इतिहास के उस चैप्टर के बारे में जानना हमेशा आकर्षक होता है जो भूला दिया जाता है जबकि वो इतिहास में काफ़ी महत्वपूर्ण स्थान रखता है । अतीत में हमने एयरलिफ़्ट [2016], नीरजा [2016] और हाल ही में रिलीज हुई फ़िल्म गोल्ड,जिसने हमारे सामने देश के वीर उदाहरण प्रस्तुत किए, देखी और इन सभी फ़िल्मों दर्शकों द्दारा भी खूब पसंद किया गया । इस हफ़्ते फ़िल्ममेकर जेपी दत्ता, जो वॉर फ़िल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं, लेकर आए हैं फ़िल्म पलटन । बॉर्डर [1997] और एलओसी: कारगिल [2003], के बाद पलटन लाकर जे पी दत्ता ने अपने पसंदीदा विषय की हैट्रिक लगाई है साथ ही दर्शकों को अपने देश के सैनिकों पर गर्व करने का एक और मौका दिया है । तो क्या पलटन दर्शक को उत्साह से भरने में सफल होती है ? या यह निराश करती है ? आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : पलटन

पलटन 1967 में भारत और चीन के बीच एक सैन्य संघर्ष की कहानी को दर्शाती है । यह वो समय था जब सिक्किम भारत का हिस्सा नहीं था । चीन इसे किसी भी सूरत में रणनीतिक कारणों से हथियाना चाहता था लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण, वे अपने इरादे सार्वजनिक नहीं कर सकते थे । लेकिन फ़िर भी, सिक्किम में नाथू ला सीमा पर, भारतीय सैनिकों को डराने के लिए कुछ झड़पें होती है । फिल्म की कहानी 1962 के चीन के द्वारा नाथुला पासिंग पर हमला करने से शुरू होती है । जिसकी वजह से हमारे 1383 जवान शहीद हुए । हजारों घायल और लापता भी हुए थे । जिसके बाद बॉर्डर पर सगत सिंह (जैकी श्रॉफ) के कहने पर लेफ्टिनेंट कर्नल राय (अर्जुन रामपाल) के अंडर में मेजर हरभजन सिंह (हर्षवर्धन राणे), लेफ्टिनेंट अत्तर (लव सिंहा), कैप्टन पृथ्वी डागर (गुरमीत चौधरी), मेजर बिशन सिंह (सोनू सूद) और हवलदार पराशर (सिद्धांत कपूर) सीमा की सुरक्षा करने में लग जाते हैं । नाथुला पोस्ट की सुरक्षा का काम बिशन को दिया जाता है । चीनी सेना से बार-बार छोटी मोटी लड़ाई होती रहती है । बाद में फेंसिंग बनाने के कारण बात बढ़ने लगती है । इसी बीच कहानी फ्लैशबैक और प्रेजेंट में चलती रहती है । जिसकी वजह से सभी अपने अपने परिवार को याद करते हैं । जंग छिड़ती है और अंतत: एक रिजल्ट सामने आता है, जिसे जानने के लिये आपको फिल्म देखनी पड़ेगी ।

जेपी दत्ता की कहानी असल जिंदगी की घटना पर आधारित है और वह इसे प्रमाणिक बनाने की हर संभव कोशिश करते है । जेपी दत्ता की पटकथा बांधे रखने वाली है । दोहराए जाने वाले सीन के बावजूद भी दर्शक, जरा भी बोर नहीं होते है । जेपी दत्ता के डायलॉग्स साधारण और शार्प है । लेकिन कलाकारों द्वारा हर कुछ मिनटों में बहुत सारे प्रसिद्ध उद्धरण दिए गए हैं ।

जेपी दत्ता का निर्देशन सर्वश्रेष्ठ है । अक्सर, 80 के दशक और 90 के दशक में चमकने वाले फिल्म निर्माता समय के साथ आगे बढ़ने में सक्षम नहीं होते हैं, हालिया उदाहरण अनिल शर्मा का है, जिसने जीनियस को निर्देशित किया है, लेकिन जे पी दत्ता इस बात का ख्याल रखते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि आज के दर्शकों को फिल्म में बराबर की दिलचस्पी हो । और साथ ही उन्होंने अपनी संवेदनशीलता भी बरकरार रखी है । हालांकि उन्हें फ़िल्म की गति को इतना नहीं बढ़ाना चाहिए था, और बॉर्डर जैसे सीन को नजरअंदाज करना चाहिए था । लेकिन उन्होंने युद्ध के सीन काफ़ी बेहतरीन तरीके से फ़िल्माए है । । उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा है कि दर्शकों को सीमा पर तनाव महसूस हो ।

