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लंबे समय से देश और दुनिया के सबसे ज्वलंत मुद्दों में से एक है , समाज में मुस्लिमों की धारणा । भारत में, 1947 के विभाजन की अत्यंत दर्दनाक यादें हिंदू-मुस्लिम विभाजन को सुलगाती हैं । हालांकि समय के साथ ये दूरियां कम हो रही हैं लेकिन कुछ जगहों पर ये आज भी विद्यमान है । इस हफ़्ते रिलीज हुई अनुभव सिन्हा की मुल्क इस पहलू के बारे में बेहद दमदार तरीके से बात करने का प्रयास करती हैं । तो क्या, अनुभव सिन्हा ऐसे संवेदनशील मुद्दों को बेहतरीन तरीके से उठाने में कामयाब होते है या कोई भी प्रभाव छोड़ने में नाकाम हो जाते है । आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : मुल्क

मुल्क एक ऐसे परिवार की कहानी है जो कई तरह की मुश्किलों का सामना करता है जब उनमें से एक पर, आतंकवादी होने का आरोप लगाया जाता है । मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) वाराणसी में एक सम्मानित वकील हैं और वह अपने सदियों पुरानी हवेली में अपनी पत्नी बादी तब्बसुम (नीना गुप्ता), भाई बिलाल (मनोज पहवा), बिलाल की पत्नी छोटी तब्बसुम (प्राची शाह पांडिया), बिलाल की बेटी अयात (वर्तिका सिंह) और बिलाल का बेटा शाहिद (प्रतीक बब्बर ) के साथ सुकुन से रहता है । पूरा मोहम्मद परिवार घर के सबसे बड़े सदस्य मुराद अली के 65वें जन्मदिन पर एक ग्रैंड पार्टी का प्लान बनाता है । इस दौरान उनकी बहू आरती (तापसी पन्नू), जिसकी शादी उनके छोटे बेटे आफताब (इंद्रनील सेनगुप्ता) से होती है और वे दोनों लंदन रहते है, लंदन से आती हैं और उन्हें सरप्राइज देती है । उसी दिन मुराद अली के जन्मदिन के दिन, शाहिद एक बहस के तहत कानपुर में एक क्रिकेट मैच देखने जाता है । उसके परिवार को भनक भी नहीं होती है, और शाहिद का ब्रेनवॉश कर दिया गया है और उसे इलाहाबाद में हुए एक बम विस्फोट , जिसमें 16 लोग मारे गए थे, में फ़ंसा दिया जाता है । शाहिद को सीसीटीवी फ़ुटेज में देखा जाता है और उसकी तलाश शुरू हो जाती है । पुलिस अफसर दानिश जावेद (रजत कपूर) उसे ढूंढ लेता है और आतंकवादी साबित करने में जुट जाता है । पेशे से वकील मोहम्मद अली इस खबर से बु्री तरह टूट जाते है । बिलाल पर भी आतंकवादी हमले के साथ शाहिद की मदद करने का आरोप लगता है और उसे भी गिरफ्तार कर लिया जाता है । इसके बाद पूरे मोहम्मद परिवार को आखिर उनकी वकील बहु तापसी पन्नू कैसे बचा पाती है, इसके लिए पूरी फ़िल्म देखनी पड़ेगी ।

अनुभव सिन्हा की कहानी बेहद शानदार है और जमाने की पुकार है । फ़िल्म में कई सारे किरदार हैं और सभी को बेहद खूबसूरती से लिखा गया है । अनुभव सिन्हा की पटकथा काफ़ी प्रभावपूर्ण है और यह दर्शकों को शुरू से लेकर आखिर तक बांधे रखती है । उन्हें पता है कि उन्होंने एक बेहद ही संवेदनशील मुद्दा अपने हाथ में लिया है और वह इसे खूबसूरती से मैनेज करते है । वह इस मुद्दे को दोनों तरफ से उठाते है और यह बहुत सराहनीय है । अनुभव सिन्हा के डायलॉग्स काफ़ी दमदार व ज्वलनशील है । संतोष (आशुतोष राणा) द्वारा बोले गए डयलॉग दर्शकों को चकित कर सकते हैं लेकिन प्रभाव बनाने के लिए इसकी आवश्यकता थी ।

अनुभव सिन्हा का निर्देशन बहुत अच्छा है और वह लिखित सामग्री के नियंत्रण में है । उनकी अक्सर उनकी पिछली फ़िल्में दस [2005], कैश [2007] और रा वन [2011] में इतनी बेहतरीन ढंग से निष्पादित न करने को लेकर आलोचना की गई है । लेकिन, मुल्क उन्हें इन सबसे उबार देगी । फ़िल्म में सिर्फ़ एक दाग है, और वो इसकी लंबाई और सेकेंड हाफ़ में इसका डांवाडोल हो जाना ।

