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अलग-अलग धर्मों की प्रेम कहानी का चार्म कभी खत्म नहीं हो सकता है । काफ़ी समय से कई फ़िल्ममेकर्स इस विषय पर कई यादगार फ़िल्म बना चुके हैं जैसे- बॉबी[1973],जुली[1975],बॉम्बे[1995], गदर-एक प्रेम कथा[2001],वीर ज़ारा[2004],इश्कजादे [2012], रांझना [2013] इत्यादि । और अब फ़िल्ममेकर अभिषेक कपूर ने इस विषय पर एक लेटेस्ट प्रेम कहानी को दिखाने का प्रयास किया है अपनी फ़िल्म केदारनाथ में, जो इस हफ़्ते सिनेमाघरों में रिलीज हुई है । यह प्रेम कहानी उत्तराखंड के एक लोकप्रिय धार्मिक स्थल केदारनाथ की पृष्ठभूमि के इर्द-गिर्द बुनी गई है । इसके अलावा, यह फ़िल्म 2013 में आई प्राकृतिक आपदा को भी एक अलग तरह से दर्शाती है । यह मुख्य तत्व फ़िल्म को आकर्षक बनाते है यदि फ़िल्म अच्छे से हैंडल की गई हो । तो क्या अभिषेक कपूर इस पृष्ठभूमि के साथ न्याय कर पाते हैं ? या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाते है ? आइए समीक्षा करते है ।

फ़िल्म समीक्षा : केदारनाथ प्रेम कहानी और आपदा के बीच उलझ सी जाती है

 

केदारनाथ एक ऐसी प्रेम कहानी है जो प्राकृतिक आपदा से ठीक पहले जन्म लेती है । मुस्लिम युवक मंसूर (सुशांत सिंह राजपूत) पेशे से एक पिठ्ठू है, जो केदारनाथ के लोकप्रिय मंदिर तक यात्रियों को ले जाने का काम करता है और केदारनाथ के एक छोटे से कस्बें में रहता है । लेकिन यहां उसका धर्म उसके काम के आड़े नहीं आता है । इसी कस्बे में एक और लड़की रहती है जो ब्राह्मण की बेटी मंदाकिनी उर्फ़ मुक्कू (सारा अली खान) है । मुक्कू के पिता ब्रजराज(नितिश भारद्दाज ) पुजारी है और मंदिर के रास्ते में उनका खुद का लॉज और दुकाने है । ब्रजराज अपनी बेटी का रिश्ता कुल्लू (निशांत दहिया) जिसका इस कस्बे में काफ़ी बड़ा नाम है, के साथ पक्का कर देता है । लेकिन मुक्कू इस शादी के खिलाफ़ होती है और उसे ये रिश्ता नामंजूर होता है । इसके अलावा कुल्लू शुरूआत में मुक्कू की बहन वृंदा (पूजा गौर) से शादी कर रहा था लेकिन फ़िर वह मुक्कू को चुनता है । इसी बीच मुक्कू मंसूर से मिलती है और दोनों में प्यार हो जाता है । जब सभी को पता चलता है कि मुक्कू और मंसूर के बीच प्रेम कहानी चल रही है तो परेशानी खड़ी हो जाती है । इसके बाद क्या होता है, ये आगे की फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।

अभिषेक कपूर और कनिका ढिल्लन की कहानी बेहद कमजोर है । हिंदू-मुस्लिम प्रेम कहानी मौत के घाट उतारने वाली दिखाई गई है और ऐसा लगता है कि इसे जबरदस्ती जोड़ा गया है वो भी बिना किसी उद्देश्य के । कनिका ढिल्लन की पटकथा असंगत है । कुछ दृश्य सभ्य लेकिन बाकी की फ़िल्म में कुछ भी रोमांचक नहीं है । कनिका ढिल्लन के संवाद हालांकि प्रभावशाली हैं ।

अभिषेक कपूर का निर्देशन खराब है और ऐसा लगता है कि उन्होंने अपनी पिछली फ़िल्म फ़ितूर [2016] की बड़ी विफ़लता से कुछ नहीं सीखा । आपको बता दें कि वह इस फ़िल्म के साथ कन्फ़्यूज से लगते हैं कि क्या यह एक लव स्टोरी है या एक सोशल ड्रामा और क्या यह एक आपदा से संबंधित है । फ़िल्म इन्हीं शैलियों में उलझ सी जाती है, जिसकी वजह से फ़िल्म का प्रभाव कम हो जाता है । इसके अलावा यह फ़िल्म अपने मुद्दे पर आने में काफ़ी समय लगाती है । 120 मिनट लंबी इस फ़िल्म में 50 मिनट में इंटरमिशन होता है और वो भी अप्रत्याशित मोड़ पर । यह दर्शकों को उलझा सा देता है क्योंकि तब तक फ़िल्म में कुछ खास नहीं हुआ होता है । इसके अलावा सेकेंड हाफ़ में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर वह फ़िल्म को एक अनजाने से फ़नी मोड में ले जाते है जहां एक साधु बाबा बाढ़ के दौरान जाने से इंकार करता है ।