पलटन ढाई घंटे लंबी है लेकिन मूड सेट करने में काफ़ी समय लगाती है । युद्ध सेकेंड हाफ़ के मध्य में शुरू होती है और यहीं से फ़िल्म असल में चमकती है । इससे पहले, भी कुछ ऐसे पल हैं जो दिल जीत लेते हैं । सबसे ज्यादा दिल तोड़ देने वाला सीन शुरूआत में आता है जब एक डाकिया घर-घर जाकर टेलीग्राम देता है और फ़िर पता चलता है कि 1962 के युद्ध में उनके घर का सदस्य शहीद हो गया है । जिस तरीके से डाकिया ने टेलीग्राम को बांटा है और उसके बैकग्राउंड में रोने की आवाज सुनाई देती है, वह कंपकंपा देने वाली है । इसके बाद कहानी 1967 में शिफ़्ट हो जाती है, और फ़िर फ़िल्म बांधना शुरू करती है । लेकिन यह दोहराया जाता है । भारतीय सैनिकों के साथ बहस करने वाले चीनी सैनिकों के बहुत सारे सीक्वंस हैं । यह देखना दिलचस्प है लेकिन बॉर्डर जैसा फ़ील देती है । हालांकि युद्ध के सीन बिना किसी शिकायत के है । वीरता से भरे युद्ध सीन यकीनन तालियों और सीटी का हकदार होंगे । इसके अलावा सैनिकों के अवशेष प्राप्त करने वाले परिवार के सदस्यों का सीन देख दुख से व आंसूओं से आपका गला भर आएगा ।

जैकी श्रॉफ़ फ़िल्म में सपोर्टिंग रोल में नजर आते हैं और अच्छा काम करते हैं । शुरुआत में उनके कुछ अंग्रेजी डायलॉग्स को समझना थोड़ा मुश्किल है । अर्जुन रामपाल बॉर्डर का मुख्य इंचार्ज ऑफ़िसर का किरदार बखूबी निभाते हैं । जिस तरह से वह आक्रामकता दिखाते है, लेकिन साथ ही वह यह भी जानते हैं कि खुद को कब रोकना है, काफ़ी प्रभावशाली है । सोनू सूद काफ़ी नैचुरल लगते हैं और फिल्म में बहुत कुछ जोड़ते है । गुरमीत चौधरी अपने ह्यूमर, गुस्से और अपने रोमांटिक साइड से एक अमिट छाप छोड़ते हैं । हर्षवर्धन राणे भी एक शानदार प्रदर्शन देते है और नाराज युवा सरदार के रूप में काफ़ी जंचते है । गुरमीत और हर्षवर्धन दोनों फाइनल सीन में सबसे अधिक प्रशंसा और सीटी प्राप्त करने के हकदार हैं । इन दो युवा कलाकारों को इस फिल्म में अपनी वास्तविक क्षमता दिखाने का मौका मिलता है । सिद्धांत कपूर का रोल कम है, लेकिन वह अपने अनुवादक के किरदार को यादगार बनाते हैं । लव सिन्हा ठीक है लेकिन सेकेंड हाफ़ के कुछ महत्वपूर्ण दृश्यों में अपना बेहतरीन दिखाते हैं । अभिलाश चौधरी और नागेंद्र चौधरी के पास करने के लिए बहुत कम स्कोप है । रोहित रॉय (मेजर चीमा) बर्बाद होते है । अभिनेत्री की बात करें तो, मोनिका गिल (हरज्योत) को अधिकतम स्कोप मिलता है दीपिका कक्कड़ (कप्तान पृथ्वी सिंह डागर की मंगेतर) के बाद, लेकिन दोनों ही अपने-अपने किरदार में खूब जंचती है । ईशा गुप्ता (लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह यादव की पत्नी) शायद ही कभी नजर आती हैं जबकि सोनल चौहान (मेजर बिशन सिंह की पत्नी) केवल एक गाने में कुछ सेकंड के लिए दिखाई देती हैं ।

अनु मलिक का संगीत चार्टबस्टर किस्म का नहीं है लेकिन फिल्म के लिए काम करता है । फ़िल्म का शीर्षक गीत औसत है और 'रात कितनी' जबरदस्ती का डाला हुआ है लेकिन किसी भी तरह काम करता है । 'मैं जिंदा हूं' सबसे अधिक प्रभाव उत्पन्न करता है । संजय चौधरी का पृष्ठभूमि स्कोर नाटकीय है और उत्साह को बढ़ाता है ।

निगम बोम्ज़न और शैलेश अवस्थी का छायांकन लुभावना है और लोकल ब्यूटी को बहुत खूबसूरती से कैप्चर किया है । हालांकि प्रामाणिकता के मामले में, फिल्म में थोड़ी कमी लगती है क्योंकि उन्होंने लद्दाख में सिक्किम को रिक्रिएट करने की कोशिश की है जबकि दोनों क्षेत्रों की भौगोलिकताएं काफ़ी अलग-अलग हैं । अमरीश पतंज और दयानिधि पटुरजन का प्रोडक्शन डिजाइन बहुत वास्तविक है । माओ ज़ेडोंग का विशाल बिलबोर्ड एक प्रभाव बनाता है । शाम कौशल के एक्शन बहुत ही खतरनाक हैं और युद्ध के दृश्यों को काफ़ी वास्तविक बनाते हैं इसी के साथ ही वह खून-खराबे से भी बचते हैं । बल्लु सालुजा का संपादन उचित है । हालांकि कुछ स्थानों पर वीएफएक्स और भी बेहतर हो सकते थे ।

कुल मिलाकर, पलटन न केवल दर्शकों को उस खोए हुए चैप्टर के बारें में बतलाती है बल्कि उसे दर्शाने में मनोरंजन भी करती है । भले ही फ़िल्म के बारें में उतनी चर्चा नहीं थी, लेकिन सिनेप्रेमियों द्दारा देखने के बाद फ़िल्म के बारें में की गई तारीफ़ फ़िल्म के लिए निश्चितरूप से काम करेगी ।