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मां-बाप अपने बच्चें को इस डर से कभी अकेला नहीं छोड़ते कि कहीं उनका बच्चा अनजाने में अपने आपको कोई नुकसान न पहुंचा ले । विनोद कापड़ी की इस हफ़्ते रिलीज हुई फ़िल्म पीहू, इसी तथ्य के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है । यह फ़िल्म दरअसल, शहरी इलाकों में न्यूक्लियर घरों में अकेले बच्चे, जिसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है,या वह किसी कारणवश अकेला पड़ गया है, की दास्तां को बयां करती है । दिलचस्प बात ये है कि, यह फ़िल्म सच्ची घटना पर आधारित है । तो क्या, पीहू दर्शकों को नाखून चबा देने वाला अनुभव प्रदान करेगी या यह दर्शकों को निराश करेगी ? आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : पीहू

पीहू एक ऐसी बच्ची की कहानी है जो अपने ही घर में फ़ंस सी जाती है । पीहू (मायरा विश्वकर्मा उर्फ पीहू) दो साल की होती है और इस खास मौके पर उसकी मां पूजा (प्रेरणा शर्मा) और पिता गौरव (राहुल बग्गा द्दारा दी गई आवाज) एक पार्टी थ्रो करते है । रात में पीहू के सोने के बाद माता-पिता में बहुत बड़ा झगड़ा होता है और दोनों के बीच पहले भी कई बड़े-बड़े झगड़े हुए है । अगले दिन सुबह ही गौरव अपने काम के सिलसिले में कोलकाता निकल जाता है । वहीं पूजा भी अपनी बोझ सी लगने वाली शादी शुदा जिंदगी से तंग आकर नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या कर लेती है । अगली सुबह जब पीहू जागती है तो पूजा की लाश के पास आती और उसे जगाने की कोशिश करती है । हालांकि उसे इस बात की जानकारी नहीं होती है कि उसकी मां मर चुकी है । इसी बीच गौरव पूजा को किसी काम से फ़ोन करता है । फ़ोन पीहू उठाती है लेकिन अपनी कम उम्र के कारण ठीक से बोल नहीं पाती है । इसी बीच पीहू को भूख लगती है और वह अपने लिए खाना तलाशने के लिए फ़्रिज, रसोई गैस स्टोव के पास जाती है । इसके बाद क्या होता है, यह बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

विनोद कापड़ी की कहानी काफ़ी नोवल और दिलचस्प है और यह हैरान भी करती है कि यह एक सच्ची कहानी पर बेस्ड है । विनोद कापड़ी की पटकथा में कुछ खामियां है । यह एक समय बाद खींचने सी लगती है । आदर्श रूप में, यह 90 मिनट लंबी फिल्म 15-20 मिनट तक कम होनी चाहिए थी । विनोद कापड़ी के डायलॉग्स काफ़ी नेचुरल लगते है । शुक्र है, उपशीर्षक उपलब्ध कराए गए हैं और इसलिए, कोई व्यक्ति सही ढंग से समझ सकता है कि बच्चा को क्या परेशान कर रहा है ।

विनोद कापड़ी का निर्देशन साधारण और आसान है । लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि कहां अंतर रखना चाहिए । उन्हें जो कुछ भी मिला उन्होंने उसका इस्तेमाल किया जिससे फ़िल्म का प्रभाव कम हो गया । लेकिन फ़िल्म के कुछ पॉजिटिव साइड्स भी है जो काफ़ी अच्छे से फ़िल्माए गए है । जैसे पीहू का रेफ़्रिजरेटर में फ़ंस जाना, बेडरूम में धुंआ कहां से आ रहा है और सेकेंड हाफ़ में पीहू का अपने पिता से बात करना ।

पीहू काफ़ी लंबी फ़िल्म लगती है क्योंकि इसमें कुछ भी नया नहीं लगता है । हालांकि शुरूआती 15-20 मिनट निश्चित रूप से बांधे रखती है । शुरुआती क्रेडिट पीहू के जन्मदिन समारोहों को दर्शाते हुए पृष्ठभूमि शोर के साथ समन्वयित होते हैं । लेकिन जल्द ही, फिल्म अपनी गति और चार्म खोना शुरू कर देती है । इस शैली की अन्य फ़िल्में बनी हैं जिन्होंने एक बेंचमार्क सेट किया है । लेकिन पीहू उनके आस-पास भी नहीं भटकती है, वो भी इसली लंबाई के कारण । फ़िल्म के कुछ सीन तो पूरी तरह से समझ के परे लगते है । पीहू का अकेलापन दर्शकों को डाराता जरूर है जिसमें शामिल है पीहू के गैस पर रोटी गर्म करना, टेलीविजन सीन, गीजर, माइक्रोवेब वाले सीन । सभी में असमर्थ पीहू जब घर की बालकनी में जाती है और रेलिंग में चढ़ जाती है, तब ये सीन एकदम से टेंशन लेवल को बढाकर रख देता है । लेकिन इसके अलावा फ़िल्म में कुछ भी नयापन नहीं लगता है । नतीजतन, कोई भी फिल्म में दिखाए जाने वाले विभिन्न डरावनी क्षणों के बारे में आसानी से अनुमान लगा सकता है ।

पीहू में सिर्फ़ दो कलाकारों अहम भूमिका नि्भाते हैं और जिसमें से मायरा विश्वकर्मा स्क्रीन पर सबसे ज्यादा नजर आती है । उम्मीद के मुताबिक, मायरा जबरदस्त परफ़ोरमेंस देती है । कई जगहों पर उनके लुक और हाव-भाव बहुत ही प्यारे लगते है । फ़िल्म के निर्देशक विनोद कापड़ी इतनी छोटी सी बच्ची से इतनी बेहतरीन अभिनय को करवाने के लिए तारीफ़ के हकदार है । प्रेरणा शर्मा पूरी फ़िल्म में एक लाश के रूप में दिखाई देती है और जिसमें वह जंचती है । राहुल बग्गा का वॉयसओवर अच्छा है लेकिन थोड़ा सा अस्वभाविक सा लगता है खासकर अंत में । हालांकि ऋषिता भट्ट (मीरा की आवाज़) ठीक है । क्रोधित पड़ोसी, दुधवाला, पहरेदार इत्यादि जैसे अन्य वॉयसओवर कलाकार ओवरबोर्ड लगते है ।

विशाल खुराना का संगीत थोड़ा सा डेली-सोप सीरियल की तरह है, जबकि थोड़ा और तेज हो सकता था । कुछ दृश्यों में, यह काफी सही है । सुभाष साहू की ध्वनि डिजाइनिंग बहुत बेहतर है और रोमांच तत्वों को बढ़ाती है । योगेश जैन का छायांकन आकर्षक है । यह फ़िल्म में टेंशन लेवल को बढ़ाती है और फ़िल्म को नाटकीय रूप देती है । इरेन धार मलिक, शीबा सहगल और आर्किट डी रास्तोगी का संपादन और भी स्लिक होना चाहिए था ।

कुल मिलाकर, पीहू एक नोवल आइडिया पर बनी फ़िल्म है लेकिन इसकी लंबाई और कुछ जगहों पर इसका समझ से परे लगना, फ़िल्म का पूरा मजा खराब करती है । फ़िल्म के बारें में हुई बहुत कम चर्चा, इसके लिए दर्शक जुटाने में मुश्किल पैदा करेगी ।

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