केदारनाथ के पहले 10 मिनट काफ़ी खूबसूरत है । केदारनाथ में स्थित मंदिर की डेली रूटीन लाइफ़ और पिठ्ठूओं/सामान ढोने वाले का दिनभर का काम काफ़ी खूबसूरती से दर्शाया गया है । मंसूर और मुक्कु के बीच के कुछ रोमांटिक सीन शानदार हैं, खासकर उनका गुफ़ा वाला सीन । हालांकि फ़िल्म बहुत खींची जाती है । जैसा कि आप जानते हैं कि उनकी प्रेम कहानी एक समस्या का कारण बन रही है और आपको पता है ये बाढ़ एक नई परेशानी खड़ी करेगी । इसमें कोई संदेह नहीं है कि बाढ़ सीक्वंस प्रमाणित कर रहे हैं । लेकिन क्योंकि स्क्रिप्ट लेवल पर यह फ़िल्म मात खा जाती है, और ये सीन दर्शकों का दिल जीतने में नाकाम साबित होते है । क्लाइमेक्स सीन, दिल दहला देने वाला साबित हो सकता था लेकिन वांछित प्रभाव मिसिंग है ।

इस फ़िल्म में सुशांत सिंह राजपूत टॉप फ़ॉर्म में नहीं लगते है । इसमें कोई शक नहीं है कि उन्होंने पिठ्ठु की भूमिका निभाने के लिए शारीरिक रूप से काफ़ी मेहनत की थी । लेकिन परफ़ोर्मेंस की बात करें तो, उनसे और ज्यादा उम्मीद थी । हैरानी की बात है, फ़र्स्ट हाफ़ के पहले घंटे में उनके कुछ डायलॉग को समझना मुश्किल है । सारा अली खान अपनी शुरूआत, दमदार आत्मविश्वास के साथ करती है और इस फ़िल्म से सिर्फ़ उन्हें ही चमकने का मौका मिलेगा । लेकिन दुख की बात है कि उनका किरदार समझ से परे है । सारा के किरदार का मंसूर के लिए अचानक पागल हो जाना, पचा पाना मुश्किल है । नीतीश भारद्वाज सभ्य और संयमपूर्ण हैं । निशांत दहिया खलनायक की भूमिका को अच्छे से अदा करते है । लेकिन फ़िर उनका प्रदर्शन थोड़ा सा पीड़ित है क्योंकि निर्माताओं ने उनके किरदार को खुलकर बयां नहीं किया कि क्यों उनका किरदार हर किसी के द्दारा श्रद्धेय था । पूजा गोर एक अमिट छाप छोड़ती है । सोनाली सचदेव (लता; मुकु की मां) और अल्का अमीन (मंसूर की मां) ठीक है । अन्य कलाकार अपने-अपने किरदार में बखूबी जंचते है ।

अमित त्रिवेदी का संगीत सुरमयी है लेकिन फिल्म में अच्छी तरह से उपयोग नहीं किया जाता है । 'नमो नामो' एकमात्र ऐसा गीत है जो एक अमिट छाप छोड़ता है । 'काफिराना' और 'जान निसार' सिर्फ़ ठीक है, जबकि 'स्वीटहार्ट' अच्छी तरह कोरियोग्राफ किया गया है । हितेश सोनिक का पृष्ठभूमि स्कोर कुछ खास नहीं है । ऑल्विन रेगो और संजय मौर्य का साउंड डिजाइन विशेष रूप से बाढ़ के दृश्यों में रोमांच जोड़ता है ।

तुषार कांती रे का छायांकन सांस रुका देने वाला है । केदारनाथ की लोकेशन को इससे पहले इतना खूबसूरत किसी भी फ़िल्म में नहीं दिखाया गया और यह फ़िल्म में आकर्षण को जोड़ता है । दवे जज और सुनील रॉड्रिग्स के एक्शन अच्छी तरह से दर्शाए गए है । मयूर शर्मा का प्रोडक्शन डिजाइन प्रामाणिक है । इसके बाद स्टूडियो के वीएफएक्स बेहतर है । हालांकि यह समझना मुश्किल होत है कि महत्वपूर्ण बाढ़ के दृश्यों में इतना अंधेरे क्यों रखा गया ।

श्रुति कपूर और अबू जानी-संदीप खोंसला की वेशभूषा बेहद शानदार है और सारा द्दारा पहनी गई ड्रेस तो तारीफ़ के काबिल है । चंदन अरोड़ा का संपादन और बेहतर हो सकता था ।

कुल मिलाकर, केदारनाथ अपर्याप्त व दोषपूर्ण लेखन और कमजोर निष्पादन के कारण निराश करती है । लेकिन फ़िल्म में जो देखने लायक है वो है नवोदित अभिनेत्री सारा अली खान का आश्चर्यजनक परफ़ोरमेंस और बाढ़ के सीन । बॉक्सऑफ़िस पर इस फ़िल्म का भाग्य, औसत रहेगा ।