अक्सर यह कहा जाता है कि दो प्रकार के भारत अस्तित्व में है । एक हिस्सा वो है जहां अच्छी खासी प्रगती हुई है और बड़े पैमाने पर उदारवाद और समानता के विचार को स्वीकार कर लिया गया है । लेकिन वहीं एक दूसरा हिस्सा वह है जहां अभी भी प्रतिगामी मानसिकता फ़ैली हुई है और महिलाओं को उनके मूल अधिकारों को देने में कोई दिलचस्पी नहीं है । लिपस्टिक अंडर माय बुर्का के प्रोमो मजेदार और हिला देने वाले क्षणों के साथ पितृसत्तात्मक सोच पर प्रहार करती है । तो क्या यह फ़िल्म समाज को आईना दिखाने में सक्षम होगी और प्रभाव छोड़ेगी, आईए समीक्षा करते हैं ।

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का अलग-अलग उम्र की चार महिलाओं की कहानी है, ये सभी भोपाल में जीर्ण होती इमारतों में रहती हैं । उषा परमार उर्फ बुआजी (रत्ना पाठक शाह) इस ढहती हुई इमारत की मालकिन हैं जो एक विधवा भी हैं । उनका पसंदीदा पास्टटाइम हिंदी रोमांटिक उपन्यास, मिल्स एंड बून के समान, जो कि एक पुरुष साथी के लिए एक मजबूत इच्छा प्रज्वलित जगाता है, पढ़ना है । वहीं शिरीन एक डोर टू डोर सेल्स वुमन का काम करती है और वह अपने काम में बहुत अच्छी है । वह अपनी जिंदगी के इस हिस्से को अपने पति रहीम (सुशांत सिंह), जो कि ज्यादातर समय सऊदी अरब में काम करता है, से छुपा कर रखती हैं । रिहाना (प्लाबिता बोरठाकुर) एक कॉलेज जाने वाली स्टूडेंट हैं जिसे उसका परिवार उसे बुर्का पहनने के लिए जबरदस्ती करता है । लेकिन उसे बुर्क पहनना अच्छा नहीं लगता है और वह प्रियजनों से इसे छुपाती है जो संगीत और क्लेप्टोमैनिया से संबंधित है । लीला (आहाना कुमरा) विद्रोही स्वभाव की होती है । वह अरशद (विक्रांत मैसी) से प्रेम करती है लेकिन उसकी मां उसे जबरदस्ती अरेंज मैरिज करने के लिए कहती है । कैसे इन चार महिलाओं को तीव्र चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, सोसायटी को देखते हुए अपनी जिंदगी जीने के लिए उन्हें क्या-क्या झेलना पड़ता है, यह सब बाकी की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का दर्शकों को अपरंपरागत आधार को इस्तेमाल करने के लिए कोई समय नहीं देती है । यह सीधे तौर पर उन 'वंडर वुमन' के जीवन को दर्शाती है और इस चीज से दर्शक परेशान हो सकते हैं । लेकिन 15 मिनट में चीजें बेहतर हो जाती हैं । किरदार और उनकी परिस्थितियां बहुत वास्तविक हैं । चार मुख्य किरदार बहुत आसानी से पहचान लिए जाते हैं और उनकी खोज को देखने में खुशी होती है, क्योंकि वे अपनी (सरल) इच्छाओं को पूरा करने के लिए जाते हैं, लेकिन अत्यंत गोपनीयता के साथ । हालांकि यह सबसे पहले मनोरंजक है, और इसी के साथ यह जानना भी दुखी है कि सभी महिलाओं को अपनी इच्छाओं को चोरी छुपे पूरा करना होता है ।

स्मार्ट और विनोदी लेखन के साथ चुनौतियां और परिस्थितियां दब गई हैं । गज़ल धलीवाल के संवादों पर गौर किया जाता है और उनकी सराहना की जाती है । पटकथा (अलंकृता श्रीवास्तव, सुहानी कंवर) अच्छी तरह से लिखी गई है । जो चीज फ़िल्म के लिए प्रशंसा के योग्य है वह है कि चारों को बराबर का स्क्रीन स्पेस दिया गया है । वहीं दूसरी ओर, फ़िल्म का फ़र्स्ट हाफ़ बहुत अच्छा है और दर्शकों को बांधे रखती है, जबकि सेकेंड हाफ़ में कहानी नई दिशाओं में आने के लिए संघर्ष करती है । इसलिए, प्रभाव बेजोड़ है- यह कई जगहों में मजबूत दिखती है लेकिन बाकी के सीन में कमजोर लगती है । फ़िल्म में बहुत ज्यादा हो रहा है और जो कि अनावश्यक है । उदाहरण के लिए, प्रिंसीपल प्लॉट के लिए पुनर्विकास ट्रैक का कोई उद्देश्य नहीं है । और इसके अलावा, फ़िल्म को 'महिला प्रधान' फ़िल्म बनाने के प्रयास में यह 'एंटी-मेल' फ़िल्म बन जाती है क्योंकि इसमें मौजूद करीब हर को नेगेटिव किरदार में पेश किया जाता है और एक भी आदमी को समान अधिकारों के प्रति संवेदनशील और समर्थक नहीं बताया जाता है । अलंकृता श्रीवास्तव का निर्देशन साफ़-सुथरा है । वह इस तरह के फ़्रेश और चुनौतीपूर्ण विषय को चुनने के लिए तारीफ़ के काबिल हैं । इन दिनों बॉलीवुड जिस तरह की फ़िल्में प्रोड्यूस कर रहा है, यह उनसे बहुत ही अलग है और बात फ़िल्म के पक्ष में जाती है । इसके अलावा चार किरदारों को लेकर फ़िल्म बनाना कोई आसान बात नहीं है और यह फ़िल्म एक किरदार से दूसरे किरदार में बहुत ही आसानी से शिफ़्ट हो जाती है । अंत में, वह इसे मनोरंजक बनाए रखती हैं और किसी भी जगह यह उपदेशात्मक नहीं लगती है ।

