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समय बदल गया है, और अब महिला सशक्तीकरण तेजी से पैर पसार रहा है और इसलिए लगने लगा है कि, हर क्षेत्र में लिंग भेद मिटाकार महिला-पुरुष को बराबरी का हक दिया जाए । लेकिन इस मामले में अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है । इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई विपुल अमृतलाल शाह की फ़िल्म नमस्ते इंग्लैंड, इसी मुद्दे को एक अलग तरीके से दर्शाती है । आठ साल पहले विपुल अमृतलाल शाह अक्षय कुमार और कैटरीना कैफ़ की जोड़ी के साथ नमस्ते लंदन लेकर आए थे, जिसे दर्शकों ने खूब पसंद किया था, और अव अर्जुन कपूर और परिणीति चोपड़ा के साथ लेकर आए इस फ़्रैंचाइजी की दूसरी फ़िल्म नमस्ते इंग्लैंड । तो क्या नमस्ते इंग्लैंड अपनी पहली फ़िल्म से भी सफ़ल साबित होगी और दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब हो पाएगी ? या यह अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम साबित होगी, आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : नमस्ते इंग्लैंड

नमस्ते इंग्लैंड की कहानी एक जोड़े के प्यार और उनके सपनों के बीच की कहानी है । परम (अर्जुन कपूर) और जसमीत (परिणीति चोपड़ा) पंजाब के एक छोटे से गांव में रहते है । जब दोनों एक दूसरे से मिलते हैं तो दोनों एक दूसरे से प्यार कर बैठते है । इसी बीच जसमीत, जो ज्वैलरी डिजाइनिंग में काफ़ी रूची रखती है, को अमृतसर में एक जॉब मिल जाता है । जबकि जसमीत के दादा (शिवेंद्र महल) महिलाओं की नौकरी के सख्त खिलाफ़ होते है । इसलिए जसमीत उनसे अपने जॉब की बात छुपाती है लेकिन एक दिन सच्चाई सामने आ जाती है । तभी परम जसमीत के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है और दावा करता है कि वह उसे शादी के बाद भी नौकरी करने देगा । परम की फ़ैमिली जसमीत के घर शादी का प्रस्ताव लेकर जाती है । जसमीत के दादाजी मान जाते हैं लेकिन एक शर्त पर कि जसमीत शादी के बाद नौकरी नहीं करेगी । आखिरकार दोनों की शादी हो जाती है । एक साल बाद जसमीत अपनी दोस्त हरप्रीत (मल्लिका दुआ) से मिलती है । हरप्रीत अपने पति के साथ लंदन में खुशहाल जिंदगी जीती है । उसे देखकर, जसमीत को भी लगता है कि वह भी भारत छोड़कर इंग्लैंड में सेटल हो जाए ताकि वह वहां आजादी से अपना जॉब कर सके । परम भी उसके साथ चलने के लिए राजी हो जाता है । लेकिन अब समस्या ये खड़ी होती है, परम भारत छोड़कर नहीं जा सकता । इसके बाद जसमीत एक प्लान बनाती है कि वह अकेली ही इंग्लैंड जाएगी और वहां सब सेत करेगी उसके बाद परम को अपने पास बुला लेगी । लेकिन वहां पहुंचकर कुछ और ही कहानी बन जाती है, ये कहानी क्या बनती है, इसके लिए आपको पूरी फ़िल्म देखनी पड़ेगी ।

रितेश शाह और सुरेश नायर की कहानी बहुत कमजोर और मूर्खतापूर्ण है जो बेहद बारीक कहानी पर टिकी हुई है । कहानी में कई सारी कमिया है । रितेश शाह और सुरेश नायर की पटकथा बेहद कमजोर है और इन कमियों को छुपाने के लिए कुछ भी नहीं किया जाता है । हैरानी की बात है कि, दोनों की जोड़ी ने अतीत में कई सारी अच्छी फ़िल्में दी है, जैसे- एयरलिफ़्ट [2016], डी-डे [2013], रेड [2018], मर्दानी [2014] और यहां तक कि नमस्ते लंदन और फिर भी उन्होंने सामूहिक रूप से इस तरह की स्क्रिप्ट को लिखा । रितेश शाह और सुरेश नायर के डायलॉग्स काफ़ी खराब और पुराने है ।

विपुल अमृतलाल शाह का निर्देशन बहुत खराब है और ऐसा लगता है कि उन्होंने अपना चार्म खो दिया । फ़िल्म के कई सारे सीन अचानक शुरू होते हैं और अनायास ही खत्म हो जाते हैं, लेकिन वह इसकी भरपाई करने की कई मर्तबा कोशिश करते है । इसके अलावा वह नमस्ते लंदन का जादू फ़िर से दोहराने की कोशिश करते हैं, चाहे वो इंटरवल का मोड़ हो या वो सीन जब परम देशभक्तिपूर्ण भाषण देता है । जहां नमस्ते लंदन का लैटर सीन अभी भी यादगार है वहीं नमस्ते इंग्लैंड में ये सीन जबरदस्ती का डाला हुआ लगता है ।

