकर योगी के साथ उनके दृश्यों में । ल्यूक केनी (सिद्कोंग) ठीक_ठाक है । नवनीत निशान और ड्राइवर का किरदार अदा करने वाले भी अपने रोल में जंचते हैं ।
दुख की बात है कि फ़िल्म के गाने प्रभावित नहीं करते है । 'खत्म कहानी' सबसे ज्यादा यादगार है । 'जाने दे' और 'तू चले तो' भूलाने योग्य है । पृष्ठभूमि स्कोर सूक्ष्म और प्रभावी है । इशित नारायण का छायांकन विस्मयकारी है । लेंसमैन ने ऋषिकेश, राजस्थान और गंगटोक के स्थानीय इलाकों को बहुत ही खूबसूरती से कैप्चर किया है । चंदन अरोड़ा का संपादन निष्पक्ष है, हालांकि कुछ दृश्यों को थोड़ा बढ़ाया गया है । रवि श्रीवास्तव का प्रोडक्शन डिजाइन समृद्ध है । मारिया थारकन और कीर्ती कोलकनकर के कॉस्ट्यूम आकर्षक है, खासकर इरफान द्वारा पहने जाने वाले ।
कुल मिलाकर करीब करीब सिंगल, एक सुखद अहसास कराने वाली प्रेम कहानी कम रोड ट्रिप फ़िल्म है । चर्चा में कम रहने और बड़े पैमाने पर अपील नहीं कर पाने के बावजूद, यह फ़िल्म आपके चेहरे पर एक मुस्कान छोड़ जाती है और युवा और शहरी दर्शकों को रिझाने का दम रखती है ।