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का कुछ शानदार प्रदर्शनों पर निर्भर है । रत्ना पाठक शाह ने कई दमदर भूमिकाएं निभाई हैं लेकिन यह भूमिका निश्चिततौर पर बहुत सारे दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देगी । कई अभिनेत्रियां अपनी इस उम्र में ऐसे जोखिमभरे किरदार को निभाने का प्रयास नहीं करेंगी । रत्ना पाठक ने न केवल ये चैलेंज लिया बल्कि इस को अच्छी तरह से निभाया भी । कोंकणा सेन शर्मा को देखना बहुत अच्छा लगा । उन्होंने अपना किरदार बहुत ही ईमानदारी से निभाया है । प्लाबिता बोरठाकुर और अहाना कुमरा फ़िल्म के सबसे बड़े सरप्राइज हैं । प्लाबिता न केवल एक अच्छी अदाकारा हैं बल्कि बेहतरीन गायिका भी हैं ।अहाना बहुत आत्मविश्वास के साथ अपनी भूमिका निभाती हैं । हालांकि इतनी बेहतरीन परफ़ोरमेंस देना बहुत चुनौतीपूर्ण था लेकिन इस अदाकार ने इसे काफ़ी सहजता के साथ निभा दिया । विक्रांत मैसी ने एक बार फ़िर अपने दमदार अभिनय से सभी को हैरान कर दिया । इस अभिनेता ने इस साल लगातार बेहतरीन परफ़ोरमेंस देकर सभी को चौंका दिया है । हाफ़ गर्लफ़्रेंड से लेकर ए डेथ इन द गुंज और अब लिपस्टिक अंडर माउ बुर्का के साथ विक्रांत ने साबित कर दिया कि वह एक प्रतिभाशाली अभिनेता हैं और वह हर तरह के किरदार निभाने में सक्षम हैं । नेगेटिव रोल में सुशांत सिंह काफ़ी जंचते हैं । वैभव ततवावड़ी (जसपाल) प्रभावशाली है । शशांक अरोड़ा (ध्रुव) सख्ती से कहें तो ठीक-ठाक है क्योंकि उनके प्रदर्शन ने तितली में उनके अभिनय का एक देजावू देते है ।

ज़बूनिसा बंगाश का संगीत पैर-हिलाने वाला है लेकिन गीतों में बहुत गुंजाइश नहीं है । 'ले ली जान' और 'जिगी जिगी' अच्छे हैं लेकिन ज्याद याद रखने योग्य नहीं है । मंगेश धडके का बैकग्राउंड स्कोर हालांकि बेहतर है और एक फिल्म को एक अच्छा और हल्की-फ़ुल्की फ़िल्म होने का फ़ील देता है ।

रोहित चतुर्वेदी की वेशभूषा प्रामाणिक हैं, लेकिन ग्लैमरस भी हैं । चारुश्री रॉय की एडिटिंग कसी हुई और क्रिस्पी है । विक्रम सिंह के सेट वास्तव में वास्तविक जीवन से बाहर नजर आता हैं । अक्षय सिंह की सिनेमेटोग्राफ़ी ने भोपाल के स्थानीय जगहों को बहुत अच्छी तरह से कैप्चर किया है ।

कुल मिलाकर, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का अपने साहसी आधार, किरदार और कहानी कहने के कारण प्रशंसा के योग्य हैं । बॉक्सऑफ़िस पर हालांकि यह फ़िल्म, आपत्तिपूर्ण और अपरंपरागत कंटेंट के कारण कठिनाई का सामना करेगी और केवल विशिष्ट दर्शकों को ही आकर्षित करेगी और वो भी महानगरीय शहरों में ।