नमस्ते इंग्लैंड की एक अजीब शुरुआत होती है । प्रेमियों को विभिन्न सीजन के दौरान एक-दूसरे से मिलते-जुलते दिखाए जाते हैं और इसे समझने में कुछ समय लगता है । इस मोड़ पर परम अपने दोस्त को जसमीत के ग्रुप की एक लड़की से शादि करने के लिए मजबूर करता है ताकि उसे जसमीत से बार-बार मिलने का मौका मिले । ये सीन देखकर दर्शक समझ जाते हैं कि ये फ़िल्म अपना कोई अर्थ नहीं रखती है । जसमीत के दादाजी का जसमीत का काम करना यहां तक की शादी के बाद भी, पसंद नहीं आता है, लेकिन फ़िर भी काम करती है । लेकिन इस दृश्य में जो दृश्य काम नहीं करता है वह शादी में गुरप्रीत का नाटक है । शादी के बाद, परम-जसमीत का रोमांस प्यारा लगता है और गुरनाम (सतीश कौशिक) के दृश्य रुचि को बनाए रखने में मदद करते हैं हालांकि फिल्म यहां से भी संतुष्ट नहीं करती है । इंटरवल काफ़ी चौंकाने वाले मोड़ पर होता है लेकिन सही कारणों से नहीं । फ़र्स्ट हाफ़ के बाद निराशाजनक रूप से सामने आती है जबकि इंटरवल के बाद फ़िल्म फ़िर से गिरने लगती है । परम का गलत तरीके से लंदन जाना, बांधे रखता है लेकिन इसका का भी कोई मतलब नहीं होता है । इससे भी बदतर सीन है, परम का अलीशा (अलंक्रिता सहाई) से शादी करने का नाटक । ये सभी सीन मूर्खतापूर्ण ही नहीं बल्कि फ़नी भी नहीं है । इसके अलावा यह फ़िल्म गलत संदेश भी देती है और यह प्रोजेक्ट करने की कोशिश करती है कि आप्रवासन एक बुरा विचार है और यह निश्चित रूप से सच नहीं है । साथ ही, फिल्म एक अचानक बिंदु पर समाप्त होती है और फिल्म के सभी संघर्ष तब भी समाप्त नहीं होते हैं जब क्रेडिट रोल शुरू हो जाता है ।

यह अर्जुन कपूर का सर्वश्रेष्ठ एक्ट नहीं है और उनका प्रदर्शन वांछित होने के लिए बहुत कुछ छोड़ देता है । वह कुछ दृश्यों में थके-मांदे और अधिक वजन वाले दिखते है । हालांकि परिणीति चोप।दा बेहतर दिखती है और अच्छा प्रदर्शन करती है । लेकिन अफ़सोस, खराब लेखन की वजह से वह मात खा जाती है । आदित्य सील (सैम) की एक अच्छी स्क्रीन उपस्थिति देते है और अपना प्रभाव छोड़ते है । हाल ही में रिलीज हुई वेब फिल्म लव प्रति स्क्वायर फ़ुट में नजर आईं अलंक्रिता सहाई (अलीशा), काफ़ी सिजलिंग दिखती है और अपने रोल में जंचती है । सतीश कौशिक को कुछ ज्यादा ही दिखा दिया है और उनका हर वाक्य में "डार्लिंग' बोलना फ़नी नहीं लगता है । ऐसा ही कुछ श्रेया मेहता (मिथि) के साथ भी है, जो कि प्रत्येक वाक्य के अंत में आवाज करती है, जैसे की नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने किक [2014] में की थी ! लेकिन वह आत्मविश्वासी अभिनय करती है । अनिल मंगे (इकबाल खान) सभ्य है । प्रतीक दीक्षित (केजी, ब्रिटेन में जन्मे भारतीय मूल व्यक्ति) हंसाने योग्य हैं । मल्लिका दुआ अच्छी हैं और शायद वह फिल्म में एकमात्र मजेदार किरदार है । अंजुम बत्रा, शिवेंद्र महल, हॉबी धालीवाल (परम के पिता) और विनोद नागपाल (सैम के दादा) अच्छे हैं, जबकि अभिनेता हरप्रीत का किरदार निभाने वाला अभिनेता कमाल का है ।

मनन शाह का संगीत कुछ गानों के साथ ठीक है जबकि दूसरे गाने निराश करते है । 'धूम धड़ाका काफ़ी आकर्षक हौर पैर थिरकाने वाला है । 'तेरे लिए' इसके बाद ठीक है । 'भरे बाजार' अच्छी तरह से काम नहीं करता है और इसे अचानक आधे में काट दिया जाता है । प्रसाद सशटे का पृष्ठभूमि स्कोर नाटकीय है । यियांनिस मोनोलोपोलोस की छायांकन उपयुक्त है लेकिन कुछ विशेष नहीं है । श्रीराम कन्नन इयनगर और सुजीत सावंत का प्रोडक्शन डिजाइन सतही दिखता है, खासकर पंजाब गांव के घर । अकी नारुला, संजना बत्रा और गायत्री थदानी के परिधान शुरू में विशेष नहीं हैं लेकिन लंदन के दृश्यों में परिणीती द्वारा पहने गए परिधान आकर्षक हैं । अमिताभ शुक्ला का संपादन खराब है ।

कुल मिलाकर, नमस्ते इंग्लैंड एक बेकार फ़िल्म है और एक खराब स्क्रिप्ट और कमजोर पटकथा के कारण दिल नहीं जीत पाती । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म दर्शकों को जुटाने के लिए काफ़ी संघर्ष करेगी ।