इसके परिचय से लेकर अंत तक मुल्क दर्शकों को प्रभावित करती है । मोहम्मद परिवार और उनमें से प्रत्येक की विशेषताओं के साथ उन्हें परिचित कराने के बाद, धीरे-धीरे यह इंगित करता है कि शाहिद वह नहीं है जो वह प्रतीत होता है । वो सीन जहां, शाहिद को एनकाउंटर किया जाता है, काफ़ी रोमांचक है । लेकिन फ़र्स्ट हाफ़ का वो सीन, जब मुराद अली शाहिद के प्राणघातक अवशेषों को स्वीकार करने से इनकार करते हैं । यह देखना काफ़ी जिज्ञासा पैदा कर देता है कि, कैसे उसे और उसके परिवार को उन लोगों द्वारा आतंकवादियों के रूप में ब्रांडेड किया जाता है जो वर्षों से उन्हें जानते थे । सेकेंड हाफ़ में,फ़िल्म कोर्टरूप ड्रामा में तब्दील हो जाती है और एक अलग स्तर पर चली जाती है । हालांकि कुछ जगहों पर फ़िल्म गति खोती है । लेकिन फिल्म रफ़्तार तब पकड़ती है जब आरती मुराद अली से पूछताछ करती है और उससे कुछ कठिन सवाल पूछती है । ध्यान दें कि यह सीक्वेंस दर्शकों को पिंक [2016] की याद दिला सकता है, जिसमें अमिताभ बच्चन का एक ऐसा ही सीक्वंस था, जब वो तापसी को प्वाइंट साबित करने के लिए मजबूर करते है । क्लोजिंग बहस काफ़ी शानदार है और हैरान कर देने वाली है, यहां तक कि न्यायाधीश (कुमूद मिश्रा) का आत्मभाषण उल्लेखनीय है और दर्शकों को तालियों के लिए प्रेरित करेगा !

ॠषि कपूर बेहद साहसपूर्ण परफ़ोरमेंस देते है और अपने लंबे, शानदार करियर में अपने बेहतरीन प्रदर्शन देकर अमिट छाप छोड़ते है । और जिस तरह से वह अपने धर्म के कारण अपने राष्ट्रवाद को साबित करने के लिए बाध्य थे, वाकई देखने लायक है । क्लाइमेक्स से ठीक पहले, उनका आत्मभाषण बहुत यादगार है । तापसी पन्नू फ़र्स्ट हाफ़ में बेहतरीन लगती हैं और सेकेंड हाफ़ की शुरूआत में जो चल रहा है उसमें मूक दर्शक लगती है । लेकिन जैसे ही वह केस हाथ में लेती है, तो वह दर्शकों को अपनी शानदार परफ़ोरमेंस से सरप्राइज कर देती है । और उनके कारण ही क्लाइमेक्स हैरान कर देने वाले मोड़ पर आ जाता है । मनोज पहवा फ़िल्म का दूसरा अच्छा पहलू है । वह हमेशा से एक अच्छे अभिनेता रहे है लेकिन दुख की बात है फ़िर भी उन्हें इसका क्रेडिट कभी नहीं मिला । लेकिन मुल्क के साथ यकीनन वह चर्चा का विषय बन जाएंगे और उनके परफ़ोरमेंस को क्रेडिट मिलेगा । प्रतीक बब्बर छोटे से रोल में छा जाते है । आशुतोष राणा अपने किरदार में समाए हुए लगते हैं और खलनायक, सांप्रदायिक दिमाग वाले वकील के रूप में काफी जंचते है । परफ़ोरमेंस की बात करें तो रजत कपूर भरोसे के लायक़ लगते है । कुमुद मिश्रा का रोल छोटा है लेकिन प्रभावशाली है । नीना गुप्ता और प्राची शाह पांडिया सभ्य हैं लेकिन केवल फ़र्स्ट हाफ़ में उनके पास करने के लिए है । वर्तिका सिंह, अशरत जैन (रशीद) और इंद्रनील सेनगुप्ता ठीक हैं । अन्य अच्छा करते हैं ।

इस फ़िल्म में गानों की जरूरत नहीं थी । केवल 'ठेंगे से' काफ़ी अच्छा है । मंगेश धडके का पृष्ठभूमि स्कोर नाटकीय है और तनाव बढ़ाता है । ईवान मुलिगन का छायांकन काफी सभ्य है । निखिल कोवाले का आर्ट डायरेक्शन काफी स्वाभाविक और असली है । यास्मीन रोजर्स का मेकअप और प्रीतीशील सिंह के प्रोस्थेटिक्स उत्कृष्ट हैं, खासकर ऋषि कपूर के मामले में । रियाज - हबीब के एक्शन, लोन एक्शन सीन में काफ़ी ईमानदार है । बलू सालुजा का संपादन क्रिस्पी और बेहतर हो सकता था । कुछ सीन का अंत और शुरूआत काफ़ी अचानक होता है, इससे बचा जा सकता था ।

कुल मिलाकर, मुल्क एक दमदार और रोमांचक फ़िल्म है, जो प्रभावी रूप से हमारे देश के ज्वलंत मुद्दों को उठाती है । बॉक्सऑफ़िस पर यह फ़िल्म, बढ़त हासिल करने का दम रखती है । मुंहजुबानी तारीफ़ फ़िल्म के लिए अच्छा काम करेगी और साथ ही यह इस साल की अचानक ख्याति प्राप्त करने वाली फ़िल्म बनकर उभरेगी । जरूर देखिए !